दीर्घकाल तक जी सकना सम्भव है।

October 1968

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यहाँ पर सदा से यह विश्वास किया जाता है कि ‘अमृत’ का अस्तित्व एक सचाई है और जो उसे प्राप्त कर सकता हे, वह अमर हो जाता है। दूसरी विधि किसी बड़े देवी-देवता से अमरत्व का वरदान प्राप्त करना है। लोगों का कहना है कि हनुमान, अश्वत्थामा, जामवन्त, काकभुसुंडि आदि इसी प्रकार अमर-जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसी प्रकार प्राचीन वैद्यक ग्रन्थों में भी आँवला, हर्र पारे की भस्म आदि अनेक प्रकार की औषधियों से हजार वर्ष या इससे भी अधिक आयु प्राप्त करने की बात लिखी है। ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक में पारद के ‘गुटिका’ का प्रभाव कथन करते हुये लिखा है-

याही के परभाव सों अमर देव सम होइ। योगीजन बिहरें सवा, मेरु शिखर मच खोइ॥

कायाकल्प की विधि के विषय में तो अब भी अनेक वैद्यों और जड़ी-बूटी वालों का कहना है कि उसके द्वारा निश्चय ही वृद्ध को युवा बनाया जा सकता है। इस विधि का प्रयोग लगभग 25 वर्ष पूर्व मालवीय जी पर गया था और कहा गया था कि इससे उनके शरीर में एक बार तरुणाई के कुछ चिन्ह दिखलाई भी दिये थे, पर बाद में बहुत अधिक बुढ़ापे के कारण उनकी प्रतिक्रिया हानिकारक जान पड़ी, जिससे फिर यह चर्चा दब गई।

आधुनिक डाक्टरों का दावा :-

पर अब इस क्षेत्र में पश्चिमीय वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने कदम रखा है और वे अपने ‘इन्जेक्शनों’ द्वारा अनेक बार वृद्धों को युवक बनाकर दिखा चुके हैं। अब से 50 वर्ष पहले इसके लिये बन्दर की गाँठों को लगाने इलाज चला था और हमारे देश के एक धनकुबेर ने भी उसी समय फ्राँस से एक चिकित्सक को बुलाकर अपने शरीर में बन्दर की ग्रन्थियाँ लगवाई थीं, जिससे वे पुनः युवावस्था का सुख प्राप्त कर सकें। पर अब विज्ञान इससे बहुत अधिक उन्नति कर गया है। रूस के वैज्ञानिकों ने दीर्घजीवन की समस्या पर बहुत विचार किया है और इसके परिणामस्वरूप वहाँ के निवासियों की औसत आयु जो सन् 1923 में 44 वर्ष थी, 1963 में 70 वर्ष तक पहुँच गई। वहाँ पर यह परिवर्तन अपने आप अथवा सहज में नहीं हो गया है, वरन् इसके लिये वहाँ की सरकार और जनता दोनों में सम्मिलित रूप से बहुत अधिक प्रयत्न किया है। इसका विवेचन करते हुए वहाँ के प्रो. उरलानिस ने लिखा है-

“सोवियत संघ में लोगों की जीवनावधि बढ़ाने के लिये हुए सम्भव प्रयास किया जा रहा है। मनुष्य के हित में उसके जन्म से ही इस सम्बन्ध में कार्य आरम्भ हो जाता है। देश के समस्त डडडड महिलाओं के ऐसे हजारों स्वास्थ्य केन्द्र हैं, जो गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं। प्रायः सभी बच्चों का जन्म प्रसूति-अस्पतालों में होता है। सोवियत-संघ में 5 लाख से अधिक डाक्टर जनता के स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं। रूस की जनसंख्या समस्त संसार की आबादी का 1।14 है, पर डाक्टरों की संख्या वहाँ पर 1। 4 है। इसको यों भी समझा जा सकता है कि रूस में जहाँ दस हजार व्यक्तियों पर 23 डाक्टर हैं, वहाँ पश्चिमी जर्मनी और अमरीका जैसे प्रसिद्ध और विकसित देशों में इतनी ही संख्या पर केवल 20 डाक्टर हैं। अन्य देशों में तो उनकी तादाद 10 या 5 प्रति दस हजार ही है।

