अणु-शक्ति अभिशाप अथवा वरदान?

October 1968

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जिस दिन 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा टापू में पहला बम फटा उसी दिन संसार के ऊपर एक ऐसी काली-छाया पड़ गई, जो सदैव उसके अस्तित्व को संकटापन्न बनाती रहती है। तब से अब तक लगभग 28 वर्ष का लंबा समय बीत गया और संसार जीता-जागता दिखाई पड़ रहा है, पर समाचार-पत्रों के नियमित पाठक जानते हैं कि इस बीच में न मालूम कितनी बार सर्वनाश की सम्भावना उत्पन्न हो चुकी है और दो-तीन बार तो अणु-बमों से लदे विमानों को ‘शत्रु’ पर आक्रमण करने का आदेश दिया जा चुका है। वह तो भला हो कैनेडी, खुरश्चैव और पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे महामानवों का, जिन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगाकर ऐसी ‘दुर्घटनाओं’ को रोका और संसार की रक्षा की।

यह नई ‘अणु महाशक्ति’ निश्चय ही संसार की कायापलट करके रखेगी, इस तथ्य को सभी जानकार लोगों ने उसी समय जान लिया था। अमेरिका में ‘अणु-वैज्ञानिकों’ के संघ ने, जिनकी खोजों के आधार पर अणु-बम बनाया जा सका था, एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था- ‘‘अणु-बम के सच्चे अर्थ के संबंध में जनता के सामने एक वक्तव्य।” इसके मुख पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में लिखा था- ‘वन वर्ल्ड और न न।’ इसका आशय था कि “अणु-शक्ति सामान्य रासायनिक शक्ति से लाखों गुना अधिक जोरदार है। इसने एक क्षण में हिरोशिमा की सभ्यता को आसमान में पहुँचा दिया। अगर इसको नियन्त्रण में रखा जा सके तो यह मानव-जाति के जीवन यापन-स्तर को इतना अधिक ऊँचा उठा सकती है, जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते।”

इतना ही नहीं उसी समय ‘राष्ट्र संघ’ (यूनाइटेड नेशंस) की जनरल असेम्बली ने एक ‘ऐटोमिक एनर्जी कमीशन’ नियुक्त किया, जिसे निम्न विषयों पर विचार करने का आदेश दिया गया-

विभिन्न राष्ट्रों के बीच अणु-शक्ति सम्बन्धी वैज्ञानिक जानकारी का शाँतिपूर्ण कार्यों के लिये आदान-प्रदान किया जाय।

अणु शक्ति के नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था की जाय, जिससे उसका उपयोग शाँतिपूर्ण उद्देश्यों के निर्मित ही किया जाय।

राष्ट्रीय सैनिक अस्त्र-शस्त्रों में से सर्व-सहायक अणु-शस्त्रों तथा अन्य ऐसे ही शस्त्रों को त्याग दिया जाय।

इसमें सम्मिलित होने वाले राष्ट्रों की दृढ़ सुरक्षा के लिये निरीक्षण तथा अन्य उपायों द्वारा इस निषेध के विरुद्धाचरण करने वालों की जाँच-पड़ताल की जाती रहे।

ये सभी उद्देश्य बहुत स्पष्ट और विश्व-हितकारी थे और सभी प्रमुख देशों ने इनकी युक्ति-युक्तता स्वीकार की थी, पर खेद है कि आज सत्ताईस वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी यह निर्माण जवानी बहस में ही पड़ा है। अणु-शस्त्रों का निर्माण और प्रसार रोकने की चेष्टा करते रहने पर भी उनका निर्माण और उनकी शक्ति सन् 1946 की अपेक्षा सौगुनी हो चुकी है। उस समय अकेले अमरीका के पास शायद दस-पाँच साधारण श्रेणी के एटम बम थे, तो आज अमरीका और रूस के पास कुल मिलाकर पाँच हजार से भी अधिक बम होंगे, जिनमें से हर एक पुराने बमों से दस से सौ-गुना तक शक्तिशाली है।

