महानता की प्राप्ति और उसके साधन

January 1965

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

महानता की प्राप्ति के लिए हमें महान् आदर्शों एवं महान् सम्बलों का सहारा लेना पड़ता है। सद्गुणों के रूप में महानता का आह्वान करके उसे यदि अपने अन्तःकरण में धारण करें और उन्हीं प्रेरणाओं के अनुरूप अपना जीवन क्रम चलावें तो विकट परिस्थितियों में रहते हुए भी महानता प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है।

ईश्वर महान् है, इसलिए उसकी उपासना भी हमारी महानता को बढ़ाने में सहायक होती है। आवश्यक है कि जिसे महान बनने की आकाँक्षा हो, वह ईश्वर का प्रकाश एवं अनुग्रह प्राप्त करने का प्रयत्न करे।

ईश्वर प्राप्ति के लिए उत्कृष्ट भावनाओं की आवश्यकता पड़ती है। भावनाओं में प्रेम का स्थान सर्वोपरि है। प्रेम को ही भक्ति कहते हैं। भक्ति से भगवान प्राप्त किया जाता है ऐसा शास्त्रकारों का मत है। भक्ति भावना बढ़ाने का अभ्यास किसी न किसी माध्यम से किया जाता है। माता, पिता, पत्नी, पुत्र या मित्र को माध्यम बनाने में एक कठिनाई यह होती है कि इनके साथ अपना व्यावहारिक सम्बन्ध होने से कभी-कभी प्रतिकूल भावनायें भी उठ पड़ती हैं। इनमें ज्ञान, विद्या, सदाचार, दिव्य दृष्टि सात्विकता तथा निःस्वार्थता की भावनायें भी अल्प मात्रा में होने से वैसे आदर्श अपने जीवन में भी उपस्थित नहीं हो पाते अतएव गुरु-भक्ति या ईश्वर भक्ति के माध्यम से अपनी महानता के विकास का प्रारम्भ करते हैं। इस भक्ति रूपिणी साधना से आध्यात्मिक भावनाओं का तेजी से विकास होने लगता है इसलिए हमारे धर्म और संस्कृति में उपासना को सर्वप्रथम और अनिवार्य धर्म कर्तव्य माना गया है।

उन्नति और उत्थान के लिये दूसरे साधनों में “स्वाध्याय और सत्संग” को अधिक फलदायक और सुविधाजनक मानते हैं। स्वाध्याय भी एक प्रकार से विचारों का सत्संग है, किन्तु महापुरुषों की समीपता का मनुष्य के अन्तःकरण पर तीव्र प्रभाव पड़ता है। सन्तजनों की समीपता शीघ्र फलदायक होती है क्योंकि यह लाभ उनकी वाणी, विचार और व्यवहार से निरन्तर मिलता रहता है अतएव प्रगति भी उतनी ही द्रुतगामिनी होती है। आत्म-संस्कार के लिए सत्संग से बढ़कर कोई दूसरा साधन नहीं। बड़े-बड़े दुष्ट दुराचारी व्यक्ति तक सत्संग के प्रभाव के सुधरकर महान आत्मा बने हैं।

आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवादी, पलायनवादी विचार इन सत्संगों में मिलते हैं। फालतू लोग अपना समुदाय बढ़ाने के लिए सस्ते नुस्खे बताते रहते हैं या किसी देवी देवता के कौतूहल भरे चरित्र सुनाकर उनके सुनने मात्र से स्वर्ग, मुक्ति आदि मिलने की आशा बँधाते रहते हैं। ऐसा विडम्बनापूर्ण सत्संग किसी का क्या हित साधेगा?

आज सत्संग की आवश्यकता स्वाध्याय से ही पूरी करनी पड़ती है। जहाँ जीवन को प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन कर सकने की दृष्टि से उपयुक्त सत्संग मिल सके, वहाँ जाने और लाभ उठाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। पर जहाँ व्यर्थ की विडम्बनाओं में समय बर्बाद किया जाता हो, वहाँ जाने में कुछ लाभ नहीं। आज की स्थिति में सरल सत्संग स्वाध्याय ही हो सकता है। आत्मबल बढ़ाने वाला, चरित्र को उज्ज्वल करने वाला, गुणकर्म, स्वभाव में प्रौढ़ता उत्पन्न करने वाला साहित्य उपलब्ध करके नियमित रूप से उसे पढ़ते रहने से भी घर बैठे सत्पुरुषों के साथ सत्संग का लाभ लेने की सुविधा मिल सकती है।

स्वाध्याय केवल पुस्तकें पढ़ने को ही नहीं कहते। उसका वास्तविक उद्देश्य आत्म-निरीक्षण के लिए प्रेरणा प्राप्त करना है। शास्त्र कहता है।

प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत जनश्चरितमात्मनः। किन्नु में पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिव॥

प्रत्येक मनुष्य को हर घड़ी अपने स्वयं के चरित्र का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसका चरित्र पशु तुल्य है या सत्पुरुषों जैसा। आत्म-निरीक्षण की प्रणाली का नाम ही स्वाध्याय है। पूर्ण मानव बनने के सद् उद्देश्य से जिनने भी स्वाध्याय का अनुसरण किया है उनकी आत्मा अवश्यमेव परिष्कृत हुई है, उनकी महानता जागृत हुये बिना नहीं रही।

