धर्म-रक्षा से आत्म-रक्षा

January 1965

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धर्म शब्द ‘ध’ धातु से बना है जिसका अर्थ है- बनाये रखना, धारण करना, पुष्ट करना। धर्म एक ऐसा मानदण्ड है जो किसी भी वस्तु के उक्त मूलतत्व का बोध कराता है जिसके कारण वह वस्तु है। महर्षि कणाद ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है-”यतोभ्युदय -निश्रेयस सिद्धिः स धर्मः।” जिससे अभ्युदय अर्थात् लौकिक जीवन की समृद्धि, विकास और आत्म कल्याण की प्राप्ति हो वही धर्म है।’ छान्दोग्य उपनिषद् में धर्म की तीन शाखाओं का उल्लेख किया गया है। ‘त्रयोधर्मस्कन्धा’ जिसमें गृहस्थ, तपस्वी, ब्रह्मचारी के कर्तव्यों की विवेचना की गई है। भगवद्गीता तथा मनुस्मृति आदि में धर्म का अभिप्राय जीवन की विभिन्न स्थितियों में अपने-अपने कर्तव्य पालन से है। महाभारतकार ने कहा है-

धारणार्द्धम मित्याहुर्धर्मों धारयते प्रजा। यत्स्याद्धारण संयुक्तं स धर्मं इति निश्चयः॥

‘धारण करने वाला होने से उसे धर्म कहा गया। क्योंकि यह प्रजा को धारण करता है। अर्थात् उसे पुष्ट करता है, समर्थ बनाता है। जो धारण करने में समर्थ है वही धर्म है।’

संक्षेप में धर्म वह कर्तव्य विधान है जिसके द्वारा जीवन का आन्तरिक एवं बाह्य सभी प्रकार का विश्वास सध सके। शास्त्रीय भाषा में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि प्रयोजनों की प्राप्ति जिस मार्ग पर चलने से हो सके वही धर्म है। धर्म जीवन की साधना का व्यवस्थित विधान है। सभी भाँति उन्नत, विकसित कल्याणकारी, आनन्दयुक्त जीवन जीने का कर्मशास्त्र है- धर्म। इसीलिए डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में “धर्म की शक्ति ही जीवन की शक्ति है। धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है।” जीवन और धर्म की अनन्यता आवश्यक है, अनिवार्य है। इसीलिए बापू ने कहा था- “धर्म जिन्दगी की हर साँस के साथ अमल में लाने की चीज है।” क्योंकि धर्म के रूप में ही उन सिद्धान्तों का निर्माण हुआ है जिनका हमारे दैनिक जीवन में तथा समाज के सम्बन्धों में पालन करना आवश्यक है। स्वामी रामतीर्थ ने धर्म को मनुष्य के चरित्र में अटल बल प्रदान करने वाला बताया है।

निःसन्देह धर्म व्यवस्था मानव जीवन को सभी भाँति समुन्नत, प्रकाशमान बनाने की पद्धति है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है-”धर्म उस आध्यात्मिक अग्नि की ज्वाला को प्रज्ज्वलित करने में सहायता करता है जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर जलती है ।” इसलिए धर्म ही संसार में सबसे श्रेष्ठ है।

“धर्मो हि परमो लोकेधर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम्”

धर्म ही संसार में सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है।

इस तरह धर्म ही मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करने वाला है। शास्त्रकार ने लिखा है-

आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य मेतन् पशुभिर्नराणाम।

धर्मोहि तेषामधिको विशेषः धर्मेण हीनाः

पशुभिसमानाः॥

खाने, सोने, डरने, मैथुन के बारे में पशु और मनुष्य परस्पर समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष है। यदि वह भी न रहे तो फिर मनुष्य पशु के समान ही है। धर्म ही मानव-जीवन को संस्कारित कर उसे उत्कृष्ट बनाता है।

हमारे यहाँ धर्म की धारणा में वे सब अनुष्ठान गतिविधियाँ आती हैं जो मनुष्य के जीवन को गढ़ती हैं, उसे बनाती हैं। समाज में प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएँ, आकाँक्षायें भिन्न-भिन्न होती है। परस्पर विरोधी आवश्यकताएँ भी होती हैं लेकिन धर्म इन सबको नियन्त्रित कर उन्हें जीवन की सही दिशाओं में प्रेरित करता है। धर्म का नियम जीवन में आध्यात्मिक सत्य की प्रतिष्ठापना करता है। लेकिन संसार से विरक्त करके नहीं, अपितु जीवन के सम्पूर्ण व्यवसाय, कार्यक्रम को आध्यात्मिक विश्वासों के द्वारा नियन्त्रित करके आनन्द, व्यवसाय, काम आदि सभी की प्राप्ति इसी विश्वास के द्वारा कराता है, इन्हें उपेक्षित नहीं बनाता। धर्म जीवन की शाश्वतता को आधार मानकर चलता है। जीवन में इहलौकिक (साँसारिक) अथवा पारलौकिक भेद कोई भेद नहीं है। धर्म, भक्ति और मुक्ति को अलग-अलग नहीं मानता, धर्म दैनिक जीवन के सामान्य व्यवसाय को भी सच्चे अर्थों में भगवान् की सेवा बना देता है। वह काम, अर्थ, मोक्ष का संगम भी है। धर्म सामान्य कृत्यों को भी अपनी विशेषता से मुनियों की साधना की तरह ही प्रभावशाली बना देता है।

