दान-आत्म-कल्याण की एक श्रेष्ठ साधना

January 1965

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हमारे धर्म, संस्कृति में दान का बहुत महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। दान को जीवन का आवश्यक धर्म नियम घोषित किया था हमारे पूर्वज मनीषियों ने। ऋषियों से लेकर सभी महापुरुष, सन्त महात्माओं ने समाज को दान की शिक्षा दी। अथर्ववेद में बताया गया है ‘शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर’ सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजारों हाथों से बाँट दो। जो बिना दान किए हुए ही सम्पत्ति का भोग करता है उसे शास्त्रकारों ने चोर कहा है। दान यज्ञ के उपरान्त शेष का उपभोग करने वाला ही सच्चे अर्थों में भोग करता है।

सन्त कबीरदास जी ने कहा है :-

ज्यों जल बाढ़े नाव में घर में बाढ़े दाम।

दोऊ हाथ उलीचिए यही सयानो काम॥

अर्थ की शुद्धि के लिए दान आवश्यक है। जिस तरह बहता हुआ पानी शुद्ध रहता है उसी तरह धन भी गतिशील रहने से शुद्ध होता है। पैदा करना और उसे शुभ कार्यों में लगा देना अर्थ शुद्धि के लिए आवश्यक है। यदि उसका संग्रह ही एक मात्र होता रहेगा तो सम्भव है एक दिन उस नाव की तरह मनुष्य को डुबो देगा जिसमें पानी भर जाता है। नाव का पानी न उलीचा जाय तो निश्चय ही वह डूब जायगी। धन के संग्रह से भी अनेकों व्यक्तिगत और सामाजिक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं जिनसे बोझिल होकर मनुष्य कल्याण पथ से भटक जाता है, जीवन की राह पर फिसल पड़ता है। इसीलिए कमाने के साथ-साथ धन को दान के माध्यम से परमार्थ में उन्मुक्त होकर लुटा देने का आदेश हमारे शास्त्रकारों ने दिया है।

दान समाज की आर्थिक विषमताओं को दूर कर जन जीवन में समत्व पैदा करने की रचनात्मक प्रणाली है। तथाकथित साम्यवाद में जहाँ गरीब अभावग्रस्त लोगों द्वारा धनवानों से बलपूर्वक पूँजी छीन लेने का विधान है वहाँ दान पूँजीपति को, धनवान को ही अपना धन अभावग्रस्त जरूरतमंदों को लुटा देने की प्रेरणा देता है। हम जो कुछ भी कमाते हैं, प्राप्त करते हैं उसे अपने लिए ही न सँजोकर, जब समाज के हितार्थ उसका उत्सर्ग करने में कंजूसी न करेंगे, तो फिर संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ रहेगा? उल्टे परस्पर सद्भावना, आत्मीयता को बढ़ावा मिलेगा जब कि साम्यवादी ढंग से पूँजी छीनने के प्रयत्न में जनसमाज एक संघर्ष के दौर से गुजरता है, उसमें एक पक्ष को नष्ट होना ही पड़ता हैं। फिर भी संघर्ष की जड़ें और गहरी बनती जाती है। हमारे पूर्वज दूरदर्शी मनीषियों ने बहुत पहले ही उस सामाजिक समस्या का, जो अर्थ प्रधान है, दान के रूप में हल निकाल लिया था। हम जो कुछ भी कमावें, उसका एक निश्चित भाग तो दान के रूप में अवश्य ही खर्च कर दें ऐसा विधान उन्होंने बनाया। इस तरह दान सामाजिक संघर्ष को ही नष्ट कर देता है।

शास्त्रकार ने कहा है-

“दाने न भूतानि वशी भवन्ति,

दाने न वैराण्यपियान्ति नाशम।

परोपि बन्धुत्वमुपैति दानै,

दानं हि सर्व व्यसनानि हन्ति॥”

“दान से सभी प्राणी वश में हो जाते है। दान से शत्रुता का नाश हो जाता है। दान से पराया भी अपना बन जाता है। अधिक क्या कहें, दान से सभी विपत्तियों का नाश हो जाता है।”

सच है, जब हम अनावश्यक संग्रह न करके सामाजिक विषमता ही न रहने देंगे तो फिर संघर्ष किस बात का? जब हमारे पास जो कुछ है, उसका समाज के लिए उन्मुक्त भाव से दान करेंगे तो फिर शत्रुता, परायापन किसी से हानि पहुँचने की सम्भावना ही क्यों रहेगी? इसीलिए दान का विधान किया गया होगा। देखा जाय तो समाज में शत्रुता, द्वेष भाव, संघर्ष का मूल कारण अर्थ है। यदि आर्थिक व्यवस्था सन्तुलित और स्वस्थ हो तो सामाजिक अशान्ति, संघर्ष आदि बहुत बड़ी मात्रा में कम हो जायें। इसमें कोई सन्देह नहीं कि दान समाज में आर्थिक सन्तुलन पैदा करने, विषमतायें दूर करने का रचनात्मक विधान है।

