‘पूर्वजन्म कृतं पापं व्याधि रूपेण पीड़ति’

October 1968

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“डा. बारमन विन्सेंट पीले” अमेरिका के गिरजों के परामर्शदाता मन्त्री थे और मनोवैज्ञानिक चिकित्सक भी। अपने जीवन में उन्होंने सैंकड़ों पीड़ित व्यक्तियों का मानसोपचार किया। विश्लेषण में उन्होंने यह पाया कि रोग-शोक और कुछ नहीं, पूर्व कृत बुरे कर्मों का ही परिणाम होता है। मस्तिष्क में जड़ जमाये हुये काम, क्रोध, लोभ, चोरी के भाव, व्यभिचार आदि शरीर में अपनी सहायक ग्रन्थियों से एक प्रकार का रस (जिसे विष कहना उपयुक्त होगा) स्रवित करते रहते हैं, बीमारियों और व्याधियों का कारण यह स्रवित रस ही होता है, जिसका मूल व्यक्ति के दुर्भाव, दुर्गुण और दुष्कर्म होते हैं।

न्यूजर्सी के गिरजाघर में एक दिन उनका प्रवचन था। भाषण समाप्त कर वह बाहर आये तो एक स्त्री उनके पास आई और याचक स्वर में बोली- ‘‘मैं जब भी किसी गिरजा में जाती हूँ, मेरी बाहों में बड़े जोर की खुजली उठती है। आश्चर्य है कि गिरजाघर से वापस होते ही खुजली कम हो जाती है।’’ कथन की पुष्टि में उसने वस्त्र हटाकर बाहों के चकत्ते भी दिखाये, उस समय खुजलाई गई बाहों से पानी-सा कुछ हव निकल रहा था।

डा. पीले ने पूछा- ‘‘आप किस कुर्सी में बैठी थीं। संभव है उसमें किसी ने कोई ऐसी वस्तु लगा दी हो जिससे खुजली भड़कती हो।” इस पर उस महिला ने बताया कि “ऐसा इसी गिरजाघर में नहीं हुआ। जब भी, किसी भी गिरजाघर में जाती हूँ तो खुजली के कारण बुरी तरह परेशान हो उठती हूँ।”

डा. पीले ने बहुत विचार करने के बाद उन्हें एक दिन घर मिलने को कहा। घर पहुँचने पर डाक्टर ने उस महिला के साथ ऐसी आत्मीयता व्यक्त की, जैसे उनका, उनके साथ परिवार के सदस्य का संबंध रहा हो। महिला उनकी आत्मीयता से बहुत द्रवित हो उठी। आदर, सत्कार के बाद वे अपनी बैठक में पहुँचे और उस महिला से बहुत स्नेह के साथ पूछा- ‘‘आपके जीवन में कहीं कोई त्रुटि, कोई दोष, कोई पाप कर्म हो रहा हो, जिसे आप भयवश किसी से प्रकट न कर रही हों, ऐसा कुछ हो मुझे बताइये।’’

वह बेचारी पहले तो कुछ झेंपी पर बाद में बताया कि “वह जिस फर्म में काम करती है, वहाँ से कुछ पैसा चुरा लिया करती है।” यद्यपि पैसा चुराते समय उसका यह भाव रहता था कि यह पैसे वह शीघ्र ही उस हिसाब में डाल देगी पर वैसा हुआ नहीं। हजारों रुपये चोरी कर लिये अब तो उनका लौटाना भी कठिन हो गया और चोरी एक स्वभाव बन गई। वे जब भी किसी गिरजाघर जातीं इस पाप का उद्वेग मस्तिष्क में छा जाता, और धीरे-धीरे खुजली उठने लगती।

डाक्टर ने उन्हें समझाया- ‘‘बेटी, तुम अपने स्वामी के पास जाकर अपनी भूल स्वीकार कर लो। फिर भविष्य में ऐसा न करना तो फिर तुम्हें यह कभी नहीं होगा।”

