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October 1968

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अखण्ड-ज्योति के कलेवर, स्तर एवं मूल्य में वृद्धि

अखंड-ज्योति में इस अंक से कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन आरम्भ हो रहे हैं। एक परिवर्तन है उसके विषयों संबंधी। दूसरा है उसके कलेवर संबंधी। तीसरा है उसके मूल्य संबंधी। इन तीनों बातों पर नीचे की पंक्तियों में प्रकाश डाला जा सकता है ताकि इन परिवर्तनों के भावी प्रभावों, प्रतिक्रियाओं की अधिक स्पष्ट वस्तुस्थिति जानी जा सके।

‘वैज्ञानिक अध्यात्म’ के प्रतिपादन की आवश्यकता पर पिछले तीन अंकों से चर्चा की जा रही है। यह इस युग की सबसे बड़ी माँग एवं आवश्यकता है। विज्ञान एक सचाई है। उसने मानव-जीवन की स्थिति एवं दिशा को पिछले दो-सौ वर्षों के अन्दर इतना अधिक प्रभावित एवं परिवर्तित किया है कि आश्चर्य से दांतों तले उँगली दबानी पड़ती है। पाँच सौ वर्ष पूर्व का मनुष्य यदि आज की दुनिया में जीवित होकर आ जाय और उन दिनों की परिस्थितियों से आज की तुलना करे तो उसे लगो कि यह धरती नहीं कोई अन्य लोक है। जिनने रेल, मोटर, जलयान, वायुयान, टेंक, ट्रैक्टर, डाक-मोटर, मशीन, बिजली, तार, रेडियो, टेलीविजन, एक्सरे, प्रेस, मिल-कारखाने, अणुशक्ति, राकेट आदि आविष्कारों और उनके प्रभावों को पहले कभी देखा न हो, वह निश्चय ही भूतकाल की तुलना में इस युग को जादूगरों की दुनिया ही कहेंगे। इन वैज्ञानिक उपलब्धियों ने मनुष्य के रहन-सहन, आहार-विहार, क्रिया-कलाप, रुचि, आकाँक्षा को ही नहीं विचार-पद्धति को भी प्रभावित किया है। पुरानी अगणित मान्यताओं को विज्ञान ने चुनौती दी है और उन्हें झुठलाया है। पृथ्वी स्थिर है, सूर्य चलता है, इस ज्योतिर्विदों की प्राचीन मान्यता पर अब कौन विश्वास करेगा? नवग्रहों में से विज्ञान ने चन्द्रमा को पृथ्वी का उपग्रह ठहराकर बहिष्कृत कर दिया है और हर्षिल, प्लेटो, आदि नये खोजे गये ग्रहों को और परिवार में सम्मिलित कर लिया है। शरीर विज्ञान और रोग विज्ञान के संबंध में चरक के प्राचीन प्रतिपादन अब यथावत् स्वीकार नहीं किये जा रहे।

यही बात दर्शन एवं तत्त्व-ज्ञान के क्षेत्र में भी हुई है। विज्ञान ने पदार्थ एवं जीवन का जो स्वरूप प्रतिपादित किया है, उसमें ईश्वर, आत्मा, धर्म एवं सदाचरण के लिये कोई स्थान नहीं। दर्शन के नये मूल्य स्थापित हो रहे हैं। श्रद्धा का स्थान तर्क को मिलता चला जा रहा है। वेद, कुरान, बाइबिल आदि धर्म ग्रन्थों में जो लिखा है, उसे अब प्राचीन काल जैसी श्रद्धा से स्वीकार नहीं किया जाता। इसी प्रकार ऋषियों, अवतारों, देवदूतों के कथनों, को आप्त वचनों को भी बिना ननुनच के स्वीकार नहीं किया जाता। विज्ञान ने मानवीय बुद्धि को प्रभावित किया है और उस आधार पर वह, केवल श्रद्धा के आधार पर, किन्हीं पूर्व प्रतिपादनों अथवा कथनों को प्रामाणिक मानने के लिये तैयार नहीं। अब विचार विज्ञान का आधार श्रद्धा न रहकर तर्क, प्रमाण, उदाहरण एवं प्रत्यक्षवाद बनता चला जा रहा है। इन नई कसौटियों पर कसने से उन्हें धर्म एवं अध्यात्म प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता, अब यह नई पीढ़ी उनकी उपयोगिता एवं यथार्थता स्वीकार करने से इनकार करती चली जा रही है। अनास्था एवं नास्तिकता इन दिनों तेजी से बढ़ रही है। दुनिया की तीन अरब आबादी में अब आधे से अधिक कम्युनिज्म एवं भौतिकवादी प्रतिपादनों से प्रभावित लोग हैं। शिक्षित वर्ग का रुझान उसी ओर है। विज्ञान ने मानवीय बुद्धि को जो दिशा दी है, उससे यह परिवर्तन होना स्वाभाविक भी था।

