शुभ-संस्कार संचित कीजिये

January 1965

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जैसा मनुष्य का स्वभाव होता है उसी के अनुरूप उसकी मनोदशा बनती रहती है और जब वही आदत अपने जीवन का अंग बन जाती है तो उसे संस्कार मान लेते हैं। शराब पीना प्रारम्भ में एक छोटी सी आदत दीखती है किन्तु जब वही आदत गहराई तक जक जाती है, तो शराब के सम्बन्ध में अनेकों प्रकार की विचार रेखायें मस्तिष्क में बनती चली जाती हैं जो एक स्थिति समाप्त हो जाने पर भी प्रेरणा के रूप में मस्तिष्क में उठा करती हैं। जैसे कोई कामुक प्रवृत्ति का मनुष्य स्वास्थ्य सुधार या किसी अन्य कारण से प्रभावित होकर ब्रह्मचर्य रहना चाहता है। इसके लिये वह तरह-तरह की योजनायें और कार्यक्रम भी बनाता है तो भी उसके पूर्व जीवन के कामुक विचार उठने से रुकते नहीं और वह न चाहते हुये भी उस प्रकार के विचारों और प्रभाव से टकराता रहता है।

यह संस्कार जैसे भी बन जाते है वैसा ही मनुष्य का व्यवहार होगा। यहाँ यह न समझना चाहिये कि यदि पुराने संस्कार बुरे पड़ गये हैं, विचारों में केवल हीनता भरी है, तो मनुष्य सद्व्यवहार नहीं कर सकता। यदि पूर्व जीवन के कुसंस्कार जीवन सुधार में किसी प्रकार का रोड़ा अटकाते है तो भी हार नहीं माननी है। चूँकि अब तक अच्छे कर्म नहीं किये थे इसलिये यह पुराने कुविचार परेशान करते हैं किन्तु यदि अब विचार और व्यवहार में अच्छाइयों का समावेश करते हैं तो यही एक दिन हमारे लिए शुभ संस्कार बन जायगा। तब यदि कुकर्मों की ओर बढ़ना चाहेंगे तो एक जबर्दस्त प्रेरणा अन्तःकरण में उठेगी और हमें बुरे रास्ते में भटकने से बचा लेगी।

महर्षि वाल्मीकि, सन्त तुलसीदास, भिक्षु अंगुलिमाल, गणिका, अजामिल आदि अनेकों कुसंस्कारों में ग्रसित व्यक्ति भी जब सन्मार्ग पर चलने लगे तो उनका जीवन पुण्यमय, प्रकाशमय बन गया। मनुष्य संस्कारों का गुलाम हो जाय, अपने स्वभाव में परिवर्तन न कर सके, यह असम्भव नहीं है। मनुष्य के विचार गीली मिट्टी और संस्कार उस मिट्टी से बने बर्तन के समान होते है। पिछले कुसंस्कारों का बड़ा तोड़कर नये विचारों की मिट्टी से नव-जीवन घट का निर्माण कर सकते हैं। इसमें राई-रत्ती भर भी सन्देह न करना चाहिये।

मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि आत्म विश्लेषण और आत्मनिरीक्षण द्वारा इन दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। आत्म विश्लेषण का अर्थ है प्रवृत्तियों के मूल कारण की तलाश करना। अर्थात् द्वेषपूर्ण भावनायें जिस आधार पर उठीं, उस आधार को ढूँढ़ना और उसे नष्ट करना। आत्म निरीक्षण का अर्थ है अपने विचारों और कार्यों की न्यायपूर्ण समीक्षा करना। बुराइयाँ पक्षपातपूर्ण विचार पद्धति के कारण ही उठती हैं। मनुष्य की यह सबसे बड़ी भूल है कि वह जिस वस्तु को चाहता है उसे किसी न किसी भूमिका के साथ टिका देता है। इसी को विचार और कार्यों का पक्षपात कहते हैं। जैसे बीड़ी, सिगरेट, या अन्य कोई मादक पदार्थ सेवन करने वालों की हमेशा यह दलील रहती है कि उससे उन्हें शान्ति मिलती है या मानसिक तनाव दूर होता है। कई तो यहाँ तक कहते हैं बीड़ी सिगरेट न पियें तो पाचन क्रिया ठीक प्रकार काम नहीं करती। पर यदि कठोरतापूर्वक विचार करें तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि शराब, सिगरेट के पक्ष में जो दलीलें देते रहते हैं वे सर्वथा निस्सार हैं। यह तो मन बहलाव के लिए गढ़ी बातें हैं। वस्तुतः उनसे मानसिक परेशानियाँ तथा स्वास्थ्य और पाचन प्रणाली में शिथिलता ही आती है।

