मृत्यु हमारे जीवन का अन्तिम अतिथि

January 1965

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मृत्यु और जीवन एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। मृत्यु जीवन का उद्गम है तो जीवन का पर्यवसान भी मृत्यु की गोद में ही होता है। रात्रि के गर्भ से ही दिन का उदय होता है, जीवन भी मृत्यु की कोख से पैदा होता है। दिन का अन्त रात्रि में होता है उसी तरह जीवन का अन्त मृत्यु में। वस्तुतः मरण ही दूसरे अर्थों में जन्म है। पं. नेहरू ने कहा है- “मृत्यु से नया जीवन मिलता है। केवल वहीं से, जहाँ मनुष्य मृत्यु की गोद में सोता है पुनरुत्थान का शुभारम्भ होता है”

पाश्चात्य विचारक कोल्टन के शब्दों में “मृत्यु उन्हें मुक्त कर देती है जिन्हें स्वतन्त्रता भी मुक्त नहीं कर सकती। यह उनकी प्रभावशाली चिकित्सा है जिन्हें औषधियाँ ठीक नहीं कर सकतीं। यह उनके लिए आनन्द और शांति की विश्राम-स्थली है जिन्हें समय सान्त्वना नहीं दे पाता।”

दिन भर काम-काज करके हम थके-थकाये निद्रादेवी की गोद में सोते हैं और सुबह उठने पर नई ताजगी, स्फूर्ति, आशा, उत्साह से काम में जुट जाते हैं। मृत्यु भी ऐसी ही निद्रा हैं- महानिद्रा, जिसके अज्ञात किन्तु सुखकर अंग में हम जीवन भर की दौड़-धूप से क्लान्त, परेशान होकर, थककर, शरीर से जीर्ण-शीर्ण होकर सोते हैं और फिर नव जन्म के द्वारा जाग पड़ते हैं, एक शिशु की किलकारियाँ भरते, उछलकूद करते, नया ताजा शरीर लेकर, नई चेतना, नई स्फूर्ति लेकर।

बालक दिन भर अपने खिलौनों से अपने मित्रों में खेलता है। कई बार वह अपनी भूख-प्यास, आराम की बात भी भूल जाता है लेकिन उसकी हित-चिन्तक माँ समय पर उसकी ओर ध्यान देती है, उसके न चाहते हुए भी उनका खिलौनों में, साथियों में, मन भटकते रहने पर भी मचलते, रोने-चीखने, चिल्लाने पर भी वह अपने प्यारे पुत्र को गोद में उठा लेती है। थपकियाँ देकर प्यार से सुला देती है और सोते में ही उसे आँचल का दूध पिला कर पुष्ट कर देती है। आहा! प्रकृति माता भी कितना ध्यान रखती है प्राणियों का। वह अपने मौत के प्यार भरे हाथों में उठा लेती है हमें हमारे न चाहते हुए भी, और अपनो अंक में सुला लेती है तब तक जब तक हमारी थकान मिटकर हम जाग नहीं पाते। जागने पर वह नहला-धुलाकर नये वस्त्र पहनाकर, नव-शृंगार करके फिर हमें जग के क्रीडाँगन में खेलने को भेज देती है जहाँ बहुत से साथी मिल जाते हैं खेलने के विविध वस्तु पदार्थ मिल जाते हैं।

मृत्यु मानो छुट्टी मनाना है। लोग अपने काम से छुट्टी लेकर नदी, समुद्र में गोता लगाने, सैर-सपाटे करने जाते हैं, मृत्यु के द्वारा भी हम अनन्त जीवन के समुद्र में गोता लगाने एक सुरम्य प्रदेश की यात्रा करने जाते हैं जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर पाते। मरण एक महायात्रा है, महा प्रस्थान है, महानिद्रा है- जीवन और जगत के कार्य व्यापार से विरत होकर एक लम्बी छुट्टी बिताना है।

गीताकार ने मृत्यु को मानो वस्त्र बदलना बतलाया है। जिस तरह फटे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को उतार कर हम नया वस्त्र धारण करते है उसी तरह मृत्यु भी जीर्ण-शीर्ण जर्जर, असमर्थ, अशक्त शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करना है। प्रकृति माता मनुष्य को मृत्यु के रूप में बुलाती है, नये वस्त्र पहनाकर फिर भेज देती है।

छत पर पहुँचने के लिए सीढ़ियों पर होकर जाना पड़ता है। जीवन के परम लक्ष्य की पूर्णता प्राप्ति तक जाने के लिए भी हमें जन्म मरण के सोपानों पर से गुजरना पड़ता है। मरण मानो वर्तमान सीढ़ी से आगे की सीढ़ी पर पहुँचने के लिए पैर उठाना है, जन्म मानो सामने वाली सीढ़ी का आधार लेकर ऊपर पहुँचने की तैयारी करनी है।