विज्ञान ने विभिन्न क्षेत्रों में जो परिवर्तन प्रस्तुत किये हैं उनमें से सभी उपयोगी प्रतीत होने वाले तत्त्वों को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाना चाहिये। पुरानेपन को ही सर्वत्र बनाये रहने से किसी को कोई आग्रह नहीं होना चाहिये। अब पुस्तकें प्रेस की छपी लेकर हाथ की लिखी पोथियों का उपयोग करने के लिये किसी को हठ नहीं करना चाहिये। पर धर्म और अध्यात्म के संबंध में जिन मान्यताओं का प्रतिपादन विज्ञान के नाम पर किया जा रहा है, वे गम्भीरतापूर्वक विचार करने से बहुत ही भयावह सिद्ध होती हैं, अतएव उन्हें ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। उन प्रतिपादनों की प्रतिक्रियाओं पर हमें गम्भीरतापूर्वक उन प्रतिपादनों की प्रतिक्रियाओं पर हमें गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा।

पशु प्रवृत्ति में चोरी, व्यभिचार, छल, आक्रमण, हिंसा, निकृष्ट-स्वार्थ, निष्ठुरता, प्रतिशोध आदि उन आचरणों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, जो मानव समाज की प्रगति को एक पग भी आगे नहीं बढ़ने दे सकती। विज्ञान ने पशु, मनुष्य और वनस्पति को एक ही वर्गमूल की चेतना कहा है। फलतः उनकी स्वाभाविक प्रकृति, दिशा, इच्छा एवं क्रिया एक ही जैसी मानी जायगी। प्रकृति अन्तःप्रेरणा को ही जब प्राणियों का धर्म अथवा औचित्य मान लिया गया- उसी के अनुसरण में स्वाभाविकता स्वीकार करली गई- तो मनुष्य के लिये भी वे प्रवृत्तियाँ सबके लिये स्वीकार्य, सहज, स्वाभाविक हो जाती हैं। भौतिकवादी दर्शन हमें इसी आधार पर सोचने और करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

बोलने, चलने, सोचने की दृष्टि से मनुष्य पशु से भिन्न भले ही हो पर उसके भीतर पशु-संस्कारों और पाशविक प्रवृत्तियों की कमी नहीं। अनैतिकता और दृष्टता के लिये उसका मन हमेशा ललचाता रहता है। जब भी अवसर मिलता है, वह ऐसे आचरण करने लगता है, जो मानव-समाज की श्रेष्ठता, स्वस्थता एवं स्थिरता को भारी आघात पहुँचाते हैं। कानून, पुलिस एवं राज-दण्ड के द्वारा इन पशु प्रवृत्तियों पर नियंत्रण होता तो है पर मनुष्य की धूर्तता बहुत बड़ी-चढ़ी होने के कारण वह इस चंगुल से अधिकतर बच ही निकलता है। अपराध करने वालों में से एक प्रतिशत को भी ऐसा दण्ड नहीं मिल पाता, जो उसे अपनी जन्म-जन्मांतरों की अभ्यस्त दुष्प्रवृत्ति छोड़ने के लिये विवश करे। अपराधी मनोवृत्ति के लिए इन प्रजातन्त्री कानूनों का अस्तित्व एक मनोरंजक खिलवाड़ जितना ही है।

इतने पर भी जब फ्रायडवाद का मनोविज्ञान यह प्रतिपादित करता है कि ‘हर इच्छा को पूरा करना चाहिए, उसे रोकना या छिपाना नहीं चाहिए, तब तो व्यक्ति उन दुष्प्रवृत्तियों को चरितार्थ करना आवश्यक भी मानता है।’ ऐसी दशा में धर्म एवं अध्यात्म का दर्शन ही एक मात्र वह आधार रह जाता है, जो अन्तःप्रेरणा के उच्च-स्तर को जागृत कर उसे संयमी सदाचारी, कर्त्तव्य-निष्ठ, अनुशासित, मर्यादित, उदार एवं परोपकारी बनने के लिये भी प्रेरित करता है।

