अनेकों झील, पर्वत एवं सैकड़ों नदी-नद शरीर के हर कण में

October 1968

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मनुष्य-शरीर बड़ी विलक्षण मशीन है यह मान्यता है डडड आधुनिक वैज्ञानिकों की। पूर्वात्य मान्यता यह है कि जो कुछ इस ब्रह्माण्ड में है, वह सब पिण्ड (मनुष्य देह में) में विद्यमान है। आकाश पाताल, सात लोक, अनेक झीलें, सैकड़ों पर्वत, प्रशान्त महासागर और बड़े बड़े विसूसियस ज्वालामुखी। नदियाँ, नद, मेघ, जल, चन्द्रमा, सूर्य और जीवन के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा, करने वाली शक्तियाँ और अन्त में ब्रह्म-पुरुष को भी दृश्य रूप में इसी शरीर में प्रविष्ट होना पड़ा। अर्थात् जो कुछ भी बाहर दिखाई देता है वह सब भीतर है।

अनन्त शक्तियों का कोष और मुद्राओं का स्वामी एवं अधिपति होते हुए भी मनुष्य दुःखी क्यों है? इस पर भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने विशद् प्रकाश डालते हुये बताया कि अज्ञान ही दुःख का कारण है। हम समझते हैं कि दृश्य प्रकृति ही सुख का साधन है तो उसी के लिये आपा-धापी करने लगते हैं, फलतः जीवन में वासनायें, तृष्णायें, कलह, क्रोध, अनैतिकताऐं, आलस्य, द्वेष, छल, छद्म प्रवेश करते चले जाते हैं। मनुष्य अशान्त और दुःखी बना रहता है। वह कभी यह नहीं सोचता कि मनुष्य ने शरीर रूप का यह जो एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वाहन दिया है, क्या उसे यथार्थ सुख, आत्म-कल्याण, अनन्त आनन्द और मोक्ष प्राप्ति में नियोजित किया जा सकता है?

जो इसके लिये प्रयत्न करते हैं, उन्हें अपने समीप ज्ञान और सुख की कैसी अनुभूतियाँ होती हैं, उसका विस्तृत विवरण ध्यान बिन्दूपनिषद में दिया है। दृष्टा का कथन- जिस प्रकार तेल का आश्रय तिल है और गन्ध का आश्रय पुष्प है, इसी प्रकार ब्रह्म-पुरुष शरीर के भीतर और बाहर स्थित है। गमागम में स्थित और गमनादि से शून्य डडडड करोड़ों सूर्य की दीप्त वाले भगवान ओंकार सबके हृदय में निवास करते हैं, उनका ध्यान करने वाले निष्पाप हो जाते हैं।

इसी संदर्भ में षट्-चक्रों, सहस्रार, कमल। दस प्रधान नाड़ियाँ, पाँच प्राण, पाँच नाग और बहत्तर हजार नदियों का विशद् वर्णन है। शरीरगत यह सूक्ष्म किन्तु विशाल प्रतिष्ठान अनेक शक्तियों, सामर्थ्यों एवं विचित्रताओं से ओत-प्रोत है। जिस चक्र या मर्म का बेधन या ध्यान करते हैं, उसकी शक्तियाँ विकसित होने लगती हैं। मनुष्य जो कुछ बनना चाहता है, उसके लिये विशेष शक्ति भी इसी शरीर से मिलती है। इस शरीर में संक्षेप में वह सब कुछ है, जिसकी हम इच्छा करते हैं और जिसे जानते भी नहीं।

इन शक्ति संस्थानों में जो स्थूल हैं, उनकी अब तक जो जानकारी वैज्ञानिकों को मिली है, वह सब उपरोक्त तथ्यों का ही समर्थन करती है। सर्वप्रथम राबर्ट हुक नामक वैज्ञानिक ने अपने सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र की सहायता से यह दिखाया कि दुनिया की कोई छोटी से छोटी ऐसी वस्तु नहीं जिसे इस यंत्र से न देखा जा सके। उन्होंने प्रत्येक पदार्थ में आधारभूत इकाई का नाम सेल (कोशिका) दिया। बाद में वैज्ञानिकों ने यह निश्चित किया, संसार के सभी जीव-जन्तु, वृक्ष, वनस्पति और प्राणी कोशिकाओं से बने हैं। अभी तक कोशिकाओं की ही जानकारी थी पर 1831 में ब्रिटिश जीव-शास्त्री राबर्ट ब्राउन ने एरियोला या न्यूक्लियस (नाभिक) नामक एक नये तत्त्व की खोज की। यहीं से शरीर के अस्तित्व के साथ एक नये जीवन के अस्तित्व का प्रारम्भ हुआ।

अब तक कोशिकाओं के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा चुकी हैं और ‘नाभिक’ के सम्बन्ध में जानकारियों का अथाह समुद्र अभी छिपा पड़ा है।