जन-जीवन में वृद्धि होने का एक कारण संक्रामक रोगों में रोक लगाना भी है। पहले जहाँ हैजा, प्लेग, इन्फ्ल्यूऐन्जा, मलेरिया आदि फैलने पर हजारों व्यक्ति उनके शिकार हो जाते थे और गाँव तथा कस्बे खाली हो जाते थे, वहाँ अब इनकी रोक-थाम पहले से ही टीका लगाकर की जाती है और बीमारों को विशेष इलाज द्वारा बचा लिया जाता है। सोवियत संघ में इस संबंध में काफी ध्यान दिया गया है। इसके सिवाय वहाँ लोगों के रहन-सहन की परिस्थितियों को ऊँचा उठाने का भी बहुत प्रयत्न किया जाता है। वहाँ हर वर्ष लाखों नये घर बनाये जाते हैं, जिनमें मनुष्य अधिक सुविधा और स्वच्छता के साथ रह सकते हैं।

इन प्रवृत्तियों का परिणाम यह हुआ है कि अब रूस वृद्धावस्था की धारणा ही बदल गई है। अब वहाँ 60 वर्ष की आयु को अधिक नहीं समझा जाता और 60 से 70 वर्ष के बीच की आयु अनेक व्यक्तियों के लिये बहुत अधिक क्रियाशीलता और सफलता भी सिद्ध होती है। सौ वर्ष पूर्व वहाँ अधिकाँश लोग 40-50 के बीच में मरते थे, पर अब अधिकाँश मौतें 70 और 80 के बीच में होती हैं।

स्नायुओं का इलाज-

पर रूस के वैज्ञानिक इतनी प्रगति से संतुष्ट नहीं हैं और वे अनेक विधियों से वृद्धावस्था और जीवन के क्षय होने के कारणों की खोज करके उनको दूर करने के उपाय सोच रहे हैं। ‘बाइलो विज्ञान अकादमी’ के अध्यक्ष बी. कुप्रेविच ने लिखा है कि औषधियों के द्वारा हम रोगों को अवश्य मिटा सकते हैं और हमें आशा है कि इस शताब्दी के अन्त तक अर्थात् आगामी तीस-बत्तीस वर्षों में हम समस्त बीमारियों पर विजय प्राप्त कर लेंगे, तो भी इससे दीर्घायु की समस्या हल नहीं हो सकती। अगर हम केवल दवाओं के ही भरोसे रहे तो एक समय ऐसा आयेगा, जब सब दवायें बेकार हो जायेंगी। हम दवाओं के द्वारा मनुष्य को 100 या 120 वर्ष तक जीवित रख सकते हैं, पर फिर वे दवायें उसके शरीर के साथ ऐसी एकात्म हो जायेंगी कि उनका उस व्यक्ति पर जरा भी प्रभाव न पड़ेगा।

इस संबंध में बहुत कुछ खोज-बीन करके वैज्ञानिकों ने निर्णय किया है कि मनुष्य की इच्छानुसार जब तक चाहे तब तक जीवित रहने में मुख्य कठिनाई स्नायु-व्यवस्था के कारण पड़ती है। शरीर के और सब अंगों के कोष्टों (सेलों) और जन्तुओं का तो नवीनीकरण होता रहता है, पर मस्तिष्क जैसा का तैसा रहता है और बुढ़ापे में वह बिल्कुल थक जाता है। चिकित्सा-शास्त्र के अनुसार मनुष्य के सभी अंगों में अपनी निर्माण-सामग्री की वृद्धि करने की क्षमता होती है और सात वर्ष के भीतर प्रत्येक पुराना कोष्ठ नया हो जाता है। पर यह नियम स्नायु-कोष्ठों पर लागू नहीं होता। श्री कुप्रेविच का कहना है कि हाल की खोजों से आगे चलकर ऐसा भी समय आ सकता है, जब हम स्नायु कोष्ठों को भी नया कर सकें। ऐसा हो जाने पर मनुष्य हजार वर्ष तक भी जीवित रह सकेगा। उस स्थिति को हम ‘अमरता’ के नाम से पुकार सकते हैं।

