प्रेम विस्तार से परमात्मा की प्राप्ति

October 1968

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आरम्भ में मनुष्य अपने तक ही सीमित रहता है। वह जो कुछ करता या चाहता है, अधिकाँशतः अपने लिये। उसे अपने इस स्वार्थ में कुछ सुख अनुभव होता है। किंतु यह सुख क्षणिक ही होता है। स्वार्थ की पूर्ति का संतोष समाप्त होता ही सुख की अनुभूति भी समाप्त हो जाती है। फिर दूसरा स्वार्थ सताने लगता है। इस स्वार्थ की यह शृंखला चलती रहती है, लेकिन वह सुख-संतोष नहीं मिल पाता, जिसकी वांछा रहती है। आत्मा रीती की रीती रह जाती है। अशाँति और असंतोष बना रहता है।

स्वार्थ में भी जो, कम, ज्यादा अथवा झूँठी-सच्ची सुखानुभूति होती है, उसका कारण है, अपने प्रति प्रेम। प्रेम ही सुख का हेतु है। किन्हीं कारणों से जिनको अपने से प्रेम नहीं रहता, आत्म-ग्लानि अथवा आत्म-क्षोभ का भाव घेर लेता है, उन्हें स्वार्थ की पूर्ति में भी सुख नहीं मिलता। वह कुछ भी खाये, कुछ भी पहने, कितना ही लोभ क्यों न हो, किन्तु उसे वह क्षणिक संतोष भी नहीं मिलता, जो स्वार्थपूर्ति पर किसी स्वार्थी को ही मिल जाता है। इस प्रवंचन का मुख्य कारण यही होता है कि उसका अपने प्रति प्रेम समाप्त हो गया होता है। सुख तथा संतोष प्रेम में ही निवास करता है, न तो वस्तु में और न व्यक्ति में।

कुछ समय बाद उसका विवाह हो जाता है। संकीर्ण स्वार्थ की सीमा टूटती है। उसका परिचय बढ़ता है। अब वह न केवल अपने लिये ही करता है और न अपने लिये चाहता है। अब उसके करने ओर चाहने में पत्नी सम्मिलित हो जाती है। सम्मिलित ही क्यों प्रथम हो जाती है। वह कुछ खाता है तो उसे पत्नी की याद आती है। खाना अच्छा नहीं लगता। जब तक पत्नी को न खिला ले खाने में रस नहीं आता। कुछ पहनता है तो उसका ध्यान पत्नी की ओर जाता है और जब तक अपने से पहले और अपने से अच्छा उसे न पहना ले जरा भी अच्छा नहीं लगता।

बल्कि सच्ची बात यह है कि जब वह पत्नी के लिये जितने अधिक त्याग का अवसर पाता है और करता है, उसे ही अधिक सुख और संतोष होता है। ऐसा क्यों? इसलिये कि उसे पत्नी से प्रेम होता है। नहीं तो जिसकी सम्पत्ति का उपभोग कोई दूसरा करे तो अच्छा लगना तो दूर, बुरा ही लगना चाहिये। किन्तु प्रेम के कारण जब पुरुष अपनी गाढ़ी कमाई के मूल्य पर पत्नी को सुख-सुविधा में देखता है, उसे खाते, पहनते और व्यय करते देखता है तो प्रसन्न होता है। अब उसे अपना एकाकी स्वार्थ नहीं भाता। उसे उससे ग्लानि होती है, विचार में आते ही हीनता आती है। जो स्वार्थ पहले उसे सुख देता था, वही अब अरुचिकर लगने लगता है। इसका कारण केवल यही होता है कि उसे पत्नी से प्रेम होता है। पत्नी के प्रति प्रेम रंजना से जो सुख प्राप्त होता है, वह स्पष्ट ही स्वार्थपूर्ति से प्राप्त होने वाले सुख से अधिक शीतल, संतोषप्रद तथा स्थायी होता है- यह अनुभव भी अभावित नहीं रहता।

फिर बच्चे होते हैं। प्रेम की परिधि का और अधिक विस्तार होता है। अभी तक पत्नी के साथ कुछ स्वार्थ अपना भी बना रहता था। लेकिन अब वह उतना भी नहीं रहता। अब यदि अपना पेट खाली है और बच्चे तृप्त हैं तो भी संतोष रहता है। अपने कपड़े फटे-पुराने हैं और बच्चे अच्छे वस्त्र पहने हैं तो देखने मात्र से ही आनन्दित हो जाते हैं। इतना ही नहीं सबको खिलाने के बाद बचा हुआ खाने बैठे और बच्चे आते ही लूट मचा देते हैं। सब कुछ छीन-झपटकर खा जाते हैं। इस लूट-खसोट में और भी आनन्द आता है। ऐसा क्यों? इसलिये कि बच्चों से प्रेम होता है। स्वार्थ और भी कई अंशों तक समाप्त हो चुका होता है और त्याग भावना बढ़ने लग जाती है। प्रेम का जितना विस्तार उतनी ही स्वार्थ की हानि, जितनी ही स्वार्थ की हानि- उतनी ही त्याग भावना की वृद्धि- उतना ही सुख, सन्तोष और आनन्द।

