गायत्री शक्ति-तत्व विवेचन :-

October 1968

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गायत्री उपासना सनातन और सर्वोपरि

देवी भागवत पुराण में एक बड़े महत्त्वपूर्ण उपाख्यान का उल्लेख है, जिसमें गायत्री उपासना की महत्ता को सर्वोपरि बताया है। इस उपाख्यान में इस शंका का समाधान किया गया है कि गायत्री के रहते अन्य देवताओं अथवा मन्त्रों का महत्व क्यों दिया जाता है? उपाख्यान में अनादि मन्त्र गायत्री को ही बताया गया है और उसे सर्वोपरि प्रतिपादित किया गया है।

अन्य देवताओं अथवा देव-मन्त्रों की भले ही उपासना की जाय पर ध्यान यही रहना चाहिये कि भारतीय धर्मानुयायियों का प्रधान उपास्य गायत्री ही है।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह तीन देवता प्रधान माने गये हैं। मन्त्र भी प्रायः इन्हीं के हैं। अन्य देवता-देवियाँ इन्हीं के पुत्र, परिजन और देवियाँ इन्हीं की पत्नियाँ हैं। उन्होंने समय-समय पर अनेक रूप- अनेक प्रयोजनों के लिये धारण किये हैं। इसलिये वे सभी इन तीन देवों के अंतर्गत आ जाते हैं। इन प्रधान तीनों देवों का उपासना तत्त्व गायत्री ही रहा है। वे सभी इस महाशक्ति की आराधना करके अपनी शक्ति और महिमा की अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ रहे हैं। इसलिये सर्व-साधारण के लिये भी यही उचित है कि भले ही अन्य देवी-देवता की वे उपासना करते हों, पर गायत्री महामन्त्र की उपेक्षा न करें। प्रधानता गायत्री को दें। अनिवार्य उसी को रखें और फिर जिस भी देवता या उसके मन्त्र की आराधना करनी हो, करते रहें।

गायत्री का तिरस्कार अथवा उपेक्षा करके न तो किसी देवता को प्रसन्न किया जा सकता है और न कोई मन्त्र सिद्ध हो सकता है। फाटक का बड़ा द्वार खुले बिना किसी महल में प्रवेश करना सम्भव नहीं होता। फाटक खुल जाने पर जब भीतर प्रवेश कर सकना सम्भव हो जाय, तभी उस महल के भीतरी छोटे कमरों के दरवाजे खोलने की बात सोची जा सकती है। गायत्री, उपासना क्षेत्र का प्रवेश-द्वार है। नित्य-कर्म, संध्या-वन्दन उसी की प्रमुखता में सम्पन्न होता है और यह विदित तथ्य है कि बिना संध्या किये किसी भी देवता की उपासना का न तो अधिकार मिलता है और न सफलता ही मिलती है।

इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए ‘देवी भागवत’ के एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण का उदाहरण प्रस्तुत है-

भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्व शास्त्रधतां वरः। द्विजातीनां तु सर्वेषां शक्त्युपास्तिः श्रुतीरिता॥ सन्ध्याकाल त्रयेऽन्यस्मिन् काले नित्य तयाविभो। तां विहाय द्विजाः कस्माद् गृह्णीयुश्चान्य देवताः॥

अर्थ- राजा जनमेजय ने व्यास जी से पूछा था- ‘‘हे भगवन्! आप तो समस्त धर्मों के ज्ञाता हैं और संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाताओं में परमश्रेष्ठ हैं। सब द्विजातियों के लिये शक्ति की उपासना ही वेद ने बतलाई है। है विभो! फिर क्या कारण है कि तीनों संध्याकाल की वन्दना में तथा अन्य समय में भी नित्य ही उस शक्ति का त्याग करके द्विजगण अन्य देवों की उपासना को क्यों ग्रहण किया करते हैं।”

सर्वसाधारण की भाँति राजा जनमेजय के मन में भी यह जिज्ञासा उत्पन्न होनी स्वाभाविक थी कि जब इतना शक्तिशाली एक सनातन उपास्य मौजूद है, तब गंगा का सहारा छोड़ छोटे नदी-नालों का आसरा तकते फिरने में क्या लाभ?

