आध्यात्मिकता की मुसकान

January 1965

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आत्मा का स्वरूप आनन्दमय है। जिसे आत्मज्ञान हो जाता है, उसे निरन्तर आनन्दित ही देखा जा सकता है। आध्यात्मिकता का दूसरा नाम है- प्रसन्नता। जो प्रसन्न नहीं रह सकता उसने न आत्मा को जाना और न ईश्वर को। शोक संतप्त, उद्विग्न और विक्षुब्ध व्यक्ति तो अनात्म तत्वों के वाहन मात्र है। जो क्रोध से झल्लाया करता है, जिसे खीज़ और आवेश का बार-बार शिकार होना पड़ता है उसकी आस्तिकता संदिग्ध ही मानी जायेगी।

इस संसार में सब कुछ हँसने को लिए उपजाया गया है। जो बुरा और अशुभ है वह हमारी प्रखरता की चुनौती के रूप में है। परीक्षा के प्रश्न पत्रों के देखकर जो छात्र रोने लगे, उसे अध्ययनशील नहीं माना जा सकता। जिसने थोड़ी-सी आपत्ति-असफलता एवं प्रतिकूलता को देखकर रोना-धोना शुरू कर दिया, उसकी आध्यात्मिकता पर कौन विश्वास कर सकता है? प्रतिकूलता हमारा साहस बढ़ाने, धैर्य को मजबूत करने और सामर्थ्य को विकसित करने आती है। सरल जिन्दगी यदि संयत हो सके तो वह सबसे भद्दे ढंग की ही होगी क्योंकि वह जो सरलता पूर्वक दिन गुजारता रहता है उसमें न तो किसी प्रकार की विशेषता रह जाती है और न प्रतिभा। संघर्ष के बिना भी भला कहीं, इस दुनिया में किसी का जीना सम्भव हुआ है।

नई उपलब्धियों में हमें हँसना चाहिए, अब तक मिल चुका उससे सन्तोष व्यक्त करना चाहिए और भविष्य की शुभ सम्भावनाओं की कल्पना करके सदा प्रमुदित होते रहना चाहिए। रोना एक अभिशाप है जो केवल अविवेकी लोगों को शोभा देता है। जिसे आत्मा के स्वरूप का ज्ञान है और परमात्मा की महत्ता, कुशलता और विनोद को समझता है उसे हँसने मुस्कराने की परिस्थितियों के अतिरिक्त और कुछ इस जीवन में अनुभव ही क्या हो सकता है?

-महर्षि रमण


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