महानता के विकास की सबसे बड़ी बाधा असंयम है। दुःख और सन्ताप दीनता और आत्म-हीनता की अधोगामी परिस्थितियाँ मानव-जीवन में शारीरिक व मानसिक असंयम के कारण आती हैं। आत्म-संयमी न होने से मनुष्य का व्यक्तित्व गिर जाता है।

संयम साक्षात् स्वर्ग का द्वार है। यह मनुष्य जीवन में शान्तिदायक परिणाम प्रस्तुत करता है। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन संयम से प्रकाशित होता है। इसी से दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। आध्यात्मिक स्वतन्त्रता तथा वैभव की प्राप्ति के लिये संयमित दिनचर्या की प्रबल आवश्यकता होती है। इसके बिना आत्म-ज्ञान का अत्यन्त आवश्यक क्षेत्र अधूरा ही रहा जाता है। मानव जीवन की सार्थकता इस बात पर है कि इस शरीर की महत्वपूर्ण शक्तियों का लाभ उठाकर अपना पारलौकिक लक्ष्य पूरा कर लें। यह प्रक्रिया आत्मसंयम से पूरी होती है।

केवल मात्र साँसारिक सुखों की पूर्ति में अपनी शक्तियों का अपव्यय करना बुद्धिमानी की बात नहीं मानी जा सकती। दूसरे प्राणियों की अपेक्षा हमें जो अधिक विचारबल मिला है, इससे यह प्रतीत होता है कि मानव जीवन किसी महान उद्देश्य से प्रेरित है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये जिस शक्ति की आवश्यकता होती है, उसे सद्विचार और सत्कर्मों से प्राप्त करते है। यह पवित्रता आत्मसंयम से ही स्थिर रहती है।

अपने जीवन को शुद्ध और समृद्ध बनाने की साधना जिन्होंने की हैं वे अपने अनुभव से कहते आये है :-

असंयतात्मना योगोदुष्प्राप्य इतिमेमतिः। वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुमायतः॥

संयमित जीवन चर्या के अभाव में योग दुष्प्राप्य है, स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुषों को ही इष्ट सिद्धि प्राप्त होती है। सुख और विषय वासना के प्रलोभन में फँस कर ही प्रायः पथ भ्रष्ट होते है।

संयम से जो शक्ति पैदा होती है वह चरित्र का आधार है। वैराग्य, त्याग, विरक्ति आदि तत्वों का सीधा सम्बन्ध मनोभावों से है। विचार अस्त-व्यस्त और विश्रृंखलित हों तो कर्म भी असंयत ही होंगे। अगर हमारा मन सुमार्गगामी रहकर इन्द्रियों को संयम में रखें तो समस्त साँसारिक कार्यों को करते हुए भी हम सद्गति के अधिकारी बन सकते है।

महानता के विकास में अहंकार सबसे बड़ा घातक शत्रु है। स्वार्थवादी दृष्टिकोण के कारण घमण्डी व्यक्ति दूसरों को उत्पीड़ित किया करते है। शोषण, अपहरण के बल पर दूसरों के अधिकार छीन लेने की दुष्प्रवृत्ति लोगों को नीचे गिरा देती है। जब तक ऐसी भ्रान्त धारणायें बनी रहती हैं तब तक लोग बाह्य सफलतायें भले ही इकट्ठा कर लें, वस्तुतः वे गरीब ही माने जायेंगे। साँसारिक दृष्टि से बड़ा आदमी बन जाने से किसी की महानता परिलक्षित नहीं होती। ऐसा होता तो शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ, धनकुबेरों, और दस्यु सामन्तों की ही सर्वत्र पूजा की जाती, उन्हें ही मानवता का श्रेय मिलता। किन्तु यथार्थ बात यह नहीं है। महान व्यक्ति कहलाने का सौभाग्य व्यक्ति को उदारतापूर्वक दूसरों की सेवा करने से मिलता है। इस संसार में हजारों लाखों व्यक्ति ऐसे है जो अपनी स्थिति से भी गई-गुजरी हालत में जीवनयापन करते हैं। उनके उत्थान के लिये कुछ कर गुजरने वाले व्यक्ति ही महान कहलाने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।

मनुष्य की महानता का सम्बन्ध बाह्य जीवन की सफलताओं से नहीं है। आन्तरिक दृष्टि से निर्मल, पवित्र और उदारमना व्यक्ति चाहे वह साधारण परिस्थितियों में ही क्यों न हो, महान आत्मा ही माना जायेगा। यह महानता साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के साधन चतुष्टय से परिपूर्ण होती है। हम आदर्शों की उपासना करें, विचारों में निर्मलता और जीवन में आत्मसंयम का अभ्यास करें, दूसरों की सेवा को ही परमात्मा की सच्ची सेवा मानें तो ही महानता का गौरव प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते है। अतः हमें साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों में कभी भी आलस्य और प्रमाद नहीं करना चाहिये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles