युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति

January 1965

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उत्तराधिकार और प्रतिनिधित्व का प्रयोजन

नवम्बर और दिसम्बर की अखण्ड-ज्योति में इसी स्तम्भ के अंतर्गत ‘प्रतिनिधियों की नियुक्ति’ वाली योजना छपी है। प्रसन्नता की बात है कि परिजनों ने उसे गम्भीरता-पूर्वक समझा और ग्रहण किया है। बात सचमुच ऐसी है भी कि उस पर विचार करना हर सदस्य के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।

‘अखण्ड-ज्योति’ छपे कागजों का व्यापार नहीं है। न उसके पाठक इस तरह के मनचले लोग ही है कि मनोरंजन के लिए, खाली समय काटने के लिये कुछ भी पढ़ते रहने की तरह इस पत्रिका को मँगाते हों। हमने विशेष प्रयत्न और मनोयोगपूर्वक पिछले पच्चीस वर्ष के परिश्रम से इस विशाल जनसमुद्र में से थोड़े से मोती चने हैं। वे ही अखण्ड-ज्योति के सदस्य हैं। जिनकी अन्तरात्मा में पूर्व जन्मों की संग्रहीत उत्कृष्टता मौजूद है, जिन्होंने इस जन्म में भी अपनी अन्तरात्मा को परिष्कृत किया है - जिनके सामने मानव-जीवन की महत्ता और उसकी सार्थकता का प्रश्न उपस्थित रहता है-ऐसे ही लोग इस परिवार के सदस्य बन सके हैं और इन प्रबुद्ध आत्माओं की अन्तःप्रेरणा को जागृत एवं समुन्नत बनाने के लिए एक उपयुक्त साधन के रूप में “अखण्ड-ज्योति” अपना अस्तित्व बनाये हुए है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये वह जीवित है

जागृत आत्माओं का चुनाव

जागृत आत्माओं को ढूंढ़ने और संग्रह करने में हमको ‘अखण्ड-ज्योति’ के 25 वर्ष पूरे हो गये। अब उसे दूसरे कदम उठाने हैं। जिन विचारों का पिछले वर्षों में प्रचार किया जाता रहा है अब उन्हें मूर्त रूप देने के लिये ठोस गतिविधियाँ अपनानी हैं, और रचनात्मक कार्य खड़े करने हैं। यह सब हम अकेले ही न कर लेंगे, प्रस्तुत योजना की पूर्ति के लिए अनेक सहचरों का श्रम एवं मनोयोग आवश्यक होगा। ऐसे लोग कौन हो सकते हैं, यही चुनावक्रम इन दिनों चल रहा है। तीस हजार अखण्ड-ज्योति सदस्यों में से सभी इतने उत्साही और निष्ठावान नहीं हैं जिन पर इतना भार डाला जा सके कि वे इस मिशन को गतिशील बनाये रहने के लिये हमारी ही तरह कुछ करने के लिये कटिबद्ध हो जाएँ। यों परिवार के सभी परिजन, अखण्ड ज्योति के प्रायः सभी सदस्य अपनी आध्यात्मिक विशेषताओं से सम्पन्न हैं। पर बड़े उत्तरदायित्व संभालने की क्षमता हर किसी में नहीं हैं। बूढ़ा बाप, परिवार के बड़े लड़कों को गृह व्यवस्था चलाने का उत्तरदायित्व सौंपता है, इसको अर्थ यह नहीं कि घर के शेष सब लोगों का महत्व कम है। आगे चलकर छोटे बच्चे भी होनहार हो सकते हैं-वे बूढ़े बाप से भी अधिक योग्य सिद्ध हो सकते हैं, पर आज तो जो भी कंधे पर बोझ ढोने की क्षमता रखते होंगे, उन्हें ही कार्यभार सौंपा जाएगा

उत्तराधिकार का पात्रत्व

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों में से जिन विशिष्ट परिजनों का हम अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुनाव कर रहे हैं, उनमें प्रमुख गुण यही होना चाहिए कि अपनी ही उलझनों तक सुलझे रहने में सीमित न रखकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” की प्रवृत्ति को समुचित मात्रा में धारण किए हुए हों। घर का बड़ा वही कहलाता है जो अपने छोटे भाई बहिनों, अशक्त असमर्थों का भी पूरा ध्यान रखे। ऐसे ही गृहपति प्रशंसनीय कहे जाते हैं और वे ही उसे कुटुम्ब का ठीक तरह पालन पोषण कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी निजी इच्छाओं, कामनाओं को ही सर्वोपरि स्थान देता हो और उतनी ही परिधि में सोचता विचारता हो, ऐसे स्वार्थी के हाथ में यदि बूढ़े पिता का उत्तरदायित्व आ जाय तो घर के छोटे लोगों को क्या प्रसन्नता होगी ? वे सब घाटे में ही रहेंगे और संकट में ही पड़ेंगे। बूढ़ा बाप भी इतना समझदार तो होता ही है कि जिसे अपना उत्तरदायित्व सौंपे, उसमें स्वार्थपरता की मात्रा कम ही होनी चाहिए।