महिला उद्विग्न हो उठी। बोली- ‘‘ऐसा करने से मुझे नौकरी से निकाल दिया जायेगा। और लोगों की दृष्टि में उसका सम्मान खो जायेगा।” पर डाक्टर के समझाने पर वे वैसा करने के लिये राजी हो गई।

उन्होंने अपने फर्म मैनेजर से जाकर सारी घटना ज्यों की त्यों कह दी। स्वामी पहले तो बहुत गुस्सा हुआ पर महिला की निष्कलुषता से वह प्रभावित हुए बिना भी न रह सका। उसने महिला को फिर वैसा न करने की चेतावनी देकर क्षमा कर दिया और नौकरी से भी नहीं हटाया। सह-कर्मचारियों पर भी इसका बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा और उनका सम्मान भी कम नहीं हुआ। पर जो आश्चर्यजनक बात हुई वह यह थी कि उस दिन के बाद वे किसी भी गिरजा में गई, कहीं भी उन्हें खुजली नहीं हुई।

इस प्रसंग से उपनिषदकार की वह सूक्ति याद आती है-

ज्ञानोदयात् पुराऽऽरब्धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति। अदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्ट वाणवत्॥ -अध्यात्मोपनिषत् ॥53॥

अर्थात्- जिस प्रकार लक्ष्य को उद्देश्य करके छोड़ा हुआ बाण लक्ष्य को बेधे बिना नहीं रहता, वैसे ही ज्ञान के उदय होने से पहले किया गया कर्म, ज्ञान का उदय होने के बाद भी उनका फल दिये बिना नहीं रहता। किये हुये कर्म का फल भोगना ही पड़ता है।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अच्छे फल के लिये मनुष्य को अच्छे कर्म करने चाहिये। पर यदि अब कोई अच्छा कर्म- ईश्वर उपासना, सच बोलना, न्याय और परिश्रम की कमाई खाना, नियम, संयम और ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना- करने लगा है तो भी अब तक जो दुष्कर्म हो चुके हैं, उनका प्रतिफल भोगे बिना वह रह नहीं सकता। जब तक असत् कर्मों और संस्कारों का प्रक्षालन नहीं हो जाता- अच्छे कर्म करते हुए भी लोगों को व्याधियाँ निश्चित रूप से आती रहेंगी। अब के लिए हुये सत्कर्मों तक का हिसाब न हो जाने तक वह पीड़ायें पिंड नहीं छोड़ सकतीं।

शास्त्रकार ने इस तथ्य का प्रतिपादन दृढ़ता के साथ करते हुए लिखा है- ‘‘अवश्यमेवभोक्तव्यं यद् यद् कर्म शुभाशुमम्” अच्छे-बुरे कर्मों का फल जीवात्मा को अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है। किस पाप और बुराई के द्वारा कौन-सी योनि और व्याधि भोगनी पड़ती है। इसके विवेचन भी बड़े रहस्यपूर्ण हैं। यद्यपि अभी ऐसा कोई वैज्ञानिक यंत्र नहीं बना, जो जीवात्मा की अन्तिम स्थिति का सही मूल्याँकन कर सके पर मानसिक भावों के द्वारा भावी जीवन का अनुमान लगाया जाने लगा है।

कर्मों की गति यद्यपि विचित्र है मानवीय दृष्टि से यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि किस पाप का परिपाक कहाँ जाकर होगा। उसका फल कब मिलेगा। चोरी करने वाले को तत्काल कोई दण्ड नहीं मिलता, व्यभिचार करने वाला उस समय पकड़ में नहीं आता पर इन कर्मों का फल कालान्तर में प्रकृति जन्य रूप में उसी प्रकार मिलता है, जिस तरह मक्का का फल दो महीने, जौ, गेहूँ सात महीने में और अरहर के बीज का फल दस महीने में।