यह कोशिकायें ही शरीर में विलक्षण स्थूल-लोकों का निर्माण करती हैं। जर्मनी के दो वैज्ञानिकों श्वान और श्लाइडन ने यह सिद्ध कर दिखाया कि सभी प्राणियों के शरीर कोशिकाओं से बने हैं। कोशिका पदार्थ के सबसे छोटे किन्तु दृश्य कण को कहते हैं। यह कोशिकायें पहले से विद्यमान् कोशिकाओं के ही विभाजन से बनती हैं अर्थात् कोशिका शरीर का कभी अंत नहीं होता, उसका विभाजन होता रहता है। यही नहीं बुद्धि विकास, वंशक्रम, रक्त और गुणों की एकरूपता, बीमारी, वृद्धावस्था, मृत्यु और नये जन्म की व्यवस्था में भी इन कोशिकाओं का आचरण मुख्य रहता है।

कुछ प्राणियों को छोड़कर शेष सभी प्राणियों की कोशिकायें अनेक तत्त्वों की बनी होती हैं, जो तत्त्व विकृत होते हैं, वहाँ उस तरह के विषाणु पैदा होते रहते हैं। उसका फल बीमारियाँ होती हैं। अपने आप में शुद्ध और समुन्नत कोशिकाओं से जीवन, आयु और प्राण की वृद्धि भी होती रहती है। अब यह विश्वास किया जा रहा है कि प्रत्येक प्राणी की कोशिकाओं का विश्लेषण कर लिया जाय और मानव शरीर में उनकी समीक्षा की जाये तो जिस जाति की कोशिकायें बहुतायत से पाई जा रही होंगी, पूर्व जन्म उसे से संबंधित रहा होगा। कोशिकायें प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित पदार्थ से बनी होती हैं। इसके भी साइटोप्लाज्म और नाभिक (न्यूक्लियस) दो भाग होते हैं। साइटोप्लाज्म अर्क्षपार दर्शक जल मिश्रित जेली की तरह का होता है, जिसमें अनेक प्रकार के प्रोटीन, लवण, शर्करा और वस्तुयें होती हैं पर नाभिक के बारे में अभी मिश्रित तथ्य नहीं प्राप्त किये जा सके। इसका संबंध प्राण विद्या से है। जब उसे वैज्ञानिक अनेक जानकारियाँ प्राप्त करेंगे तो पूर्व अध्यात्म की और भी विलक्षण पुष्टि होगी। पर एक बात तो यहाँ अभी सिद्ध हो गई कि आहार क्रम को बदलकर कोशिकाओं को बदला जा सकता है। भले ही यह क्रम मंदगामी हो पर यदि एक ही प्रकार के पदार्थ खाने के लिये जायें तो उसी प्रकार की कोशिकाओं को विकसित और सतेज कर विषाणुओं और दुर्बल एवं अधोगामी योनियों में पाई जाने वाली कोशिकाओं को हटाया और कम किया जा सकता है। इसका प्रभाव यह होता है कि मनुष्य में जो पाशविक वृत्तियाँ होती हैं, वह इन कोशिकाओं की मंद, अशुद्ध और जटिल स्थिति के कारण होती हैं, उन्हें बदलकर शुद्ध, सात्विक बनाया जा सकता है। अस्वाद व्रत और उपवास का महत्व इस जानकारी के आधार पर और भी बहुत अधिक बढ़ जायेगी।

यदि कोशिका को काटकर नाभिक से अलग कर दिया जाय तो कोशिका की मृत्यु हो जायेगी पर नाभिक में स्वतः निर्माण की क्षमता होती है, हमारा आध्यात्मिक दर्शन यह कहता है कि उस नाभिक में इच्छा, आशा, संकल्प और वासना का अंश रहता है, उसी के अनुरूप वह दूसरा जन्म ग्रहण करता है। अभी पाश्चात्य विज्ञान इस संबंध में तो खोज नहीं कर पाया पर कोशिकाओं से निकलने वाली एक तरह की किरणें जिन्हें क्रोमोसोम कहते हैं की जानकारी मिली है। प्रत्येक पदार्थ में क्रोमोसोम की संख्या अलग-अलग होती है। गेहूँ में 42, मनुष्य शरीर की कोशिकाओं में 46 और किन्हीं-किन्हीं जीवों की कोशिकाओं में 100-100 तक क्रोमोसोम पाये जाते हैं। यह क्रोमोसोम भी जीन नामक परमाणुओं से बने होते हैं। इनके अलग-अलग रंग भी होते हैं, उन कणों को एलील कहा जाता है।

जब इन सब की विस्तृत खोज होगी तो अनुमान है मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सूक्ष्म-तत्त्वों की और भी विशद् जानकारी होगी। इनमें नाभिक हर घड़ी क्रियाशील रहता है और वह इन क्रोमोसोम के माध्यम से साइटोप्लाज्म को भी गतिशील रखता है। इच्छानुवर्ती शरीर क्रिया को बदलने का सम्भव है बड़ा विज्ञान इसमें सन्निहित हो और उसकी जानकारी बाद में वैज्ञानिकों को मिले।