उपासना की दृष्टि से कई लोग काफी बढ़े-चढ़े होते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि जहाँ दूसरे लोग भगवान् को बिल्कुल ही भूल बैठे हैं वहाँ वह व्यक्ति ईश्वर का स्मरण तो करता है, औरों से तो अच्छा है। इसी प्रकार जो बदमाशियों से बचा है, अनीति और अव्यवस्था नहीं फैलाता, संयम और मर्यादा में रहता है, वह भी भला है। उसे बुद्धिमान कहा जायगा क्योंकि दुर्बुद्धि को अपनाने से जो अगणित विपत्तियाँ उस पर टूटने वाली थीं, उनसे बच गया। स्वयं भी उद्विग्न नहीं हुआ और दूसरों को भी विक्षुब्ध न करने की भलमनसाहत बरतता रहा। यह दोनों ही बातें अच्छी हैं- ईश्वर का नाम लेना और भलमनसाहत से रहना एक अच्छे मनुष्य के लिये योग्य कार्य हैं। उतना तो हर समझदार आदमी को करना ही चाहिए था। जो उतना ही करता है उसकी उतनी तो प्रशंसा ही की जायगी कि उसने अनिवार्य कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं की और दुष्ट दुरात्माओं की होने वाली दुर्गति से अपने को बचा लिया।

अध्यात्म की प्रधान कसौटी

किन्तु किसी व्यक्ति की महानता के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। महामानवों में एक अतिरिक्त गुण होता है और वह है परमार्थ। दूसरों को दुखी या अधःपतित देखकर जिसकी करुणा विचलित हो उठती है, जिसे औरों की पीड़ा अपनी पीड़ा की तरह कष्टकर लगती है, जिसे दूसरों के सुख में अपने सुख की आनन्दमयी अनुभूति होती है, वस्तुतः वही महामानव, देवता, ऋषि, सन्त, ब्राह्मण, अथवा ईश्वर-भक्त है। निष्ठुर व्यक्ति, जिसे अपनी खुदगर्जी के अतिरिक्त दूसरी बात सूझती ही नहीं, जो अपनी सुख सुविधा से आगे की बात सोच ही नहीं सकता ऐसा अभागा व्यक्ति निष्कृष्ट कोटि के जीव जन्तुओं की मनोभूमि का होने के कारण तात्विक दृष्टि से ‘नर-पशु’ ही गिना जायगा। ऐसे नर-पशु कितना भजन करते हैं, कितना ब्रह्मचर्य रहते है, इसका कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता। भावनाओं का दरिद्र व्यक्ति ईश्वर के दरबार में एक कोढ़ी कंगले का रूप बनाकर ही पहुँचेगा। उसे वहाँ क्या कोई मान मिलेगा ? भक्ति का भूखा, भावना का लोभी भगवान् केवल भक्त की उदात्त भावनाओं को परखता है और उन्हीं से रीझता है। माला और चन्दन, दर्शन और स्नान उसकी भक्ति के चिह्न नहीं, हृदय की विशालता और अन्तःकरण की करुणा ही किसी व्यक्ति के भावनाशील होने का प्रमाण है और ऐसे ही व्यक्ति को, केवल ऐसे ही व्यक्ति को ईश्वर के राज्य में प्रवेश पाने का अधिकार मिलता है।

हमें अपने परिवार में से अब ऐसे ही व्यक्ति ढूंढ़ने हैं जिन्होंने अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप समझ लिया हो और जीवन की सार्थकता के लिए चुकाए जाने वाले मूल्य के बारे में जिन्होंने अपने भीतर आवश्यक साहस एकत्रित करना आरम्भ कर दिया हो। हम अपना उत्तराधिकार उन्हें ही सौंपेंगे। बेशक, धन-दौलत की दृष्टि को कुछ भी मिलने वाला नहीं है, हमारे अन्तःकरण में जलने वाली आग की एक चिंगारी ही उनके हिस्से में आवेगी पर वह इतनी अधिक मूल्यवान है कि उसे पाकर कोई भी व्यक्ति धन्य हो सकता है।