इस शंका के समाधान में महर्षि व्यास ने बताया कि प्राचीनकाल में सभी कोई केवल गायत्री उपासना करते थे। अब समय की विपरीतता और अदूरदर्शिता के कारण लोग इधर-उधर भटक रहे हैं। इतने पर भी सुनिश्चित तथ्य जहाँ का तहाँ है। इसकी महिमा एवं महत्ता कम नहीं होती। इस अनादि उपासना का इतिहास बताते हुए महर्षि व्यास कहते हैं-

नूनं सत्ययुगे राजन् ब्राह्मण वेदपारागाः। परा शवत्यर्चनरता देवी दर्शन लालसाः॥

गायत्री प्रणवासक्ता गायत्री ध्यान कारिणः। गायत्री जप संसक्ता माया धीजैक जापिनः॥

ग्रामे ग्रामे पराम्बायाः प्रासाद करणोत्सुकाः। स्वकर्म निरताः सर्वे सत्यशौचदयान्विताः॥

अर्थ- व्यास जी, ने राजा जनमेजय से कहा- ‘‘हे राजन्! निश्चय ही सत्ययुग में सभी ब्राह्मण वेदों के पार गामी महान् विद्वान् होते थे और सब पराशक्ति गायत्री की अर्चना करने में रुचि रखने वाले थे। सभी देवी के दर्शन करने की परम लालसा रखा करते थे। सब लोग गायत्री और प्रणव के जाप में आसक्ति रखते थे तथा निरन्तर गायत्री के ध्यान करने वाले होते थे। माया बीज के जपने वाले गायत्री का जप करने में संलग्न रहते थे। हर एक ग्राम में परात्परा अंबा के प्रासाद की रचना कराने की उत्कण्ठा रखा करते थे। सब लोक अपने-अपने कर्मों में निरत और सत्य, पवित्रता तथा दया से युक्त होते थे।”

ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा वेद-माता गायत्री की महिमा और शक्ति का जो अनुभव कहा है और उस महान् उपासना के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है, उसका संदर्भ इस प्रकार है-

ध्यायन्ति या सुनिगण निश्चतं त्रिकालं, सन्ध्येति नाम परिकल्प्य गुणान् भवानि। बुद्धिहिं बोध करण कगताँ सदा त्वं, श्रीश्चासि देवि! सततं सुखना नाराणाम्॥

कस्ते चरित्रर्माखलं मूदिं वेदधौमान् नाहं हरिर्नचाभवो न शुरास्तयान्ये। ज्ञातुँ क्षमाश्च सुनयो न ममामनाश्च, दुर्वाच्य एव महिमा तज सर्व लोके॥

अर्थ- ‘पितामह ब्रह्मा, देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- ‘‘मुनिगण नियम रूप से तीनों कालों में जिसका ध्यान किया करते हैं। हे देवि! उस आपको ‘सन्ध्या’- यह नाम से पुकार कर आपके गुणों का गान किया करते हैं। उनने आपका ही सन्ध्या ऐसा नाम परिकल्पित कर लिया है। आप सदा जगत् का ज्ञान कराने वाली बुद्धि हैं, और हे देवि! निरन्तर सुख प्रदान करने वाली मनुष्यों की आप ही श्री हैं। इस संसार में कौन ऐसा बुद्धिमान् है, जो आपके संपूर्ण चरित्र को जानता हो? अर्थात् कोई भी नहीं है। न मैं ही जानता हूँ और न हरि-शिव तथा अन्य देवगण ही जानते हैं। मेरे पुत्र एवं मुनिगण भी आपके चरित्र का ज्ञान रखने की क्षमता नहीं रखते हैं। समस्त लोक में आपकी ऐसी महिमा है कि उसे कोई भी कह ही नहीं सकता है।”

आराध्या परमाशक्तिः सर्वेरपि सुरासुरैः। नातः परतरं किञ्चियधिफं भुवने त्रये। सत्यं सत्यं पुनः सत्यं वेदशास्त्रार्थ निर्णयः पुञ्नीया परशक्तिनिर्गुण सगुणयवा॥

अर्थ- समस्त सुरासुरों के द्वारा आराधना के योग्य उस परमशक्ति का पूजन करना चाहिये। इससे बड़ा त्रिभुवन में अन्य कोई नहीं है, पर वेद-शास्त्रों का परमसत्य निर्णय है, वह सर्वोपरि है, चाहे निर्गुण हो या सगुण हो।

अद्याहं तब पाद्षंकच एरागादान गर्वेण वै, धन्योऽस्मि-इति यथार्थवाद निपुणों जात, प्रसादाच्चते।

याचे त्वाँ भवभीति नाश चतुराँ मुक्तिप्रदाँचेश्वरीं हित्वा मोह कृतं महाति निगर्ड त्वद्भक्ति युक्तं कुरु॥

न जानन्ति ये मानदस्ति वदन्ति प्रभुँ मौ तवाद्यं चरित्रं पवित्रम्। उस्तीह ये याजकाः र्स्वगकामा नते ते प्रभाव दिदन्त्येन कामस्॥

अर्थ- पितामह ब्रह्मा जी देवी का स्तवन करते हुए पुनः उनकी महिमा इस प्रकार बताते हैं- ‘हे देवि! मैं आपके चरणारविन्द के पराग को प्राप्त कर बड़े ही गर्व के साथ कहता हूँ कि आज में परमधन्य हुआ हूँ और आपके ही प्रसाद से मुझे यथार्थवाद में निपुणता प्राप्त हुई है। अब तो मेरी यही याचना आपकी सेवा में है, क्योंकि आप इस भव के भय के नाश करने में बड़ी दक्ष हैं, मुक्ति प्रदान करने वाली हैं और समस्त विश्व की स्वामिनी हैं। यह जो मोह-जाल का बहुत अधिक निगड़ बंधन है, उसका नाश कर अर्थात् उससे छुड़ाकर आपनी भक्ति की भावना से मुझे युक्त कर देवें। जो मनुष्य मुझ को ही प्रभु समझकर मेरा समादर किया करते हैं, उनको आपके सर्वोत्तम एवं पवित्र चरित्र का ज्ञान सर्वथा नहीं है। स्वर्ग की कामना से याजकगण मेरा भजन किया करते हैं। हे देवि! वे आपके वास्तविक प्रभाव को बिल्कुल नहीं जानते हैं।”

विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां शक्तिस्वमेव किल शक्तिम नां सदैव। त्वं कीर्ति कान्ति कमलामल तुष्टि रूपा मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्य लोके। गायत्र्यसि प्रथम वेद कला त्वमेव स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्धा मात्रा। आम्नाय एव विदितो निगमो भवत्या सञ्जीवनाय सततं सुर पूर्व जानाम्॥

अर्थ- भगवान विष्णु ने देवी का स्तवन करते हुए प्रार्थना की है- ‘‘हे भगवती! बुद्धिमान् मनुष्यों में जो ज्ञान है, वह आपका ही स्वरूप है। जो परम शक्तिशाली पुरुष हैं, उसमें जो शक्ति विद्यमान है, वह भी आप ही उस रूप में विराजती हैं। बिना आपकी कृपा कण के ज्ञान और शक्ति हो ही नहीं सकती है। कीर्ति, कान्ति, कमल और अमल तुष्टि भी आप ही का स्वरूप है। इस मनुष्य लोक में मुक्ति के प्रदान करने वाली विरति भी आप ही हैं। वेद की प्रथम कला स्वरूपिणी आप गायत्री हैं और सगुणार्ध मात्र स्वाहा तथा स्वधा भी आप ही हैं। आपने ही सुरों के पूर्वजों के संजीवन के लिये आम्नाय निगम की रचना की है।