धर्म, अध्यात्म, ईश्वर, परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल की मान्यतायें एवं श्रद्धायें ही एक मात्र व अवलंबन हैं, जिन पर व्यक्ति एवं समाज की उत्कृष्टता स्थिर रह सकती है। विज्ञान से प्रभावित बदली हुई विचार-पद्धति इस आत्मदर्शन को चुनौती देती हुई उसकी जड़ खोखली करती चली जा रही है। प्रगति जिस ढंग से हो रही है, उसे देखते हुये लगता है कि आगामी पचास वर्षों में भौतिकवादी मान्यताओं का एकछत्र राज्य होगा। उस दशा में मानवीय मूल्यों का- आदर्शों का- क्या होगा? यह चिन्ता का विषय है। यदि मनुष्य अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता खो बैठा तो वह हिंस्र पशुओं से भी दुष्टता में आगे बढ़ जायेगा। और उसी विकसित बुद्धि पैशाचिक कुत्साओं का ताण्डवनृत्य प्रस्तुत करके मानव- अस्तित्व एवं सभ्यता को सामूहिक आत्म-हत्या के लिए विवश करेगी। मनुष्य की श्रेष्ठता आत्मवादी दर्शन पर अवलंबित है। यदि वह आधार नष्ट होता है तो व्यक्ति एवं समाज जिस पतित-स्तर पर जा पहुँचेगा, उसकी कल्पना मात्र से अन्तरात्मा सिहर उठती है। अनात्मवादी व्यक्ति कर्मफल न मिलने की ओर से जब निश्चित हो गया तो वह कुछ भी कर गुजर सकता है। उसकी दुष्टता समस्त मर्यादाओं का उल्लंघन करती हुई किसी भी स्तर तक पहुँच सकती है। पहुँच भी रही है। बढ़ती हुई माँसाहार की प्रवृत्ति, औषधियों में जीव-तत्वों का बाहुल्य, पशुओं के प्रति मनुष्य का दुर्व्यवहार अति राजसी हो उठा है। अगले दिनों वही व्यवहार अपने से दुर्बल मानव प्राणियों के प्रति न करेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। जब दूसरों के कष्टों की उपेक्षा कर अपना सुख बढ़ाना सिद्धान्त रूप से उचित स्वीकार कर लिया गया तो एक कदम आगे बढ़कर वह प्रयोग अपने से दुर्बल मनुष्यों पर क्यों न किया जायेगा?

इन विभीषिकाओं का हमें सामना करना चाहिये। इस दिशा में सबसे आवश्यक कदम यह है कि बुद्धिवाद के जिस स्तर को इन बदली हुई परिस्थितियों में मान्यता मिली है, उसी स्तर पर खड़ा होकर हमें धर्म एवं अध्यात्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना चाहिये। शास्त्र, अवतार, ऋषि यदि अप्रामाणिक कहे जाते हैं और तर्क, प्रमाण, उदाहरण एवं प्रत्यक्ष को सही माना जाना है तो अब इन नये आधारों पर भी हमें आस्तिकता का प्रतिपादन करने के लिये तैयार होना चाहिये। यदि ऐसा सफलतापूर्वक किया जा सकता हो तो हम विज्ञान प्रभावित दर्शन की अनास्थावान् चुनौती को स्वीकार कर सकते हैं और नई पीढ़ी की डगमगाती हुई अध्यात्म श्रद्धा को पुनः सुदृढ़ बना सकने में समर्थ हो सकते हैं। यह कार्य पानी की बाढ़ से सुरक्षा के लिये मजबूत बाँध बनाने की तरह ही उपयोगी एवं आवश्यक है।

कार्य अति कठिन, अति श्रम-साध्य एवं अति व्यापक है। पर इस स्तर के कार्य भी आखिर मनुष्य ही करते हैं। हमें इसे हाथ में लेना ही चाहिये, क्योंकि यह प्रतिपादन अपने बस की बात है, अपने बूते से बाहर की नहीं। अध्यात्म-तत्त्व-ज्ञान को तर्क, प्रमाण, उदाहरण एवं प्रत्यक्ष के आधुनिक मान्यता प्राप्त आधारों पर भी प्रतिपादित किया जा सकता है। और आँधी-तूफान की तरह उमड़ती हुई अनास्था को सफलतापूर्वक रोका जा सकता है। युग की यही माँग है। मानवीय आत्मा की यही पुकार है। इसे पूरा करने के लिये हमें आगे बढ़ना ही चाहिये था सो बढ़ भी रहे हैं।