धर्म तपस्या को ही सर्वोपरि नहीं मानता न शारीरिक सुखों के निष्प्रयोजन परित्याग को महत्व देता है, वह जीवन को आनन्दमय देखना चाहता है। आनन्द इन्द्रियग्राह्य भी हो सकता है और आत्मिक भी। इस तरह का कोई भी आनन्द धर्म की मर्यादा में निन्दनीय नहीं है। इसी तरह धन-सम्पत्ति आदि भी अपने आप में कोई पाप नहीं है। धर्म इसके लिए रोक नहीं लगाता। लेकिन धन संग्रह करने के उपायों से किसी दूसरे का अहित होता हो तो वह धर्म की दृष्टि में निन्दनीय है। धर्म इस तरह के प्रयत्नों को बुरा बताकर उन पर रोक लगाता है और सही मार्ग बताता है। इसी तरह उत्तम संतान लाभ के लिए विवाह करना धर्म द्वारा अच्छा माना गया है। किसी भी रूप में धर्मपरायणता, सुखभोग, सम्पत्ति, विवाह आदि जीवन की पूर्णता के अवरोधक नहीं हैं, जब वे आत्म-कल्याण और समाज हित के लिए किए जाते हो। लेकिन जब इनका प्रयोजन जीवन की समृद्धि, विकास से दूर हटकर अपने आप में केन्द्रित हो जाता है तभी ये अच्छे नहीं माने जाते। धर्म आचार शास्त्र ऐसी अनुमति नहीं देता।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, धर्म सम्पूर्ण जीवन का, हमारे समस्त क्रिया-कलापों का नियन्त्रण करता है आध्यात्मिक मान्यता और विश्वासों के द्वारा। वह आध्यात्मिक मान्यता है-मनुष्य का आत्मिक गौरव। प्रत्येक प्राणी परमात्मा का चैतन्य अंश है। इसीलिए धर्म कहता है- “सब प्राणियों के हृदय में परमात्मा अंश रूप से विराजमान है।” धर्म शास्त्र के प्रणेता ऋषि ने कहा है-

भगवान् वासुदेवो हि सर्व भूतेष्ववस्थितः। एतज्ज्ञानं हि सर्वस्य मूलं धर्मस्य शाश्वतम्॥

“शाश्वत धर्म का यही मूल है कि भगवान् वासुदेव ही सर्व भूतों में निवास करते हैं।”

श्रूयताँ धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँन समाचरेत्॥

“समझ लो धर्म का सार यही है और फिर इसी के अनुसार आचरण करो। दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार मत करो जैसा तुम अपने लिए नहीं चाहते।”

महाभारतकार ने कहा है :-

सर्वेषाँ यः सुहृन्नित्यं सर्वेषाँच हिते रतः। कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले॥

-शाँति पर्व 261-9

“हमें दूसरों को अपने जैसा ही समझना चाहिए जो अपने मन वचन कर्म से निरन्तर दूसरों के कल्याण में लगे रहते है, जो सदा दूसरों का मित्र रहता है। हे जाजलि, वह धर्म को ठीक-ठीक समझता है।”

दूसरे शब्दों में धर्म व्यक्तिगत जीवन के उत्कर्ष के साथ-साथ सामाजिक जीवन की विधिव्यवस्था का भी इस प्रकार निर्माण करता है कि सभी को जीने, विकसित होने का समानाधिकार मिले। धर्म एक आचार शास्त्र और पथ-प्रदर्शक है जिसके द्वारा वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में मुख-शाँति आनन्द प्रगति की साधना निर्वाध रूप से की जा सके बिना किसी को हानि पहुँचाये।

धर्म और मानव-जीवन का अनन्य सम्बन्ध है। क्योंकि धर्म ही उन क्रिया, अनुष्ठान, आचार पद्धति का भण्डार है जिनके द्वारा मनुष्य को मनुष्य बनाया जा सकता है। इस लिए किसी भी कारण धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। धर्म के लिए मर जाना अच्छा है। गीता कहती है “स्वधर्मे निधनं श्रेय।” महर्षि व्यास कहते हैं-

धर्म एवं हतो हन्ति, धर्मों रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मोन हन्तव्यो मा नो धर्मों हतो वधीन॥

मारा हुआ धर्म ही हमेशा मारता है, हम से रक्षा किया हुआ धर्म ही हमारी रक्षा करता है, इसीलिए धर्म का हनन नहीं करना चाहिए जिससे तिरस्कृत धर्म हमारा विनाश न करे।”

सचमुच अपने धर्म की उपेक्षा करने पर मनुष्य नष्ट हो जाता है। महात्मा गाँधी ने कहा है- जहाँ धर्म नहीं वहाँ विद्या, लक्ष्मी, स्वास्थ्य आदि का अभाव होता है। धर्म रहित स्थिति में बिल्कुल शून्यता होती है।”


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