यह नई प्रलयकारिणी शक्ति, जो विधि के विधानवश स्वार्थी मनुष्य के हाथों में आ गई है कितनी भयंकर है, उसका कुछ अनुमान उन विवरणों से किया जा सकता है, जो समय-समय पर अमरीका और योरोप के पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं। उससे विदित होता है कि दो करोड़ टी. एन. टी. (विस्फोटक) में जितनी शक्ति होती उतनी ही शक्ति ‘यू 235’ (एटम बम में काम आने वाला ‘यूरेनियम’ नाम का पदार्थ) के एक किलोग्राम में पाई जाती है। एक किलोग्राम यूरेनियम में ‘थर्मोन्यूक्लियर’ 5 करोड़ 70 लाख टी. एन. टी. के समान स्फोट करने की प्रचण्ड शक्ति होती है। आप इसका अनुमान इससे कर सकते हैं कि इसका प्रभाव उतना ही होगा जितना एक लाख तोप के भयंकर गोलों का हो सकता है।

यह शक्ति कितनी प्रचण्ड है इसका अनुमान इससे हो सकता है कि जहाँ कोयला और पेट्रोल के एक किलोग्राम से, 8 से 12 तक किलोवाट शक्ति का उत्पादन होता है वहां यूरेनियम और थोरियम धातुओं के एक किलोग्राम से 2 करोड़ 30 लाख किलोवाट शक्ति पैदा होती है और हाइड्रोजन के रूप में वह प्रति किलोग्राम 17 करोड़ 70 लाख तक पहुँच सकती है।

इस प्रकार पुराने तरह के ईंधन (कोयला, तेल आदि) और अणु-ईंधन में पृथ्वी-आकाश का अंतर है। जैसे तीस−चालीस वर्ष पहले किसी भी राष्ट्र के छोटे-बड़े होने की कसौटी जल और आकाश के जहाज माने जाते थे, उसी प्रकार आधुनिक युग में छोटे-बड़े राष्ट्रों की पहिचान ‘अणु-शक्ति’ के आधार पर होने लगी है। इसलिये चाहे साधन कम भी हों तो भी इस समय सभी समर्थ राष्ट्र अणु-शस्त्र तैयार करने में संलग्न हैं। चीन ने देखा कि वह अमरीका का विरोध तो कर रहा है, पर यदि वह अणु-शस्त्रों का प्रयोग करने लगे तो उसका मुकाबला करने की शक्ति उसमें नहीं है। यह देखकर वह अनेक प्रकार की आन्तरिक कठिनाइयाँ होते हुए भी उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राणपण से प्रयत्न करने लग गया और पिछले सात-आठ वर्षों में उसने इतनी प्रगति करली है कि अमरीका उसकी तरफ से चिन्तित रहने लगा है। यद्यपि अब भी अमरीका की अणु-शक्ति चीन की अपेक्षा सौ-गुनी होगी, तो भी अणु-शस्त्रों की नाशकारी शक्ति को देखते हुए थोड़े से ही बम किसी देश का नाश करने के लिये काफी होते हैं। यही कारण कि अब अमरीका नये अणु-बम बनाने के बजाय अपने प्रधान नगरों के चारों तरफ ऐसे संयत्र लगा रहा है, जिनसे शत्रु द्वारा किसी भी अणु-बल का निवारण किया जा सके।

जैसे-जैसे हाइड्रोजन बमों की भयंकरता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही उनकी दूरवर्ती लक्ष्य पर कम-से-कम समय में फेंकने की विधि ढूँढ़ने में लोग अधिकाधिक प्रयत्नशील हो रहे हैं। अब से कुछ वर्ष पहले तक इस कार्य के मुख्य साधन जेट विमान थे, जो 400 से 1500 मील प्रति घंटा तक चल सकते थे। यह गति आक्रमणकारियों को बहुत कम जान पड़ी। इस गति से अमरीका से रूस पहुँचने में कम-से-कम तीन घण्टा और चीन तक छः घण्टे का समय लग जायेगा। इसलिये बम ले जाने वाले ‘राकेट’ बनाये गये, जिनमें बहुत शक्तिशाली रासायनिक द्रव्य भरे गये। इनकी गति घण्टे से 15 से 25 हजार मील के लगभग है। पर इस अणु-युग में लोगों को इससे भी संतोष नहीं हुआ और अणु-शक्ति की सामग्री द्वारा राकेट को चलाने की विधि सोची गई।

अब ‘प्लाज्मा’ और ‘प्रोटोन’ (अणु-शक्ति संपन्न पदार्थों) के प्रयोग से यह गति एक घण्टे में 50 लाख मील तक बढ़ाली गई है। यह गति बिजली की गति से कुछ ही कम है। यह नहीं कहा जा सकता कि अभी यह सिद्धान्त की बात है अथवा व्यवहार में भी आ चुकी है, तो भी यह निश्चय है कि अमरीका और रूस ऐसे राकेट बना चुके हैं जो एक घण्टे से कम समय में संसार के किसी भी भाग में पहुँच सकते हैं।

दूसरे महायुद्ध में हिटलर ने एक प्रकार के बी-1 और बी-2 नामक स्थायी ‘राकेट’ बनाकर उनके द्वारा अपने देश से ही इंग्लैंड पर बम वर्षा की थी। उससे 13 हजार व्यक्ति मरे और 40 हजार घायल हुये थे। इन अस्त्रों का निर्माता ‘डा. बर्जर’ आज-कल अमरीका चला गया है। वहाँ वह अमरीका विरोधी साम्यवादी देशों को अणु-शक्ति द्वारा नष्ट करने की विधि परिपक्व करता रहता है। सन् 1961 में उसने परामर्श दिया था कि अन्तरिक्ष में उड़ने वाले यानों से सैकड़ों अणु-बम एक साथ छोड़ने की तैयारी करनी चाहिये।

ऐसे लोगों का मस्तिष्क मानव सभ्यता को मटियामेट करने के लिये कैसे-कैसे दानवी उपायों को सोच सकता है, यह देखकर आश्चर्य में डूब जाना पड़ता है। अमरीका के ही एक अस्त्र आविष्कारक की योजना है कि 50 हजार टन भार का और 5 किलोमीटर व्यास का एक ग्रह अन्तरिक्ष में पहुंचाया जाय और अन्तरिक्षयान के धक्के से उसका विस्फोट किया जाय, इससे जो विस्फोट होगा उससे 20-25 करोड़ की आबादी वाला समूचा देश कुछ क्षण में भस्म के रूप में परिवर्तित हो जायेगा।

अणु-शस्त्रों के निर्माता संसार के लिए एक ऐसा ठोस खतरा पैदा कर रहे हैं, जिससे किसी भी दिन मानव-जाति क्या पृथ्वी पर के समस्त प्राणधारियों की प्रलय हो सकती है। फिर भी वे इसे अपने बनाये कानूनों के अनुसार ‘उचित’ और ‘वैध’ बतलाते हैं। ऐसी घटना केवल भौतिकवाद के अनुयायी पूँजीवाद के अंतर्गत ही हो सकती है, जहाँ प्रत्येक पदार्थ का, यहाँ तक कि मनुष्य की जान का भी मूल्य रुपयों में आँका जाता है। पर कोई सच्ची अध्यात्मवादी धातु, पत्थर अथवा कागज के टुकड़ों को कभी अधिक महत्व न देगा। वह इन सामयिक मूल्य के जड़-पदार्थों को मानवता और आत्मोत्कर्ष की तुलना में कदापि ऊँचा स्थान नहीं होगा। अणु-शक्ति जैसी विश्वसंहारक प्रक्रिया के प्रयोग करने का अधिकार ‘महाकाल’ को हो ही सकता है। जो स्वार्थी व्यक्ति या राष्ट्र इस दैवी शक्ति को किसी जघन्य उद्देश्य के निमित्त काम में लायेगा, सबसे पहले उसी का सर्वनाश निश्चित है।

अणु-शक्ति अस्त्रों के रूप में नहीं रचनात्मक शक्ति के रूप में भी विकसित होती जाती है। इस संदर्भ में चोटी के राजनीतिज्ञों, विचारकों तथा लोक नेताओं को यह विचारने के लिये विवश होना पड़ रहा है कि इस शक्ति के दबाव में हमें पृथकतावादी विचारधारा से विरत होकर एक समाज विश्व परिवार की रचना एवं व्यवस्था करनी पड़ेगी। अणु-शक्ति को किसी राष्ट्र या वर्ग सम्पत्ति न रहने देकर उसे विश्व-परिवार के हाथों सीमित सुरक्षित करना पड़ेगा। अन्यथा इसका संहारक प्रयोग मानव सभ्यता की ही नहीं उसके अस्तित्व को भी समाप्त कर देगा।

विश्वास किया जाता है कि बुद्धिमान समझा जाने वाला मनुष्य, प्राणी आत्मघात की मूर्खता न करेगा। तब उसके लिये विश्व-परिवार का- विश्व-राष्ट्र का- विश्व-धर्म का- विश्व-संस्कृति का निर्माण करना ही एक मात्र विश्व-शान्ति का मार्ग दिखाई देगा।

यदि विश्व एकता की दिशा में अणु-शक्ति मानव-जाति को कुछ ठोस प्रेरणा दे सकी तो उसे अभिशाप के स्थान पर वरदान भी माना जाने लगेगा।


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