पिछले तीस वर्ष हमने आध्यात्मिक मान्यताओं को श्रद्धापरक प्राचीन आधार पर प्रतिपादन में लगाये हैं, अब अगले तीन वर्ष महान तत्त्व-ज्ञान को युग की माँग के अनुरूप तर्क, प्रमाण, उदाहरण, विज्ञान एवं प्रत्यक्ष को आधार मानकर प्रतिपादन करेंगे।

‘अखण्ड-ज्योति’ का प्रस्तुत परिवर्तन इसी दिशा में आरम्भ किये गये, प्रयास का एक महत्वपूर्ण कदम है। इस अंक में लगभग आधे लेख ऐसे हैं, जो नवीन आधार पर अध्यात्म तत्त्व-ज्ञान को समझने की दिशा में प्रकाश देंगे। आगे के अंकों में इस दिशा में चिन्तन, मनन, शोध, अध्ययन का बहुत प्रयत्न किया जाना है और उन उपलब्धियों के फलस्वरूप अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों पर वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के प्रतिपादन की अधिक स्पष्ट और अधिक उपयोगी झाँकी भी मिलने लगेगी। प्रयत्न यह किया जायेगा कि पाश्चात्य वैज्ञानिकों, अन्वेषकों, तार्किकों, अनुसंधानकर्ताओं, प्रत्यक्षदर्शियों एवं अनुभवकर्ताओं के अनुभव एवं प्रतिपादनों को प्रधानता देते हुए, यह सिद्ध किया जाय कि इनकी क्रमिक प्रगति भी तत्त्व-ज्ञान, धर्म एवं अध्यात्म की ओर किस प्रकार बढ़ रही हैं। नास्तिकता का बुखार अब किस प्रकार घटते हुए स्वाभाविक तापमान पर पहुँच रहा है।

विश्वास किया जाना चाहिये कि यह प्रतिपादन मानव समाज की तर्क बुद्धि को एक नया प्रकाश प्रदान करेगा, उसे अपनी इस धारणा पर पुनर्विचार करने के लिये विवश करेगा कि सृष्टि के आदि से चली आ रही आदर्शवादी उत्कृष्टता से ओत-प्रोत आध्यात्मिक एवं धार्मिक मान्यतायें न तो काल्पनिक हैं और न भ्रान्त। उनके पीछे ठोस आधार हैं। वे उतने ही सत्य हैं, जितना कि स्वयं विज्ञान एवं उससे प्रभावित बुद्धिवाद। अनास्थावान विचार-धारा को गाली देने अथवा उसे कोसने से कुछ काम चलने वाला नहीं। काम बुद्धि का उत्तर बुद्धि से और प्रमाण का उत्तर प्रमाण से देने पर चलेगा। हमें पूर्ण शाँत-चित्त से इसी आधार पर काम करना है।

अखण्ड-ज्योति में अब तक जिस स्तर के लेख निकलते रहे हैं, उनके अभ्यस्त पाठकों को नया विषय बदलते देख-कर कुछ अटपटा अवश्य लगेगा। पर मजबूरी में और कोई रास्ता नहीं। नई पीढ़ी को स्थिति के अनुरूप विचार देने के लिये हमारे पास और कोई साधन नहीं। इसलिये थोड़े पूर्व शैली के भावनात्मक और थोड़े नई शैली के अध्यात्म विज्ञान सम्मत लेख देना आरम्भ कर रहे हैं। इसका आरम्भ इस अंक से हुआ है।

अध्यात्मवाद को पुरानी भावनात्मक और नई विज्ञान सम्मत शैली से प्रतिपादन करने के लिये निश्चित रूप से पृष्ठ संख्या अधिक चाहिये। विषय बहुत व्यापक है, उसे थोड़े में, संक्षेप में प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। पत्रिका के पृष्ठ बढ़ाये जाने आवश्यक थे, सो इस अंक से बढ़ा भी दिये गये हैं। अब तक 40 पृष्ठ रहा करते थे। इस अंक में 64 पृष्ठ हैं। उतने पृष्ठ तो कम-से-कम बढ़ने ही चाहिये थे, सो उतने बढ़ा भी दिये गये हैं। अब भविष्य में उतने ही पृष्ठ रहा करेंगे।

कवर पृष्ठ पहले की अपेक्षा दूने मोटे कागज पर कर दिया गया है। दुरंगे की अपेक्षा उसे तिरंगा बनाया है।