आधुनिक विज्ञान की इन खोजों को अनेक चिकित्सकों ने व्यवहारिक रूप देना आरम्भ भी कर दिया है। ज्यूरिख (स्विट्जरलैंड) के डा. फ्रैंकलिन ई. बर्चर ने गाँठों द्वारा वृद्धावस्था को रोकने वाले इलाज में सुधार करके मानव-देह में जीवित ‘हारमोन्स’ का इन्जेक्शन देने की विधि निकाली है, जिससे अभी तक कितने वृद्ध तरुणाई प्राप्त कर चुके हैं। इस इलाज के लिये रोगी को कई दिन तक एक कमरे में बिस्तर पर लिटाकर रखा जाता है। इस अवधि में उसे चिकित्सा द्वारा निर्धारित विशेष हल्के खाद्य पर रहना पड़ता है। डा. बर्चर अपनी देख-रेख में भोजन स्वयं बनवाकर रोगी के पास भिजवाते हैं। इसके पश्चात डाक्टर एक रासायनिक इन्जेक्शन लगाता है। ऐसा इन्जेक्शन प्रायः तीन दिन लगाया जाता है। इसके बाद रोगों को एक-दो दिन बिस्तर पर ही लेटे रहकर पूर्ण विश्राम करना पड़ता है। इस बीच में उसे विटामिन युक्त भारी खुराक दी जाती है। यद्यपि इस चिकित्सा का नतीजा दो-चार दिन में ही दिखलाई नहीं पड़ सकता, पर दो-चार सप्ताह में बुढ़ापे के कितने ही लक्षण मिटकर काफी शक्ति और फुर्ती आ जाती है, जो काफी समय तक स्थायी रहती है।

इस प्रकार पश्चिमी जीव-विज्ञान और चिकित्सा-विज्ञान के ज्ञाताओं ने सम्मिलित रूप से ‘चिरायु’ की समस्या को बहुत कुछ सुलझाया है। वे चाहें तो किसी भी ऐसे व्यक्ति को लेकर जिसकी आयु 60-70 वर्ष की निर्धारित मानली गई है, अपने अभी तक जाने जा सके उपायों द्वारा सौ, दो-सौ या इससे भी अधिक वर्षों तक जीवित रख सकते हैं। पर साथ ही हम यह कहने के लिये भी बाध्य हैं कि उनके समस्त उपाय पूर्णतः कृत्रिम हैं और इनके कारण वह व्यक्ति डाक्टरों पर इतना आश्रित हो जायेगा कि उनकी स्वतन्त्र-सत्ता एक प्रकार से समाप्त ही समझनी चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि ये सब उपाय और इलाज इतने व्यय साध्य है कि वर्तमान परिस्थितियों में सामान्य, आर्थिक साधनों वाला व्यक्ति उनका ख्याल भी नहीं कर सकता।

हमारे लिये ये बातें कोई अद्भुत और अनहोनी नहीं हैं। हमारे देश के चिकित्सकों तथा योगों ने बहुत प्राचीनकाल में ही सैंकड़ों वर्ष की आयु प्राप्त करने की विधियाँ ढूँढ़ निकाली थीं और उनकी विशेषता यह थी कि उनमें बाह्य साधनों की कम-से-कम आवश्यकता पड़ती थी। यह तो सच है कि प्रत्येक व्यक्ति उनको पूरा नहीं कर सकता था और न आज-कल की तरह कुछ हजार रुपया व्यय करके ही उस लाभ को प्राप्त किया जा सकता था। उस समय संयम, नियम, तपस्या ही इसके प्रधान साधन थे। जो लोग औषधि का प्रयोग करते थे, उनको भी न्यूनाधिक परिणाम में इनका पालन करना पड़ता था। इसलिये एक प्रकार से अपनी पात्रता सिद्ध करने पर ही ‘प्रकृति देवी’ और ‘आत्म-देव’ से चिरायु का वरदान प्राप्त होता था। आज-कल की खरीदी हुई ‘दीर्घायु प्रायः भोग-विलास में ही प्रयुक्त होती है।

अमृतत्व के संबंध में भारतीय साधकों का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट है। उनकी दृढ़ धारणा है कि ‘हम शरीर नहीं वरन् आत्मा हैं’ और आत्मा अमर है। शरीर आत्मा का आज्ञाकारी वाहन है। यदि हमारी आत्मा जागृत है, अपनी शक्तियों को पहचानती है और उनका प्रयोग करने की सामर्थ्य रखती है तो हम शरीर को जब तक जिस अवस्था में चाहें रख सकते हैं। निस्संदेह इस प्रकार शरीर पर स्वामित्व और नियंत्रण प्राप्त करना उच्चकोटि के मनस्वी और विवेकशील व्यक्तियों के लिये ही संभव है और यही उचित भी है। यदि ऐरे-गैरे, विषय-भोगों के कीड़े धन के बल पर दीर्घायु प्राप्त कर भी लें तो वह व्यर्थ ही है। वे जब तक जीवित रहेंगे, पृथ्वी के भार ही रहेंगे। चिरायु तो उसी की सार्थक है, जिसका जीवन स्वार्थ के लिये नहीं परमार्थ के लिये हो।


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