तपसि ये निरताः मुनयोऽमलास्तवः विहाय पदाम्बुजपूजनम्। जननी! ते विधिना किलवञ्चिता परिभवो विभवे परिकल्पजः॥

न तपसां नदमेम समाधिना न च तथा विहितैः क्रतुभिर्यथा। तब पदाब्ज पराग निषेवणाद्भवति मुक्तिरजे भवसागरात्॥

अर्थ- भगवान् शंकर स्वयं भगवती की स्तुति करते हुए प्रार्थना करते हैं- ‘‘हे देवि! आपके चरणकमलों का समाश्रय त्याग कर जो मुनिगण परम अमल होते हुये भी सर्वदा तपश्चर्या में निरत रहा करते हैं, हे जननी! वे विधाता के द्वारा वञ्चित किये हुये हैं, अर्थात् उनका दुर्भाग्य ही है कि विभव में उनका परिभव निर्मित कर दिया है। इस संसार रूपी अगाध सागर से मुक्ति की प्राप्ति आपके चरणकमल के पराग का सेवन करने ही से हो सकती है, अन्य इसका कोई भी उपाय नहीं है। तपस्या के द्वारा भी मोक्ष नहीं हो सकता है तथा ध्यान और योग के द्वारा समाधिस्थ होने से एवं विधिपूर्वक किये हुए यज्ञों से भी भवसागर का बंधन नहीं छूटता है। इसे तो आपके ही चरणों का समाश्रय प्रदान कर करता है।

तस्यात् ब्रह्मादयो राजन् सन्ति यद्यअधीश्वराः। तथापि माया कल्लोल योग संक्षुभितान्तराः॥

तदधीनाः स्थिताः सर्वे काष्ठ पुतलिकोपमाः। यद्यायथा पूर्वभवं कर्म तेषां तथा तथा॥

प्रेरयत्यनिशं माया परब्रह्म स्वरूपिणी। न वैषम्यं न नैर्धृण्यं भगवत्यां कदाचन॥

अर्थ- राजा ने व्यास जी से बहुत-सी शंकायें की थीं। जिनमें राम, कृष्ण, विष्णु, ब्रह्मा आदि सभी को उनकी लीलाओं में मोह आदि का उल्लेख किया था। ऐसे महान् देवों में और भगवदावतारों को ऐसा समय-समय पर व्यामोह कैसे हुआ? इसके समाधान में व्यास जी ने कहा- ‘‘हे राजन्! यद्यपि ब्रह्मादिक सब ही निस्सन्देह अधीश्वर तो हैं, किन्तु ये सभी माया की तरंगों के योग से संक्षुभित अन्तःकरण वाले हैं। उस महामाया के ही ये सब अधीन हैं, जैसे काठ की पुतली नचाने वाले के हाथ में रहा करती है, ठीक वैसी ही इन सबकी स्थिति है। जैसे इनका पहिले होने वाला कर्म होता है, वैसे ही यह परब्रह्म स्वरूप वाली माया उनको सर्वदा प्रेरित किया करती है। महामाया भगवती में न तो कोई विषम भावना है और न कभी घृणा ही है। यह भुवनों की अधीश्वरी तो केवल जीवों के कल्याण के लिये ही सदा किया करती है।

तस्मात्सर्वात्मना राजन् संसेव्या परमेश्वरी। नित्या चेग्त्यनसना शक्तेर्यां बिना तु पतत्यधः॥

अतएव हे राजन्! सर्वात्मभाव से परमेश्वरी गायत्री का सेवन करना ही चाहिये। शक्ति की उपासना ही नित्या है। जिसके बिना द्विज का निश्चय ही अधःपतन हो जाता है।


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