आत्म-त्याग ही सर्वोच्च धर्म

October 1968

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जीवन का एक लक्ष्य है ज्ञान और द्वितीय सुख। ज्ञान और सुख के समन्वय का ही नाम मुक्ति है। आत्म-चिन्तन के द्वारा माया बन्धनों और साँसारिक अज्ञान को काट लेते हैं और विषय विकारता से छूट जाते हैं तो हम मुक्त हो जाते हैं किन्तु ऐसी मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती, जब तक सृष्टि के शेष प्राणी बन्धन में पड़े हैं।

जब तुम किसी को क्षति पहुँचाते हो तो तुम अपने आपको क्षति पहुँचाते हो। तुम में और तुम्हारे भाई में कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह छोटे-छोटे अवयवों से मिलकर शरीर बना है, उसी प्रकार छोटे-छोटे प्राणियों से मिलकर संसार बना है। कान को दुःख होता है तो आँख रोती है, उसी तरह समाज के किसी भी व्यक्ति का दुःख तुम्हारे पास पहुँचता है, इसलिये केवल अपने सुख से मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती।

इस कसौटी पर जब लोगों को अपने लिये बढ़-चढ़कर अधिकार माँगते देखता हूँ तो ऐसे आदमी से मुझे बड़ी घृणा होती है। अधिकार व्यक्ति को स्वार्थी और संकीर्ण बनाते हैं। विश्व में जो कुछ अशुभ है, उसका उत्तरदायित्व प्रत्येक व्यक्ति पर है। अपने भाई से अपने को कोई पृथक् नहीं कर सकता। सब अनन्त के अंश हैं। सब एक दूसरे के रक्षक और सहयोगी हैं। वास्तव में वही सच्चा योगी है जो अपने में संपूर्ण विश्व को और सम्पूर्ण विश्व में अपने को देखता है। अपने लिये अधिकारों की माँग करना पुण्य नहीं है, पुण्य तो यह है कि हम छोटे-से-छोटे जीव के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकते हैं या नहीं। इसके लिये अपने अधिकार छोड़ने पड़ते हैं। इस लोक में यही सबसे बड़ा पुण्य है। आत्म-त्याग ही इस संसार का सर्वोच्च धर्म है। -स्वामी विवेकानन्द,


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