विवाह एक व्रत है- एक संकल्प भी।

January 1965

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मनुष्य जीवन की पूर्णता पाणिग्रहण-संस्कार के बाद प्रारम्भ होती है। जब तक मनुष्य अकेला रहता है, तब तक वह अपूर्ण रहता है, उसका जीवन स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों में ही बीतता है। नैतिक जीवन के जो संस्कार मनुष्य में बाल्यावस्था में पड़ते है उनका विकास गृहस्थ जीवन में ही होता है। प्रेम और निष्ठा, तप और त्याग, श्रम और पालन, शील और सहिष्णुता आदि सद्गुणों का उन्नयन पूर्ण रूप से गृहस्थ जीवन में ही होता है। गृहस्थी मनुष्य की सर्वांगपूर्णता का विद्यालय है और विवाह उसका प्रवेश। जिस प्रकार शिक्षा की प्रारम्भिक नींव विद्यार्थी के लिये अधिक महत्वपूर्ण होती है उसी प्रकार गृहस्थ जीवन के सुचारु संचालन के लिये विवाह की परम्परा भी बड़े महत्व की होती है। इस उद्देश्य की स्मृति दिलाने के लिये वेद ने पाणिगृहीत पुरुष से कहाया है-

गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मयापत्या जरदष्टिर्यथासः। भगोऽर्य्यमा सविता पुरन्धिर्मह्मं त्वादुर्गार्हपत्या देवाः॥

“हे प्रियतमे! जीवन के इस पुण्य पर्व पर मैं देवताओं की सुखद साक्षी में तुम्हारा हाथ अपने में लेता हूँ। हे सुहागिनि! तुम चिरकाल तक मेरे साथ सौभाग्यशालिनी बन कर रहो। मैं अपनी गृहस्थी का संचालन तुम्हारे हाथ में देता हूँ, सुखपूर्वक इसका निर्वाह करो।”

वह समय सचमुच कितना सुखद होता है, जब मनुष्य देवताओं की साक्षी में उपर्युक्त व्रत धारण करता है। मनुष्य का एकाकीकरण उसकी उदासीनता समाप्त होती है और एक ऐसे जीवन का सूत्रपात होता है जिसमें वह अपने जीवन-ध्येय की प्राप्ति के सभी साधन प्राप्त कर लेता है।

उस दिन मनुष्य का क्षेत्र विभाजन होता है। पुरुष आजीविका और उदर पोषण के सात्विक कर्मों में लगता है और स्त्री गृह कार्य सम्भालती है। इन कार्यों में विवेक, सत्यनिष्ठा और विचार से ही गृहस्थ जीवन सफल होता है। रस्म के रूप में केवल भाँवरें डालकर अस्त−व्यस्त गृहस्थ जीवन बिताना भारतीय परम्परा के सर्वथा प्रतिकूल है। हमारे सिद्धांत ऐसे है जिनमें विवाह जीवन की अग्नि परीक्षा का प्रारम्भ है अतः इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से ही गृहस्थ जीवन सार्थक हो सकता है।

त्याग और तपस्या की यह भूमिका भी बड़ी सुखदायी होती है। मनुष्य यदि विवाह काल में किये गये संकल्पों का पालन करता रहे तो सचमुच गृहस्थ जीवन में स्वर्गीय सुख का वातावरण उत्पन्न कर सकता है। पत्नी साक्षात् लक्ष्मी स्वरूप होती है। इस धन, इस लक्ष्मी के अभाव में मनुष्य का जीवन नीरस व निष्प्राण ही बना रहता है। प्रणयी का यह कथन किसी भाँति असत्य नहीं कि-

असोऽमस्मि मात्वं मात्वमस्यमोऽहम्।

सामाहमस्मि ऋक् त्वं द्यौरहं पृथ्वी त्वम्॥

“तुम लक्ष्मी हो। मैं तुम्हारे बिना दीन था। सत्य ही तुम्हारे बिना उस जीवन में कुछ भी सुख न था। सौम्ये! हमारा सम्मिलन साम और उसकी ऋचा, धरती और आकाश के समान है। “

उपर्युक्त शब्दों में सृष्टा ने विवाह की सबसे महत्वपूर्ण व्याख्या की है। विवाह का प्रश्न किसी व्यक्ति का प्रश्न नहीं वह सम्पूर्ण समाज से सम्बद्ध है। इसलिये उन विवाहों को, जो व्यक्ति और समाज के हित को विचार करके न किये गये हों, दोषयुक्त ही मानना चाहिए।

सुख प्राप्ति की आकांक्षा केवल भोग-विलास से पूरी नहीं होती। मनुष्यत्व का विकास भोग से नहीं संयम से होता हैं। इसलिये विवाह का हेतु भी भोगेच्छा की पूर्ति नहीं हो सकती। राष्ट्र की सम्पत्ति, श्रेष्ठ नागरिकों के जन्म देने के लिए संयमित जीवन जीने की जो शर्त लगा दी गई है, उससे विवाह का हेतु भोग-विलास कदापि नहीं हो सकता। विवाह एक संकल्प है जो राष्ट्र के भावी बल सत्ता और सम्मान को जागृत रखने के लिये लिया जाता है।