इस परिवर्तन में पत्रिका की लागत बहुत अधिक बढ़ेगी। पिछले चार मास पूर्व ही सरकार ने अखबारों पर ढाई गुना पोस्टेज बढ़ाया है। इतना टैक्स इतिहास में किसी व्यवसाय पर एक साथ नहीं बढ़ा। दो पैसे के स्थान पर अब पाँच पैसे का टिकट लगाना पड़ता है। हर ग्राहक पीछे 15 पैसा हर वर्ष घाटा बना रहने के स्थान पर अब वह घाटा 51 पैसा हो गया। इसी वर्ष का कागज के दामों में भारी उथल-पुथल हुई है। उस महंगाई से भी कई सौ रुपये मासिक का घाटा बढ़ा दिया है। इतना सब तो पिछले तीन-चार महीनों से चल ही रहा था अब पृष्ठ संख्या आगे से भी अधिक- कवर पेज दूने वजन से भी अधिक- पैकिंग पेपर ढाई गुने से भी अधिक- बढ़ा देने से पुरानी और नई बढ़ी हुई लागत मिलाकर दूने के करीब जा पहुँचती है।

इस दृष्टि से पत्रिका का मूल्य दूना बढ़ाया जाना चाहिये था। पर पाठकों की सुविधा का ध्यान रखते हुए मूल्य वृद्धि केवल ड्योढ़ी की गई है। अब अखण्ड-ज्योति का चन्दा 4) के स्थान पर 6) वार्षिक करना पड़ रहा है। अपना बस चलता तो पृष्ठ बढ़ाने पर भी मूल्य न बढ़ाते, पर और कोई मार्ग शेष न रहने पर सब करने के लिये विवश ही होना पड़ा है।

हम जानते हैं कि इन दिनों महंगाई आकाश को छू रही है। जीवन निर्वाह जितनी अर्थव्यवस्था जुटा सकना भी सर्वसाधारण के लिये अति कठिन हो रहा है। ऐसी दशा में 2) अधिक देना अखरना ही चाहिये। इतने पर भी हमें विश्वास है, कि जो सद्-ज्ञान का मूल्य, महत्व एवं उपयोग समझते हैं, वे आत्मा की भूख बुझाने के लिये पेट को थोड़ा भूखा रख कर भी यह बढ़ा हुआ भार प्रसन्नतापूर्वक बहन कर लेंगे। अनेक वस्तुओं के दाम बढ़े हैं, लोगों ने उन्हें आवश्यक वस्तुयें माना है और उस बढ़े खर्चों को सहन किया है। फिर अखण्ड-ज्योति का भाव तो बढ़ा नहीं केवल वजन और आवरण की बढ़ोत्तरी मात्र बढ़ी है। एक सेर दूध के स्थान पर पौने दो सेर दूध के दाम ड्योढ़े देने पड़ें और उसमें मलाई भी अधिक मोटी पड़ी हो तो ड्योढ़े पैसे देने में किसी को यह शिकायत नहीं हो सकती कि कीमत बढ़ी या महंगाई बढ़ी है। अधिक मात्रा में अधिक उपयोगी वस्तुओं का मूल्य कुछ अधिक देना पड़ता है तो उसे भाव-वृद्धि की महंगाई नहीं कहा जायेगा।

जो हो अब अखण्ड-ज्योति का मूल्य बढ़ाया ही जा रहा है, उसे प्रसन्नतापूर्वक वहन करना ही है। उदार परिजन इसे बिना अनखनाये स्वीकार कर लेंगे, क्योंकि युग की एक महान् आवश्यकता की पूर्ति के लिये बड़े कदम उठाने का प्रयत्न किया जा रहा है, उसमें हममें से प्रत्येक का योगदान रहना ही चाहिये। थोड़ा-थोड़ा अतिरिक्त बोझ हरएक को वहन करना चाहिये।

हर प्रबुद्ध परिजन को यह ध्यान रखना है कि 2) मूल्य बढ़ा देने पर भी पत्रिका में पिछले वर्षों की अपेक्षा घाटा अधिक बढ़ेगा। इसके समाधान का केवल एक ही उपाय है कि सदस्य संख्या घटने न पावे। हो सके तो उसे बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय। मूल्य बढ़ने से ग्राहक टूटने की आशंका है। उस आशंका को निर्मूल बनाने के लिये इन दो-तीन महीनों में आवश्यक तैयारी हममें से हरएक को कर लेनी चाहिये। पुराने ग्राहक टूटने न पावें और नये ग्राहक बढ़ाने का प्रयत्न तीव्र किया जाय, इन दो बातों का ध्यान रखा जा सके तो परिजन अपनी प्रिय पत्रिका को एक महान् लक्ष्य की ओर तीव्र गति एवं संतोषजनक परिणाम के साथ आगे बढ़ता पावेंगे।

इसी प्रकार युग-निर्माण-योजना का स्वरूप भी आगे से अधिक- अखण्ड-ज्योति की तरह ही बढ़ाया जा रहा है। अखण्ड-ज्योति तालाब और युग-निर्माण उसका कमल है। एक को कृष्ण, एक को अर्जुन कहते हैं। दोनों का साथ-साथ चलना, साथ-साथ आगे बढ़ना स्वाभाविक है। उसके पृग अब युग-निर्माण आन्दोलन को तीव्र करने में, रचनात्मक प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन करने में लगेंगे।

दोनों पत्रिकाओं का मूल्य 6 + 6 + = 12) हो जाने से 1) रु. मासिक बनता है। हर परिजन को 1) मासिक की बचत अपने आवश्यक कार्यों में भी कमी करके करनी चाहिये और इन पत्रिकाओं का प्रकाश अपने लिये- अपने परिवार के लिये- अपने स्वजनों, संबंधियों, के लिये उपलब्ध करना चाहिये।

अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों का स्तर मामूली अखबारों को मनोरंजन के लिये पढ़ते रहने वाले बाजारू पाठकों जैसा नहीं है। ये गन्दी तस्वीरों तथा भौंड़ी मन बहलाने वाली उन सस्ती पत्रिकाओं को खरीदने वालों से भिन्न हैं, जो अनैतिक विज्ञापनों से भरे पृष्ठों को भी कलेवर में जोड़ देते हैं और मोटी पत्रिका सस्ते मूल्य में खरीदने की अपनी बुद्धिमानी पर प्रसन्न होते हैं। अखण्ड-ज्योति का स्तर सर्वथा भिन्न है। वह उत्कृष्ट स्तर की ऐसी पाठ्य सामग्री जुटाती है, जो पाठक के जीवन को सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों से भर कर उसे सुखी समुन्नत जीने की सम्भावनायें प्रशस्त करे।

इसलिये उसमें ओछे लोगों की रुचि के अनुरूप कलेवर चित्र तथा ओछा मैटर नहीं भरा जाता। यदि अन्य मासिक पत्रों जैसी रीति-नीति अपनाई गई होती तो औरों की तरह अखण्ड-ज्योति भी मोटी प्रकाश रूपा रही होती। पर अपना तो लक्ष्य एवं दृष्टिकोण ही सर्वथा भिन्न है। हम एक मिशन लेकर चल रहे हैं। और उसके लिये गत 30 वर्षों से भारी आर्थिक तथा दूसरी तरह की कुर्बानी करते चले आ रहे हैं।

हमारे पाठक परिजन भी इसी स्तर के हैं। वे अपने को एक ऐसे महान् मिशन के अंग-प्रत्यंग अनुभव करते हैं जिसने व्यक्ति एवं समाज के नये निर्माण का व्रत ही धारण नहीं किया है वरन् उसे पूरा करने का दुस्साहस पूर्ण कदम भी उठाया है, इतना ही नहीं, बढ़ते हुए कदमों ने इतनी मंजिल पार करली है कि अब युग-निर्माण की बात हवाई कल्पना नहीं एक सुनिश्चित सचाई समझी जाने लगी है।

अखण्ड-ज्योति और उसके परिजनों द्वारा किये हुए संयुक्त प्रयास आश्चर्यजनक प्रगति कर चुके हैं। उस सफलता का श्रेय परिजनों को है, जिन्होंने निर्धारित कार्यक्रमों और निर्देशों को सदा पूरी सचाई और तत्परता के साथ पूरा करने के लिये भरसक प्रयास किया है। परिजनों की इसी मनोभूमि को देखते हुए हमें पूरा और पक्का विश्वास है कि अब जबकि विशेष परिस्थितियों में पत्रिका का कलेवर-स्तर तथा मूल्य बढ़ाया जा रहा है, वे उस परिवर्तन के कारण पड़ने वाले थोड़े से दबाव को भी प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लेंगे और अपनी सदस्यता सदा की भाँति यथावत् बनाये रहेंगे। केवल 2) रु. वार्षिक अतिरिक्त आर्थिक भार बढ़ जाने के कारण कोई अपनी सदस्यता तोड़ने की बात सोचेगा, ऐसे अपने परिवार में किसी के भी होने की सम्भावना हम सोच भी नहीं सकते।


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