प्रेम की परिधि बढ़ती है। समाज, देश अथवा राष्ट्र तक फैल जाती है। राष्ट्र तक विस्तृत प्रेम की परिधि के ही अनुपात से त्याग भावना की वृद्धि होती है। राष्ट्र-हित के लिये, देश प्रेम के लिये व्यक्ति क्या नहीं दे देता। जीविका दे देता, जीवन दे देता, पत्नी, पुत्रों और परिजनों को दे देता, सम्पत्ति दे देता, सर्वस्व दे देता। जितना-जितना देता जाता है, उतना-उतना ही उठता जाता है और आनन्द पाता जाता है। देश-भक्त फाँसी पाते और गोली खाते समय भी आनन्दित होते रहते हैं। किसलिये? इसलिये कि उन्हें देश, राष्ट्र अथवा समाज से प्रेम होता है। आनन्द का निवास प्रेम में है न कि किसी अन्य वस्तु में। प्रेम की पूर्णता की परिणति ही आनन्द की उपलब्धि है। और आनन्द मिश्रित मृत्यु का परिपाक मोक्ष के अतिरिक्त भी नहीं है।

यही प्रेम जब अपनी सारी सीमाओं को तोड़कर अखिल जड़चेतन तक फैल जाता है, तब मनुष्य विभु रूप हो जाता है। मनुष्य का यह असीम विस्तार उसे आनन्द सागर में निमग्न कर देता है। प्रतिक्षण सुख, संतोष, शीतलता और आनन्द अनुभव होता है। सारा मंगल, सारा कल्याण और सारी स्वस्ति अनायास ही सदा-सर्वदा के लिये मिल जाती है। फिर कुछ भी मिलना शेष नहीं रहता।

प्रेम की उपलब्धि परमात्मा की उपलब्धि मानी गई है। प्रेम परमात्मा का भावनात्मक स्वरूप है। जिसे अपने अन्तर में सहज ही अनुभव किया जा सकता है। प्रेम प्राप्ति परमात्मा की प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग है। परमात्मा को पाने के अन्य सब साधन कठिन, कठोर, दुःसाध्य तथा दुरूह हैं। एकमात्र प्रेम ही ऐसा साधन है, जिसमें कठिनता, कठोरता अथवा दुःसाध्यता के स्थान पर सरसता, सरलता और सुख का समावेश होता है। प्रेम की आराधना द्वारा परमात्मा को पाना क्या मनुष्य परमात्म रूप ही हो जाता है।

यों तो कोई भी कह सकता है कि उसके हृदय में प्रेम का निवास है। ऐसा अनुभव भी हो सकता है। क्योंकि बिना प्रेम-भावना के मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। उसे किसी-न-किसी से, किसी भी स्तर का प्रेम होना अनिवार्य है। प्रेम ही मानव-जीवन की संजीवनी है। प्रेम-भावना के सर्वथा समाप्त हो जाने पर मनुष्य मृत हो जाता है। अपने से लेकर संसार तक जिनका प्रेम सर्वथा समाप्त हो जाता है, उनकी रुचि, आकर्षण, अथवा लगाव किसी से नहीं रहता, तब या तो उनकी जीवन गति रुक जाती है अथवा वे पागल हो जाते हैं। अत्याचार, आततायित्व, रक्तपात, रोष, क्षोभ, कुण्ठा आदि के विकास भी पागलपन के ही लक्षण हैं। प्रेम के समाप्त हो जाने पर मनुष्य मरुभूमि की तरह तप्त तथा निस्सार हो जाता है। जोकि अस्तित्ववान होने पर भी मृत के सदृश ही होते हैं।

हृदय की सरसता तथा सदाशयता प्रेम पर ही निर्भर है। इसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य अधिकाँश में आततायी बन जाता है, फिर चाहे वह अपने प्रति अनाचारी हो अथवा औरों के प्रति। आततायित्व भी मृत्यु का ही एक लक्षण है। शरीर से जीते हुए भी ऐसे मनुष्य आत्मा से मर चुके होते हैं। जीवन अनुभूति का कोई भी आनन्द उन्हें नहीं मिलता। करुणा, दया, क्षमा आदि से बहने वाली शीतल वायु का अनुभव उन्हें नहीं होता। इन दोषों के साथ चलने वाला जीवन निष्चेष्ठ मृत्यु से भी बुरा होता है। अस्तु, जीवित मनुष्य में प्रेम का कुछ-न-कुछ भाव होना अनिवार्य है।