खरे खोटे की कसौटी

जिनकी दृष्टि से विराट् ब्रह्म की उपासना का वास्तविक स्वरूप विश्व-मानव की सेवा के रूप में आ गया हों वे हमारी कसौटी पर खरे उतरेंगे। जिनके मन में अपनी शक्ति सामर्थ्य का एक अंश पीड़ित मानवता को ऊँचा उठाने के लिये लगाने की भावना उठने लगी हो उन्हीं के बारे में ऐसा सोचा जा सकता है कि मानवीय श्रेष्ठता की एक किरण उनके भीतर जगमगाई है। ऐसे ही प्रकाश पुँज व्यक्ति संसार के देवताओं में गिने जाने योग्य होते हैं। उन्हीं के व्यक्तित्व का प्रकाश मानव-जाति के लिये मार्ग-दर्शक बनता हैं। उन्हीं का नाम इतिहास के पृष्ठों पर अजर अमर बना हुआ हैं। प्रतिनिधियों के चुनाव में हम अपने परिवार में से इन्हीं विशेषताओं से युक्त आत्माओं की खोज कर रहे हैं। हमारे गुरुदेव ने हमें इसी कसौटी पर कसा और जब यह विश्वास कर लिया कि प्राप्त हुई आध्यात्मिक उपलब्धियों का उपयोग यह व्यक्ति लोक कल्याण में ही करेगा तब उन्होंने अपनी अजस्र ममता हमारे ऊपर उड़ेली और अपनी गाढ़ी कमाई का एक अंश प्रदान किया। वैसा ही पात्रत्व का अंश उन लोगों में होना चाहिए जो हमारे उत्तराधिकारी का भार ग्रहण करें।

उपहासास्पद ओछे दृष्टिकोण-

यों ऐसे भी लोग हमारे संपर्क में आते हैं जो ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिए कुण्डलिनी जागरण, चक्र जागरण और न जाने क्या-क्या आध्यात्मिक लाभ चुटकी मारते प्राप्त करने के लिए अपनी अधीरता व्यक्त करते हैं। ऐसे लोग भी कम नहीं जो ईश्वर दर्शन से कम तो कुछ चाहते ही नहीं और वह भी चन्द घण्टों या मिनटों में। भौतिक दृष्टि से अगणित प्रकार के लाभ प्राप्त करने के लिए लालायित, अपनी दरिद्रता और विपन्न स्थिति से छुटकारा पाने की कामना से इधर-उधर भटकते लोग भी कभी-कभी मन्त्र-तन्त्र की तलाश में इधर आ निकलते हैं। इन दीन दुखियों की जो सहायता बन पड़ती है वह होती भी है। इस कटौती पर इस प्रकार के लोग खोटे सिक्के ही माने जा सकते है। अध्यात्म की चर्चा वे करते हैं पर पृष्ठभूमि तो उसकी होती नहीं। ऐसी स्थिति में कोई काम की वस्तु उनके हाथ लग भी नहीं पाती, पवित्रता रहित लालची व्यक्ति जैसे अनेक मनोरथों का पोट सिर पर बाँधे यहाँ वहाँ भटकते रहते हैं, ठीक वही स्थिति उनकी भी होती है। मोती वाली सीप में ही स्वाति बूँद का पड़ना मोती उत्पन्न करता है। अन्य सीपें स्वाति बूँदों का कोई लाभ नहीं उठा पातीं। उदात्त आत्माएँ ही अध्यात्म का लाभ लेती हैं। उन्हें ही ईश्वर का अनुग्रह उपलब्ध होता हैं। और उस उदात्त अधिकारी मनो-भूमि की एकमात्र परख है मनुष्यत्त्व में करुणा विगलित एवं परमार्थी होना। जिसके अंतःकरण में यह तत्व नहीं जगा, उसे कोल्हू के बैल तरह साधना पथ का पथिक तो कहा जा सकता है पर उसे मिलने वाली उपलब्धियों के बारे में निराशा ही व्यक्त की जा सकती है।

अखण्ड-ज्योति परिवार में पचास सौ ऐसे व्यक्ति भी आ फँसते है जो पत्रिका को कोई जादू, मनोरंजन आदि समझते हैं, कोई आचार्यजी को प्रसन्न करने के लिए दान स्वरूप खर्च करके उसे मँगा लेते हैं। विचारों की श्रेष्ठता और शक्ति की महत्ता से अपरिचित होने के कारण वे उसे पढ़ते भी नहीं। ऐसे ही लोग आर्थिक तंगी, पढ़ने की फुरसत न मिलने आदि का बहाना बना कर उसे मँगाना बन्द करते रहते है। यह वर्ग बहुत ही छोटा होता हैं, इसलिए उसे एक कौतूहल की वस्तु मात्र ही समझ लिया जाता है। अधिकाँश पाठक ऐसे है जो विचारों की शक्ति को समझते हैं और एक दो दिन भी पत्रिका लेट पहुँचे तो विचलित हो उठते हैं। न पहुँचने की शिकायत तार से देते हैं। ऐसे लोगों को ही हम अपना सच्चा परिजन समझते हैं। जिनने विचारों का मूल समझ लिया केवल वे ही लोग इस कठिन पथ पर बढ़ चलने में समर्थ हो सकेंगे। जिन्हें विचार व्यर्थ मालूम पड़ते हैं और एक-दो माला फेर कर आकाश के तारे तोड़ना चाहते हैं उनकी बाल-बुद्धि पर खेद ही अनुभव किया जा सकता है।