अपने गुण और दोष देखने में जब तक ईमानदारी और सच्चा दृष्टिकोण नहीं अपनाते संस्कार परिवर्तन में तभी तक परेशानी रहती है। मनुष्य आत्म दुर्बल तभी तक रहता है जब तक वह आत्म विवेचन का सच्चा स्वरूप ग्रहण नहीं करता। झूठे प्रदर्शनों और स्वार्थपूर्ण आचरण के कारण ही जीवन में परेशानियाँ आती हैं। सच्चाई की मस्ती ही अनुपम है। उसकी एक बार जो क्षणिक अनुभूति कर लेता है वह उसे जीवनपर्यन्त छोड़ता नहीं। सत्य मनुष्य को ऊँचा उठाता है, साधारण स्थिति से उठाकर परमात्मा के समीप पहुँचा देता है। सत् संस्कारों का बल, कुसंस्कारों की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक होता है किन्तु कुसंस्कारों में जो क्षणिक सुख और तृप्ति दिखाई देती है उसी के कारण लोग दुष्कर्मों की ओर बड़ी जल्दी खिंच जाते हैं। अतएव जब कभी ऐसे अनिष्टकारी विचार मस्तिष्क में उठें तब उनसे भागने या शीघ्र निर्णय का प्रयत्न करना चाहिए। किसी बुराई से डरने या भागने से वह जीवन का अंग बन जाती हैं किन्तु जब विचारों में मौलिक परिवर्तन करते हैं और बुराई की गहराई तक छान-बीन करते हैं तो अन्तःकरण की दिव्य ज्योति के समक्ष सच और झूठ की स्वतः अभिव्यक्ति हो जाती है। लोग बुराइयों से सावधान हो जाते हैं। आत्मनिरीक्षण के साथ विचार पद्धति शुभ संस्कार बढ़ाने का दूसरा उपाय है। इसके लिये यह आवश्यक है कि जो भी व्यवसाय करें पहले उस पर अथ से इति तक विचार कर लें और यदि वह वस्तु उपयोगी दिखाई दे तो उसे प्रयत्नपूर्वक अपने जीवन में धारण करें, अन्यथा उसे त्याग दें।

आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत्म परिष्कार का जमा-खाता भी होना चाहिये। बचत का ठीक-ठीक अनुमान तभी लग सकता है। यदि अपनी जमा अधिक है तो आप सुसंस्कार बढ़ा रहे है। खर्च की अधिकता आप के संस्कारों का दीवालियापन प्रकट करती है। संस्कारों रुची धन एकत्रित करने के लिये सदाचरण की पूँजी बढ़ाना नितान्त आवश्यक है।

जब तक गम्भीरता से आत्म विवेचन का कार्यक्रम नहीं बनाते तब तक गुण, कर्म और स्वभाव में परिवर्तन लाना आसान नहीं रहता। उदाहरण के लिये इस प्रकार विचार कीजिये- “मान लीजिये आप तम्बाकू पीते हैं। दिन भर में चार आने की तम्बाकू पी लेते हैं। एक माह में साढ़े सात रुपये के हिसाब से प्रति वर्ष आप 90 रुपये की तम्बाकू पी जाते है और लाभ क्या होता है? आपके शरीर में निकोटीन विष भरता चला जाता है जो कभी-कभी कैन्सर का कारण बन सकता है। सरदर्द, अपच, आँखों की शक्ति का कमजोर होना, वीर्य रोग, दन्त रोग, आदि कितनी व्याधियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। इससे अपना और अपने बाल-बच्चों और समाज का कितना बड़ा अहित होता है”। आप जब इस प्रकार गहराई से विचार करने का अभ्यास प्रारम्भ करेंगे तो विश्वास कीजिये आपके जीवन में कितनी ही बुराइयाँ, क्यों न जड़ जमा चुकी हों, उन्हें आज नहीं तो कल अपना बोरिया बिस्तर बाँधना ही पड़ेगा।

=कोटेशन===========================

न पिशाचा न रक्षाँसि न दैत्या न च शत्रवः। न च व्याघ्र भुजंगा वा द्विषन्ति शम शालिनम्॥

-योग वाशिष्ठ

जिसने अपने मन का शमन कर लिया उससे पिशाच, राक्षस, दैत्य, शत्रु, व्याघ्र, भुजंग आदि कोई भी बैर नहीं करते।

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तात्पर्य यह है कि आप जिस कार्य के लिये भी पूर्ण रुचि लगन और तत्परता के साथ काम करेंगे उसमें सफलता अवश्य मिलेगी। बुराइयों से बचाव और अच्छाइयों को धारण करने के लिये अपनी संपूर्ण चेष्टाओं को एकत्रित करके ही कुछ कार्यक्रम चलाये जा सकते है उन्हीं से स्थायी लाभ मिलता है।

अपने जीवन में अशुभ संस्कारों के निवारण के लिए स्मृतियों, अनुभवों और आदतों का विश्लेषण करना चाहिए ताकि वस्तुस्थिति का सच्चा ज्ञान मिले। मनुष्य प्रायः अज्ञान में ही बुराइयाँ करता है। इसलिए वह दुख भी पाता है। बुरे संस्कारों का परिणाम भी सदैव दुःखदाई ही होता है। इसलिए बुराई त्याग करने के लिए साहस और धैर्य का आत्म विवेचन करते रहना चाहिए।

शुभ संस्कारों के परिणाम सदैव सुखकर ही होते हैं। इन्हीं से मनुष्य का सच्चा आध्यात्मिक विकास होता है। व्यक्तिगत सुख और सामाजिक सुव्यवस्था का आधार भी यही है। अतएव अपने जीवन में शुभ संस्कारों का संचय और अशुभ-संस्कारों के निष्कासन का अभ्यास करते रहना चाहिए।


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