पूर्वजन्म में किये हुये पाप व्यक्ति को रोग बनकर सताते हैं, इसका उल्लेख आयुर्वेद में आता है कि- ‘‘पूर्व-जन्म कृतं पापं व्याधि रूपेण पीड़ति”। आज के भौतिकवादी युग में यह बातें कुछ असम्भाव्य लगती हैं पर अब मनोविज्ञान का एक पक्ष ऐसा भी उभर रहा है, जिसने अनेक तथ्यों की खोज के आधार पर यह मानना प्रारम्भ कर दिया है कि इस जन्म के रोग-शोक पूर्वजन्मों या जीवन के दुष्कर्मों का फल होते हैं। ब्रिटेन के मनोविज्ञानी विद्वान् भी अब इसी धारण की ओर अभिमुख हो रहे हैं। इस तरह के सन्दर्भों में मोदीनगर जिला मेरठ की यह घटना भी उल्लेखनीय है-

मोदीनगर के समीप एक गाँव में एक कुम्हार रहता था। उसने बहुत परिश्रम से सात सौ रुपये जमा किये थे। चोरी के डर से उसने यह रुपये एक महाजन के पास जमा कर दिये। कुम्हार का स्वास्थ्य अच्छा न था। कोई बीमारी हो गई और उसी में उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु से पूर्व उसने अपनी धर्मपत्नी को बुलाकर यह बात बता दी थी। कुम्हार की अन्त्येष्टि के बाद उसकी बहू महाजन के पास गई और अपने रुपये माँगे पर अब कोई प्रमाण न होने के कारण सेठ छल कर गया और रुपये उसके पास रखे थे इससे साफ मुकर गया।

कुम्हारिन ने पंचायत बुलाई। पर महाजन ने वहाँ भी झूँठ ही बोला। अन्त में कुम्हारिन ने कहा- ‘‘यदि सेठ साहब, मंदिर में चलकर भगवान् के सामने गंगाजली उठालें तो मैं एक पैसा भी न माँगूँगी।” लोभी महाजन ने मंदिर में जाकर गंगाजली भी उठा ली। पर जब वह मंदिर से निकला उसका चेहरा काला पड़ रहा था।

आखिर पाप का घड़ा फूटा। महाजन को उसी शाम से ही उदर-शूल रहने लगा। वह छोटी-सी बीमारी धीरे-धीरे कैन्सर बन गई और उसी में उसकी जान चली गई। कुम्हार की ‘परिश्रम की कमाई’ खा गई।

रामायण में कर्मफल के अनेक दृष्टान्त आये हैं। एक कथा बड़ी महत्वपूर्ण है-

एक था कैकय देश। उसका राजा प्रतापभानु बड़ा बलशाली और धर्मात्मा था। राजा का भाई था अरिमर्दन वैसा ही भक्त, तपस्वी और बलवान्। दोनों भाइयों ने मिलकर चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित किया।

धीरे-धीरे उन्हें ऐश्वर्य का मद हो गया। उनकी वासनायें और महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं। साधन तो थे पर आयु थोड़ी थी, सो उन्हें अमरता की सूझी, किसी ने उन्हें कहा कि तुम यदि माँस खाओगे तो अजेय हो जाओगे। पर ऐसा करने के लिये तुम्हें ब्राह्मणों से आज्ञा न मिलेगी, इसलिये तुम्हें छलपूर्वक सर्वप्रथम ब्राह्मणों को माँस भक्षण कराना होगा। उन्होंने वैसा ही किया। ब्राह्मणों को यह बात मालूम हुई तो वे बहुत कुपित हुये और शाप दे दिया। इसी पाप के फलस्वरूप प्रतापभानु निश्चर कुल में जन्मा। रामायण में उसकी व्याख्या इस तरह है-

