वह खिलौना (Kavita)

January 1965

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रोशनी पूँजी नहीं है जो तिजोरी में समाये, वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर ग्राहक लगाये,

वह पसीने की है वह शहीदों की उमर है, जो नया सूरज उगाये जब तड़प कर तिलमिलाये,

उग रही लौ को न टोको, ज्योति के रथ को न रोको,

यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा। जल गया है दीप तो अँधियार ढलकर ही रहेगा ॥

- ‘नीरज’


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