यद्यपि कोशिकाओं के अन्दर निर्माण और क्रियाशील रखने वाली शक्ति न्यूक्लियस या नाभिक ही है। पर साइटोप्लाज्म का कार्य उससे कम महत्वपूर्ण नहीं दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सच पूछा जाये तो साइटोप्लाज्म भी उतना ही शक्तिशाली, व्यापक और विशाल है।

जब इनकी वैज्ञानिकों ने विस्तृत खोज की तो पता चला एक साइटोप्लाज्म के अन्दर एक बड़ी भारी झील है, उसमें कई इतने बड़े महानगर हैं, जितने न्यूयार्क, वाशिंगटन, लन्दन, पेरिस, वारसा या दिल्ली आदि। उसमें छाये हुये कुहरे को हटाकर देखा गया तो वहाँ तो एक भयंकर हलचल दिखाई दी। उसी में अनेकों प्रकार के विद्युत संस्थान जैसे शक्ति केन्द्र और कार्य प्रणालियाँ दिखाई दीं। उसे देखकर वैज्ञानिक विस्मित रहेगी। सबसे छोटे वाले अणु के अन्दर इतना व्यापक और विशाल क्षेत्र विद्यमान् है, जितना बड़ा और विराट् यह ब्रह्माण्ड है।

देखा गया है कि यह संरचनायें जब परस्पर जुड़ती हैं या संबंध स्थापित करती हैं तो एक बड़ी भारी सड़क बनती है। लाखों मील लंबी नहरें दिखाई देती हैं। कोशिकाओं के कुछ अंश उतने उठे हुए दिखाई देते हैं, जैसे वह हिमालय अथवा आल्पस पर्वत हों, उन पर प्रकृति के वह पदार्थ भी झलकते और चमकते दिखाई देते हैं, जो पर्वतों और नदियों के किनारे दिखाई देते हैं। नेत्र विस्फारित हो उठते हैं कि आखिर एक परमाणु के अन्दर यह सब कैसी हलचल है। मनुष्य जो भी खाता है वह शरीर में स्थापित विद्युत केन्द्रों को पहुँचता है, वहाँ से हर स्थान की आवश्यकता के अनुरूप ऊर्जा की सप्लाई होती है, उसे देखकर लगता है, इन सब कामों को कोई इंजीनियर बड़े ही कुशलतापूर्वक चला रहा है।

कोशिकाओं के संबंध में अभी तक स्थूल जानकारियाँ ही मिलती हैं, उसके आधार पर ही चिकित्सा जगत् में हलचल पैदा हो गई है, ऐसे-ऐसे इन्जेक्शन्स और औषधियाँ बनाली गई हैं, जिनसे अब मनुष्य का केवल कायाकल्प करना शेष रह जायेगा, बाकी रोगों को नष्ट करना, दीर्घजीवन प्राप्त करना सब वैज्ञानिकों को मुट्ठी में ही जायेगा।

यह कोशिकायें शरीर के विभिन्न अंगों में, विभिन्न गुणों वाली होती हैं, उनकी जानकारी करने पर शरीर द्वारा शरीर की ही चिकित्सा कर लेना भी संभव हो जायेगा। और अधिक भीतरी मर्मस्थलों की खोज हुई तो मनुष्य यन्त्रों के द्वारा अनेक ऐसी शक्तियाँ प्राप्त कर लिया करेगा, जिनकी सम्भावनायें तन्त्र-विज्ञान से संबंध रखती हैं। इनमें अणिमा, गरिमा, लधिमा आदि सिद्धियाँ भी सम्मिलित होंगी।

कोशिकाओं के भाग- कोशिकावरण प्लास्टिक, वैकुओल एण्डोप्लाज्मिक, रेंटिकुलभ, सेन्ट्रियोल ओर माइटोकोन्ड्रिया आदि की विस्तृत जानकारी होगी तो ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों का पता शरीर में ही लग जाया करेगा। इन सब ने शरीर में नहरों और नदियों का सा जाल बिछा रखा है। जितनों की ऊर्जा सूर्य, चन्द्रमा जैसी चमकदार है। इन्हीं की जब सूक्ष्म नेत्रों से अनुभूति होती है तो ऐसा लगता है कि शरीर में ही संपूर्ण लोक, दिग्पाल, यमराज, चित्रगुप्त आदि बैठे हैं, अभी उन महाशक्तियों से लाभ दिखाने वाला विज्ञान तो बाकी ही है पर लगता है, वह ज्ञान यान्त्रिक न होकर भावनात्मक होगा। और उसकी विस्तृत जानकारी के लिये मनुष्य को हमारी शैली पर ही उतरना पड़ेगा। उन प्रक्रियाओं को ग्रहण करना पड़ेगा, जिनका विकास हमारे ऋषियों, दार्शनिकों एवं योगियों ने किया है।


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