दान धन को गतिशील सामर्थ्यवान बनाता है। जिस टंकी से पानी निकाला ही न जायगा उसमें आने वाला पानी का स्त्रोत भी ठण्डा पड़ जायेगा। जब पानी वितरित होता रहता है तभी टंकी में जल आने की गुंजाइश रहती है। इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए स्वामी रामतीर्थ ने कहा है- “ दान देना ही आमदनी का एकमात्र द्वार है।” सचमुच जहाँ दिया नहीं जाता, खर्च नहीं किया जाता वहाँ धीरे-धीरे आमदनी के मार्ग भी बन्द हो जाते हैं, यह प्रकृति का एक महत्वपूर्ण नियम है। आमदनी का स्त्रोत उन्मुक्त भाव से उन्हीं के लिए खुला रहता है जो दान करते हैं। उसे समाज के लिए खर्च करते हैं।

दान व्यावहारिक जीवन में एक ऐसी साधना पद्धति है कि उसके माध्यम से हम अपने आप में अनेकों आध्यात्मिक, मानसिक, चारित्रिक गुण, विशेषताओं का अर्जन कर सकते हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा है “ज्यों-ज्यों धन की थैली दान में खाली हो जाती है त्यों-त्यों दिल भरता जाता है।” क्या दान के बाद मिलने वाला सन्तोष, प्रसन्नता का धन भौतिक सम्पत्ति से कम मूल्यवान है? स्वामी विवेकानन्द अमेरिका प्रवास में थे। एक दिन की बात है वे अपना भोजन बनाकर ही चुके थे कि बच्चों की एक टोली हँसती -खेलती आ निकली। स्वामी जी से नहीं रहा गया और उन्होंने सब बच्चों को अपने पास बैठाकर सारा भोजन खिला दिया जो उन्होंने बनाया था। एक अन्य सज्जन जो यह सब देख रहे थे, बोले “स्वामी जी आप तो अब भूखे ही रह गये।” स्वामी जी ने कहा- “इन बच्चों को भोजन कराकर जो तृप्ति मुझे हुई है वह उस भोजन से कभी भी नहीं हो पाती” सचमुच दान के द्वारा एक बहुत बड़ा आत्मसन्तोष, प्रसन्नता, आन्तरिक सुख मिलता है जिसका मूल्य किसी भी भौतिक सम्पत्ति से कहीं अधिक होता है, उस पाषाण हृदय को जो सम्पदा जोड़-जोड़ कर रखता जाता है। क्या मालूम कि दान में कितना अलौकिक आनन्द निहित है। दान अपने आप में आत्मकल्याण की एक साधना है। सचाई, ईमानदारी से धन कमाना और उसे जन कल्याण के लिए लुटा देना क्या कम तपस्या है?

दान एक बहुत बड़े सामाजिक कर्तव्य की पूर्ति है। समाज की भूख शान्त करने का विधान है दान। समाज में एक ऐसा वर्ग होता है जो अपना सम्पूर्ण जीवन समाज को परिपुष्ट करने, उसे आवश्यक मार्गदर्शन करने, उसे शक्तिशाली समृद्ध और शिक्षित बनाने में लगा देता है। इस तरह के परमार्थजीवी व्यक्ति जब लोक संग्रह, अर्थोपार्जन में न लगकर इन पुण्य कार्यों में लगे रहते हैं तो निश्चित उन्हें अभावग्रस्त रहना पड़ेगा। इसलिए समाज का उत्तरदायित्व है कि वह इनके अभाव की पूर्ति करें ऋषियों ने व्यावहारिक जीवन में इसीलिए दान परम्परा को स्थायी बनाया था कि इन पुण्यजीवी लोगों का निर्वाह समाज करता रहे और वे समाज को परिपुष्ट, समर्थ, शक्तिशाली बनाने में पूरा-पूरा योगदान देते रहें। वस्तुतः परोपकार में लीन कर्मवीर मानव ज्ञान की बुद्धि के लिए एकाग्र तत्वज्ञानी, विद्याज्ञान में रत विद्वान्, कला-काव्य की साधना में निमग्न कलाकार, देश को एक सूत्र में बाँधकर उन्नति प्रगति की ओर अग्रसर करने वाले राजनीतिज्ञ की अभावग्रस्तता समाज की भूख है इसे तृप्त करना समाज का उत्तरदायित्व है। यदि ये लोग इन महान कार्यों को छोड़ कर जन साधारण की तरह अपने पेट पालन में लगे रहेंगे तो समाज का विकास रुक जायगा। ये लोग जनकल्याण के लिए अपनी साधना निश्चिन्त होकर जारी रख सकें इसके लिए आवश्यक है कि समाज उनका निर्वाह, भरण पोषण करता रहे। दान की परम्परा इसीलिए कायम हुई। इन लोगों का निर्वाह करना ठीक समाज की ही भूख बुझाता है। जब इनके माध्यम से समाज के पेट में दिया गया दान पाचन होकर रस रूप में परिवर्तित होता है, वह समाज के ही अंग-अंग में समा जाता है। यह समाज को ही पुष्ट करता है।

दान से एक और बहुत बड़ा जन कल्याण का काम होता है। वह समाज के अनेकों अभावग्रस्त, अपाहिज, दीन-हीन, वृद्ध लोगों को दान के माध्यम से जीवन मिलता है। किसी भी समाज में सभी तो कमाने की स्थिति में नहीं होते, अस्तु दान समाज के दुर्बल अंग को जीवन देता है। यदि संसार में चल रही दान व्यवस्थायें बन्द कर दी जायें तो मानव समाज के एक बहुत बड़े अंश को नष्ट हो जाने के लिए मजबूर होना पड़े।


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