जीवन से भागो नहीं समझदारी से जियो

October 1968

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हमारे सामने विस्तृत संसार फैला है। उसमें फूल हैं, काँटे भी हैं। पहाड़ हैं, गहरे समुद्र भी। मैदान हैं और ऊबड़-खाबड़ घाटियाँ भी। विविधतापूर्ण संसार में हर वस्तु का विरोधी भाव विद्यमान् है। गुण हैं तो दुर्गुण भी, अच्छाइयाँ हैं तो बुराइयाँ भी हैं, उनके बिना भलाई की कल्पना की ही नहीं जा सकती थी।

माना बुराइयाँ अधिक हैं पर क्या उनसे भागकर संसार की शेष बहुत-सी शानदार, संतोषप्रद और श्रेयष्कर परिस्थितियों से मुँह मोड़ लेना चाहिये? मनुष्य जीवन जैसी पुरुषार्थी विभूति को कलंकित करना चाहिये?

सन्त कन्फ्यूशस बड़े सवेरे एकबार पद-यात्रा कर रहे थे। यात्रा करते-करते वे निर्जन स्थान में पहुँचे जहाँ एक दूसरे महात्मा पेड़ की छाया में लेटे विश्राम कर रहे थे। कन्फ्यूशस ने पूछा- ‘महात्मन्! हरी भरी बस्ती को छोड़कर आप यहाँ निर्जन एकान्त में क्यों पड़े हैं?’

संन्यासी ने उत्तर दिया- भद्र, इस राज्य का राजा बड़ा दुष्ट है, वह स्वयं तो अकर्मण्य और अत्याचारी है ही उसके राज्य में बहुत से लोग स्वेच्छाचारी, अनुशासन विहीन, कुटिल कलह करने वाले, अत्याचारी और बुरे हो गये हैं। ऐसी स्थिति में मेरी तरह हर शाँति-प्रेमी, सद्गुणों और आत्मा की शाँति पर विश्वास रखने वाले के लिये समाज में रहना मुश्किल हो गया है। आप भी क्यों नहीं यहीं आकर शाँत और एकान्त प्रकृति का आनन्द लूटते। अत्याचारों के कारण पैदा हुई निराशा से बचने का क्या यह सर्वोत्तम उपाय नहीं?

कन्फ्यूशस मुस्कराये और कहने लगे- ‘‘क्या आपका मतलब यह है कि थोड़े से बुरे आदमियों के कारण अच्छाइयों की रक्षा करना मनुष्य का कर्त्तव्य नहीं है? थोड़े व्यक्तियों के कर्तव्य च्युत हो जाने से क्या भावनाशील व्यक्तियों को भी अपने कर्त्तव्य से मुँह मोड़ लेना चाहिये? यदि बुराई आगे बढ़ने से हार नहीं मान सकती तो क्या भलाई की शक्ति को प्रयत्न किये बिना ही आत्म-घात कर लेना चाहिये?”

संन्यासी ने कहा- ‘‘सो तो ठीक है, मगर इतने झंझटों की अपेक्षा बुराई से स्वयं हट जाना बेहतर है। हम यहाँ उसी का रसास्वादन कर रहे हैं।’’

कन्फ्यूशस ने कहा- ‘‘भगवन्! आप भूल रहे हैं कि झंझटों से भरा जीवन का आधार है। यहाँ रहकर भी आप समाज की कमाई पर जीवित हैं, उसी की कृपा से पल रहे हैं। आप भूल रहे हैं कि जिन्हें आप झंझट, कष्ट और कठिनाइयां मान रहे हैं, वह तो नावें हैं, असम्भव को पार करने में सहायता देती हैं। रही बात बुराइयों की। हम उनसे भागें क्यों? खुद बुराई ही क्यों न भागें? हमारे भागने का मतलब तो यह है कि सद्गुण और सज्जन, दुर्गुण और दुर्जनों से दुर्बल हैं। सत्य, असत्य की अपेक्षा निर्बल है, जीवन ने नहीं मृत्यु ने जीवन पर अधिकार किया हुआ है।”

महात्मा जी हार मानने वाले न थे- अपनी बात को पुष्ट करते हुये कहने लगे- ‘‘हम यहाँ सद्गुणों की ही रक्षा तो कर रहे हैं- बुराइयों की ओर आँख न कर, क्या मैं भलाई को जिसके ग्रास से नहीं बचा रहा?”

‘असम्भव महात्मा जी!’ -कन्फ्यूशस ने पुकारा -‘‘हर वस्तु एकान्त में नष्ट होती है और समूह में बहुगुणित होती है। सद्गुणों के बारे में भी ठीक यही बात है, यदि आप समाज में रहकर अपने सद्गुणों का प्रकाश करते और उनमें अपनी निष्ठा व्यक्त करते तो उसका प्रतिफल भी देखने को अवश्य मिलता। लोग तो बुद्धिमानों की निष्ठा का अनुकरण करते हैं, आपमें वह प्रकाश स्पष्ट हुआ होता तो निश्चय ही बुराई की मात्रा घटती और अच्छाई का विकास होता।”

आज की स्थिति भी ठीक ऐसी ही है। यदि लोग जंगलों की ओर नहीं भाग रहे तो भी बुराइयों से उसी तरह दुबक रहे हैं, जैसे कोई माया-मोह से डरकर जंगल में भागा जाय। आज वस्तुतः डरने और छिपने का समय नहीं- सद्गुणों के प्रकाश और विकास की बेला आई है, यह समझने-सोचने का अवसर सच्चे अर्थों में आज ही सामने आया है कि दुःखों, झंझटों और बुराइयों का कारण क्या है, सुख-संतोष और भलाई को सम्मानित और सुपूजित किस तरह किया जा सकता है?