परीक्षा की वेला आ गई-

पिछले दो अंक पढ़कर पाठक वस्तुस्थिति को समझ गये होंगे। हम अपना उत्तरदायित्व उन कन्धों पर सौंपने जा रहे है जो उसके लिए उपयुक्त हों। युग परिवर्तन की इस सन्धि वेला में आध्यात्मिक व्यक्तियों पर ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी आई है। वे उसे पूरा करने में प्रमाद बरतेंगे तो ईश्वर उन्हें कभी क्षमा न करेगा। स्वर्ग, मुक्ति, ऋद्धि, सिद्धि साक्षात्कार, कुण्डलिनी एवं लौकिक सुख-सुविधाओं के लिए नहीं इन दिनों हर सच्चे अध्यात्मवादी की साधना देशधर्म, समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए होनी चाहिए। उसी के उपयुक्त अपने विचारों और कार्यक्रमों को ढालने के लिए हर आध्यात्मिक व्यक्ति को कटिबद्ध होना चाहिए।

साल में एक बार छात्रों की परीक्षा होती है, उस पर उनके आगामी वर्ष का आधार बनता है। प्रबुद्ध आत्माओं की परीक्षा का भी कभी-कभी समय आया करता है। त्रेता में दूसरे लोग कायरताग्रस्त हो चुप हो बैठे थे, तब रीछ बन्दरों ने वह परीक्षा उत्तीर्ण की थी। द्वापर में पाँच पाण्डवों ने भगवान का मनोरथ पूरा किया था। पिछले दिनों गुरु गोविन्दसिंह के साथी सिखों ने और समर्थ गुरु रामदास के शिवाजी आदि मराठा शिष्यों ने ईश्वर भक्ति की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। गायत्री की पुकार पर भी कितनों ने ही अपनी श्रेष्ठता का परिचय दिया था। नव-निर्माण की ऐतिहासिक वेला में अब फिर प्रबुद्ध तेजस्वी, जागृत और उदात्त आध्यात्मिक भूमिका वाले ईश्वर भक्तों की पुकार हुई है। समय आने पर दूध पीने वाले मजनुओं की तरह हमें आंखें नहीं चुरानी चाहिए। यह समय ईश्वर से नाना प्रकार के मनोरथ पूरे करने के लिए अनुनय विनय करने का नहीं, वरन् उसकी परीक्षा कसौटी पर चढ़कर खरे उतरने का है। युग की पुकार ईश्वर की इच्छा का ही सन्देश लेकर आई है। माँगने की अपेक्षा देने का प्रश्न सामने उपस्थित किया है और अपनी भक्ति एवं आध्यात्मिकता को खरी सिद्ध करने की चुनौती प्रस्तुत की है। इस विषम बेला में हमें विचलित नहीं होना है वरन् श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ना है।

जिनमें साहस हो आगे आवें-

हमारा निज का कुछ भी कार्य या प्रयोजन नहीं है। मानवता का पुनरुत्थान होने जा रहा है। ईश्वर उसे पूरा करने वाले हैं। दिव्य आत्माएँ उसी दिशा में कार्य कर भी रही हैं। उज्ज्वल भविष्य की आत्मा उदय हो रही है, पुण्य प्रभाव का उदय होना सुनिश्चित है। हम चाहे तो उसका श्रेय ले सकते हैं और अपने आपको यशस्वी बना सकते हैं। देश को स्वाधीनता मिली, उसमें योगदान देने वाले अमर हो गये। यदि वे नहीं भी आगे आते तो भी स्वराज्य तो आता ही वे बेचारे और अभागे मात्र बनकर रह जाते। ठीक वैसा ही अवसर अब है। बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति अवश्यम्भावी है। उसका मोर्चा राजनैतिक लोग नहीं धार्मिक कार्यकर्त्ता संभालेंगे। यह प्रक्रिया युग-निर्माण योजना के रूप में आरम्भ हुई है। हम चाहते हैं इसके संचालन का भार मजबूत हाथों में चला जाए। ऐसे लोग अपने परिवार में जितने भी हों, जो भी हों, जहाँ भी हों, एकत्रित हो जाएँ और अपना काम सँभाल लें। उत्तर-दायित्व सौंपने की, प्रतिनिधि नियुक्त करने की योजना के पीछे हमारा यही उद्देश्य है।


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