शास्त्रकार का कथन है :-

तावेहि विवहावहै सह रेतो दधावहै।

प्रजाँ प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहै बहून्॥

अर्थात् “विवाह का उद्देश्य परस्पर प्रीति युक्त रह कर राष्ट्र को सुसन्तति देना है।” ऐसी परम्परा को जीवित रखने के लिये ही “पाणिग्रहण” को संस्कार का रूप दिया जाता है। किंतु आज जो पद्धति अपनाई जा रही है उसमें बहुधा कोई उद्देश्य नहीं होता। बाल-विवाह की प्रथा से तो और भी अनर्थ होता है। अल्पव्य के किशोर बालक जिन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि विवाह एक व्रत है, दाम्पत्य-जीवन को खिलवाड़ में ही बिताते हैं। फलस्वरूप अनेकों तरह की सामाजिक कुरीतियाँ, अनर्थ और अनैतिकता का ही प्रसार होता है।

प्रेम-विवाह की आधुनिकतम परम्परा भी सोद्देश्य नहीं, एक आवेश मात्र है जिसके परिणाम कुछ दिन में बड़े ही भयानक निकलते हैं। असफल ग्रहण और तलाक के अधिकाँश मामले प्रेम-विवाह वालों में ही पाये जाते हैं। ऐसे विवाह चंचलता और उच्छृंखलता पर अधिक आधारित होते है जो आजीविका या विचार-वैषम्य की गम्भीर परिस्थिति आते ही मनुष्य को इस तरह बर्बाद करते हैं कि उसकी तमाम शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं।

ऐसे विवाह केवल आकर्षण से होते हैं। प्रेम को आकर्षण नहीं कह सकते। इस दृष्टि से इन विवाहों को आकर्षण-विवाह कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। यह आकर्षण सौंदर्य या धन के लिये होता है जिसमें स्थिरता नहीं होती, इसलिये इन विवाहों का प्रचलन भी हमारे समाज के अहित का कारण है।

बेमेल, बाल या आकर्षण विवाहों की पद्धति भारतीय नहीं है। इन्हें एक सामाजिक अभिशाप ही कहा जा सकता है। इनसे विवाह की पवित्रता, विवाह के संकल्प का लक्ष्य पूरा होना तो दूर रहा, अनेकों अनर्थ और उपद्रव ही खड़े बने रहते हैं।

यह अनियमिततायें देश काल परिस्थिति और बाह्य-संस्कृति के प्रवेश के कारण उत्पन्न हुई है इसलिये ये परिवर्तनीय है।

सही पद्धति वह है जिसमें व्यक्ति और समाज के स्वास्थ्य, बली, शारीरिक-बौद्धिक और मानसिक उन्नति, मनुष्य जाति की चिरन्तनता, स्फूर्ति, एकता, तेजस्विता, प्रसन्नता और चिरस्थायी सुख का विचार किया जाता है। विचार-हीन पद्धति चाहे वह नयी हो या पुरानी, उसे प्रमाण मान लेना हमारी सबसे बड़ी भूल है। हमें इन परम्पराओं की तुलना में विवेक का आश्रय लेना अधिक उचित प्रतीत होता है।

सफल वैवाहिक परम्परा वह है जिसमें इन्द्रिय-लालसा और भोग-भाव मर्यादित रहे, भावों में शुद्धि रहे। संयम से त्याग की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति हो। संतानोत्पत्ति से वंश-रक्षा, प्रेम की पूर्णता में पारिवारिक सरलता और उल्लास के द्वारा गृहस्थ की पवित्रता ही विवाह का सही दृष्टिकोण होना चाहिये। दूसरों के हित के लिये त्यागमय जीवन का अभ्यास और अंत में जीवन सिद्धि ही विवाह का पवित्र उद्देश्य होना चाहिये।

हिंदू-विवाहों की आर्ष परम्परा पूर्ण वैज्ञानिक थी, उस में आज की तरह स्त्री-पुरुष का भेदभाव न किया जाता था। पुरुष को अधिक श्रेष्ठ और नारी को अपवित्र मानना, कलंकित ठहराना, यह इस युग का सबसे बड़ा दूषण है। हमारे यहाँ विवाहों में पत्नी का समाद्दत स्थान है। इनमें से एक को प्रमुख और दूसरे को गौण मानने की नीति अज्ञानी लोगों की चलाई है। स्त्री-पुरुष का संयोग ही पारिवारिक विकास का मूल है। इस नैसर्गिक प्रवृत्ति की पूर्ति के लिए भेद-भाव की परम्परा असामाजिक है, इसको दूर किया ही जाना चाहिए।

मंगल-मय जीवन का सूत्राधार है-

ते सन्तु जरदृष्टयःसम्प्रियो रोम्यंष्मू सुमनष्यमानी। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रृणुयाम् शरदः शतम्॥

“हम सौंदर्य युक्त होकर परस्पर प्रीति पूर्वक जीवनयापन करें। हमारी भावनायें मंगलकारक हों। हम सौ वर्ष देखें, सौ वर्ष जियें और सौ वर्ष तक जीवन के संगीत का मधुर राग सुनते रहे।” नीतिकार ने उपयुक्त वचनों में स्पष्ट कर दिया है कि सुखमय गृहस्थी का आधार स्त्री-पुरुष की एकता, आत्मीयता और प्रेम भावना है। इसके लिये विवाह को कौतुक नहीं, एक व्रत मानना है और उसे ज्वलन्त संकल्प की भाँति जीवनपर्यन्त धारण किये रहना है, पारिवारिक सुदृढ़ता की यही सर्वांगपूर्ण भूमिका है।


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