बुराइयों का कारण है इच्छाओं का विद्रूप। नासमझदारी की इच्छा जहाँ भी पैदा होगी वहीं बुराई पैदा होगी। इसलिये संसार में सुव्यवस्था और सद्गुणों को बनाये रखने के लिये समझदारी का जीवन जीना आवश्यक है। इच्छाओं की विकृति निराशा और अत्याचार के रूप में किसी काम का नहीं रहता। मस्तिष्क लंगड़ा हो जाता है। जीवन में सिवाय चिन्ता, क्षोभ और उद्विग्नता के कुछ भी नहीं रहता। व्यक्ति का हृदय दग्ध हो जाता है, उसमें हीनता की भावना उत्पन्न हो जाती है। आत्म-विश्वास कुण्ठित हो जाता है। कायरता आ जाती है। वही व्यक्ति चारों तरफ से अपने वातावरण को विषैला बना लेता है। वह समझता है कि जीवित रहना निष्प्रयोजन है। संसार से भागने की समस्या निराश-जनों को ही मापती है। कर्त्तव्य क्षेत्र से ऐसे ही व्यक्ति दुम दबाकर भागते हैं। यह बात सद्गुणी व्यक्ति में निराशा और दुर्गुणी में अत्याचार के कारण बनती है, दोनों ही स्थितियों में अपनी सुख-शाँति और समाज की व्यवस्था का एक ही मार्ग रह जाता है और वह यही है कि संसार में समझदारी से जिया जाय। करने से पहले उसके दूरवर्ती परिणाम पर विचार कर लिया जाय।

शोधा हुआ विष उपयोगी हो जाता है, फिर शोधी हुई जिन्दगी के आनन्द का कहना ही क्या? सुख का एक द्वार बन्द हो जाने पर दूसरा खोला जा सकता है। बन्द दरवाजे की ओर ही दृष्टि किये निराश अवस्था में क्यों पड़ा रहा जाय। जीतने के लिये बाधायें न होतीं, पार करने के लिये सीमाएं और रास्ते न होते तो मनुष्य जीवन में क्रियाशीलता का आनन्द ही क्या रह जाता? मील के पत्थर की तरह एक ही स्थिति में गढ़े रहने में भी कहीं मनुष्य जीवन की शोभा है। उसकी शान खराब हुये को निरन्तर सुधारने, अस्वच्छ हुये को बराबर स्वच्छ और सुथरा बनाने, टूटे को जोड़ने और बुरे को भलाई में परिवर्तित करने में है। यही एक विशेषता तो मनुष्य को भगवान की श्रेणी में पहुँचाती है। उसका निरन्तर अभ्यास कर सामाजिक जीवन में ईश्वरीय शक्ति के विकास का क्रम क्यों न हम निरन्तर चलते रहने दें।

एक स्त्री एकान्त में शीशे में अपना मुँह देखती है, उसमें जो बुराई दिखाई देती है, उसके कारण न वह शीश तोड़ती है और न मुँह को ही खरोंच डालती है। वह बड़े यत्न से उस खराबी को साफ करती है और फिर दूसरे साधनों से अपने मुख को सुन्दर और आकर्षक बनाती है। हमारे समाज की स्थिति भी ऐसी ही है। आवश्यकता पैदा और बढ़ी हुई बुराई से खीझने ओर असन्तुष्ट होने की नहीं इस बात की चतुराई बरतने की है कि हम उस बुराई को किस तरह साफ कर लेते हैं और समाज में उज्ज्वल चरित्र की, नैतिकता और सत्यता की प्रतिष्ठा कर लेते हैं।

प्रत्येक देश और जाति का अपना निहितार्थ होता है। अपनी समस्यायें होती हैं। हर समाज में उसे तरह कुछ बुराइयाँ होती हैं अड़चने और बाधायें होती हैं। उस अर्थ को पूर्ण करना पड़ता है, निरन्तर प्रयास द्वारा। प्रयास से ही देश के चरित्र की सृष्टि होती है। रचनात्मक शक्तियों को बल मिलता है। कठिन बाधाओं और बुराइयों को दूर करने का पथ ही स्वास्थ्य और संपदा का पथ है। मनुष्य दुर्गम को सुगम और बुरे को भला बनाने आया है। उसके समाधान में ही देश और समाज का हित सन्निहित है। जिन्होंने समाधान करने में भूल की उनका विनाश हुआ और जिन्होंने उन समस्याओं से मुँह मोड़ा उनकी दुर्गति हुई।

जब तक जीवन है, शरीर में प्राण है, साँस चलती है, बाधाओं और बुराइयों से संघर्ष करने में ही सच्ची जीवन क्रिया है। जहाँ, जिस समाज में यह उत्कंठा, यह प्रयास और बुराई से भलाई की ओर अग्रसर होने की अभिभावना रहती है, वहीं विश्व के सिरमौर सिद्ध होते हैं। औरों के लिये प्रकाश बनते हैं, उनकी सन्तुष्टि तो अपने इसी प्रयत्न में ही हो जाती है।


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