तथापि जिस प्रेम को, जिस आकर्षण अथवा रुचि को मनुष्य अपने अन्दर अनुभव करता है, वह वास्तविक प्रेम नहीं होता। वह मात्र स्वार्थ के प्रति मोह की अनुभूति हुआ करती है।

प्रायः लोगों का अनुमान होता है कि उन्हें अपने से, अपने परिवार से, समाज से और राष्ट्र से प्रेम है। किन्तु क्या वे एक क्षण भी यह सोच पाते हैं कि यह प्रेम सज्जा है अथवा मिथ्या? इसकी एक मोटी-सी पहचान यह है कि यदि वे कभी भी किसी दशा में कोई ऐसा व्यवहार नहीं करते, जिससे राष्ट्र, देश, समाज, परिवार अथवा अपने को कोई क्षति नहीं पहुँचती। उनका कोई अहित नहीं होता। यदि ऐसा है तब तो एक बार कहा जा सकता है कि उन्हें उन संबंधों के प्रति प्रेम है अन्यथा नहीं। किन्तु सच्चे प्रेम की कसौटी इससे कुछ ऊपर है। वह यह कि यदि कोई अपने संबंधों तथा अनुबंधों के लिये कुछ त्याग करता है और उसके साथ अपना कोई स्वार्थ नहीं जोड़ता, साथ ही उसे उस उत्सर्ग में आनन्द की अनुभूति होती है तो उसका प्रेम सत्य ही कहा जायेगा।

अनेक बार लोग देश, राष्ट्र अथवा समाज के प्रति बड़ा प्रेम अनुभव करते हैं। उनका यह प्रेम बात-बात में प्रकट होता है। परमात्मा के प्रति भक्ति-भाव में आँखें भर-भर लाते हैं। कीर्तन, भजन अथवा जाप करते समय धाराओं में रो पड़ते हैं। उनकी यह दशा देखकर कहा जा सकता है कि उन्हें समाज अथवा परमात्मा से प्रेम है। किन्तु वे ही लोग अवसर आने पर उसके लिये थोड़ा-सा भी त्याग करने के लिये तैयार नहीं होते। ऐसे प्रेमी अथवा भक्त-जन प्रेम से नहीं भावातिरेक से परिचालित होते हैं। सच्चे प्रेम का प्रमाण है त्याग। जो अपने प्रिय के लिये सब कुछ सुखपूर्वक त्याग कर सकता है और जो उस त्याग के बदले में रत्ती भर भी कोई वस्तु नहीं चाहता, वही सच्चा प्रेमी है, भक्त है।

प्रेम में प्रदान के सिवाय आदान का विनिमय नहीं होता। वह विशुद्ध बलिदान, त्याग और आत्मोत्सर्ग की भावना है। सत्य प्रेम का पोषक प्रेमी अपने प्रियजन के हित और सुख के लिये सब कुछ दे डालता है, और इस देने की भावना में दान अथवा प्राप्ति का कोई भाव नहीं रखता। किसी के लिये कुछ त्याग करते समय जब ऐसा अनुभव हो कि हम अपने लिये ही त्याग कर रहे हैं। अपने त्याग से दूसरे को मिलने वाला सुख जब अपनी आत्मा में अनुभव हो तब समझना चाहिये कि हमारे हृदय में सच्चे प्रेम का शुभारम्भ हो गया है। जिस दिन इस शुभ का आरम्भ हो जायेगा, संसार के सारे दुःख, शरीर, मन और आत्मा के तीनों ताप नष्ट होने लगेंगे। हर समय एक अनिवर्चनीय आनन्द की शीतलता का अनुभव होता रहेगा।

प्रेम ही परमात्मा का अनुभूतिमय स्वरूप है। उसे प्राप्त करना ही मानव-जीवन का ध्येय होना चाहिये। इसकी प्राप्ति के लिये सबसे पहली शर्त है निःस्वार्थ होना। अपने हृदय का प्रेम अणु-अणु में स्थापित कर उसके लिये निःस्वार्थ त्याग का अभ्यास करने वाले ठीक उस मार्ग पर चल पड़ते हैं, जोकि उस परमपिता परमात्मा की ओर जाता है। इस प्रेम-भावना का विकास अपने से बढ़ा आत्मा-प्रेम की परिधि को परमात्मा तक पहुँचा कर सरलता से किया जा सकता है।

अस्तु आत्म-कल्याण के इस क्रम को स्मरण रखते हुए मनुष्य को अपने जीवन का संचालन करना चाहिये- ज्यों-ज्यों प्रेम की परिधि बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों स्वार्थ घटता जाता है, ज्यों-ज्यों स्वार्थ घटता जाता है, त्यों-त्यों त्याग भावना की वृद्धि होती जाती है और ज्यों-ज्यों त्याग की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों आत्मा में आनन्द का आगमन होता जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि मनुष्य परमानन्द स्वरूप परमात्मा को पाकर भव-बंधन से मुक्त हो जाता है।


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