काल पाइ मुनि सुनुसोई राजा, भयउ निसाचर सहित समाजा।

दस सिर ताहि बीस भुजदंडा, रावन नाम बीर बरवंडा।

कामरूप जानहिं सब माया, सपनेहु जिन्हके धरम न दाया।

जेहि विधि होई धम्र निर्मूला, सो सब करहिं वेद प्रतिकूला।

और उनके इस आचरण का दंड उन्हें वंश-नाश के रूप में मिला। छोटे से पाप के कारण आचरण, शील, कुल, बल का वैभव भी काम न आया। रावण को आज भी लोग बुरा कहते हैं, उसे सदैव अपयश ही अपयश मिला।

वेद, उपनिषद्, गीता, रामायण आदि सद्ग्रन्थों की वाणी को अब झुठलाया जाता है पर उन तथ्यों को जो आज के वैज्ञानिक प्रस्तुत कर रहे हैं, उन्हें तो नहीं झुठलाया जा सकता। ऊपर की घटनाओं के अतिरिक्त सैकड़ों घटनायें प्रकाश में आई हैं, उनमें से एक यों है-

अमेरिका में एक बहुत बड़े क्लिनिक डा. सी. डब्लू. लेव हुए हैं। उनके पास एक ऐसा रोगी आया करता था, जो आये दिन नये रोग की शिकायत किया करता था। कभी सिर दर्द, कभी डिसेन्टरी, कभी तनाव, कभी थकावट डाक्टर ने हारकर एक दिन कह दिया- लगता है, तुम कोई ऐसा काम कर रहे हो, जिसके लिये तुम्हें अपनी आत्मा को दबाना पड़ता है। कोई पाप कर रहे हो उसी के कारण तुम्हारे भीतर से रोग फूटते रहते हैं। पहले तो वह इनकार करता रहा पर बाद में उसने स्वीकार किया कि उसका एक भाई किसी दूसरे देश में रहता है। जब पिता जीवित थे तो वह यह व्यवस्था कर गये थे कि उसकी जायदाद का समान भाग दोनों को मिलता रहे पर उक्त सज्जन अपने भाई को थोड़े से डालर भेजते थे शेष स्वयं हड़प कर जाते थे।

जब अपना सारा पाप बयान कर चुके तो उन सज्जन ने बड़ा हल्कापन अनुभव किया, उसी दिन उसने जब तक भाई के हिस्से की जितनी धनराशि थी, वह सब भेज दी साथ में पूर्वकृत पाप के लिये क्षमा भी माँगी। इसके बाद उन्हें किसी शारीरिक पीड़ा ने कष्ट नहीं दिया।

अब मनोविज्ञान यह मानने लगा है कि मनुष्य के शरीर में व्यक्त या अव्यक्त भावनाओं का प्रभाव गहराई तक पड़ता है। यह प्रभाव शरीर में स्नायु-मंडल और नलिकाविहीन ग्रन्थियों के स्राव-हारमोन्स द्वारा फूटता है। बेईमानी, छल, कपट, पर-पीड़न, व्यभिचार, चोरी, क्रोध, साहसहीनता, दुर्भावनायें, निराशा, आदि नलिकाविहीन ग्रन्थियों को दबाती हैं, उनसे जो रस निकलता है, वह शरीर में थकावट, उत्साह-हीनता, कष्ट-पीड़ा, कड़वाहट, घबराहट और मलीनता पैदा करता है। दबाव अधिक होने से असह्य वेदना, ऐंठन, कब्ज आदि बड़े रोग बढ़ते हैं। यह किसी कीटाणुओं के कारण नहीं वरन् दुर्भावनाओं की सूक्ष्म प्रतिक्रिया होती है।

यदि अपने जीवन में सचाई, ईमानदारी, आशा, परोपकार, सेवा, सहिष्णुता, ईश्वर-प्रेम, धैर्य, उत्साह आदि के गुण हों तो अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से अमृत-जैसा रस टपकता है, उससे सुखानुभूति, प्रेमाकर्षण, स्नेहपूर्ण भावनाओं का उभार होता है और सामान्य जीवन होने पर भी वह व्यक्ति अपने आप में असीम सुख और तृप्ति अनुभव करता है।


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