व्यापारी अपनी दुकान में तरह-तरह का सामान रखता है और बेचने खरीदने का क्रम रात दिन जारी रखता है लेकिन साल में एक बार कुछ समय के लिए वह खरीद-फरोख्त का काम बन्द करके अपने सामान का चिट्ठा बनाता है। क्या खरीदा, क्या बेचा और कितना लाभ कमाया? ऐसा हिसाब प्रत्येक व्यापारी वर्ष में एक बार लगाता है। मृत्यु भी मानो जीवन के हिसाब-किताब और लाभ पर विचार करने का अवसर है। कई वर्षों से चल रहे जीवन व्यापार का आखिर कभी तो हिसाब होना ही चाहिए और मृत्यु ही ऐसा अवसर है जब हम अपने लाभ हानि पर विचार करके फिर से दुकान लगाने एवं भूल सुधारने का कार्य सम्पन्न करते हैं।

मृत्यु मानो भगवान का निमन्त्रण है। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है- “मृत्यु तो प्रभु का आमन्त्रण है। जब वह आये तो उसका द्वार खोलकर स्वागत करो, चरणों में हृदय-धन सौंप कर प्रभु का अभिवादन करो।” माता जब श्रावण में अपनी बेटी को उसकी ससुराल से बुलाती है तो बेटी के हृदय में कितनी प्रसन्नता उत्सुकता पैदा होती है। उसका हृदय भी माता के यहाँ जाने के लिए सावन के बादलों की तरह उमड़ने लगता है। पीहर जाकर वह स्वतन्त्रता के साथ आनन्द उल्लास का जीवन बिताती है। मृत्यु भी मानो महा-माता द्वारा अपने घर बुलाने के लिए निमन्त्रण होता है हमारे लिए।

मृत्यु जीवन का एक बहुत ही आवश्यक और अनिवार्य अंग है। यदि मृत्यु न हो तो यह जीवन भार बन जाय। यह संसार काँटों की तरह चुभने लगे। हीन से हीन व्यक्ति में भी जीने की जो चाह है वह मृत्यु की कृपा से ही है। मृत्यु को हटा दीजिए जीवन से लोग ऊबने लगेंगे। यदि मृत्यु का अस्तित्व न रहे तो कल्पना कीजिए कि उन लोगों का क्या हाल हो जो अनेकों कष्ट पा रहे होते हैं। रोग, शोक, अभाव, कठिनाइयों की असह्य मार से मृत्यु देवता ही तो बचाता है। जीर्ण-शीर्ण परावलम्बी असमर्थ वृद्ध शरीर से छुटकारा मरण देवता ही दिलाते है। शारीरिक असमर्थता के कारण परावलम्बी हो जाने वाले लोगों का मुक्तिदाता, असाध्य रोगों से ग्रस्त लोग जिनकी कोई चिकित्सा नहीं हो सकती, उनका धन्वन्तरि, परमदयालु मृत्यु देवता ही है। संसार जिन्हें ठुकरा देता है, समय जिनके आनन्द खुशी को छीन लेता है उन्हें मौत ही अपने अंग में बिना किसी भेद-भाव के स्थान देती है।

=कोटेशन===========================

अयो खल्वाहुः काम मय एवाऽयं पुरुष इति। स यथा कामो भवति तत्क्रतुमवति। यत्क्रतुर्भवति तर्त्कम कुरुते। यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते।

- वृहदारण्यक 30 । 4। 4। 5

यह मनुष्य भावनामय है। जैसी कामना करता है वैसे विचार आने लगते हैं। जैसे विचार उठते हैं वैसा निश्चय करता है। जैसा निश्चय करता है वैसे काम होने लगते हैं। जैसे काम करता है वैसा फल भोगता है।

यह मनुष्य भावनामय है। जैसी कामना करता है वैसे विचार आने लगते हैं। जैसे विचार उठते हैं वैसा निश्चय करता है। जैसा निश्चय करता है वैसे काम होने लगते हैं। जैसे काम करता है वैसा फल भोगता है।

यह मनुष्य भावनामय है। जैसी कामना करता है वैसे विचार आने लगते हैं। जैसे विचार उठते हैं वैसा निश्चय करता है। जैसा निश्चय करता है वैसे काम होने लगते हैं। जैसे काम करता है वैसा फल भोगता है।

मृत्यु से ही इस संसार में सौंदर्य का आकर्षण बना हुआ है। इसी के कारण प्रेम है। यदि मृत्यु न होती, सब अमर होते तो एक दूसरों की तरफ स्नेह भरे हृदय से देखते भी नहीं। कठोरता, रूखापन, फैल जाता। कोई किसी को अपना नहीं कहता। बहुत बार बुराइयों से लोग इसलिए बचे रहते हैं कि उन्हें मृत्यु का, अपनी छोटी सी जिन्दगी का ख्याल हो जाता है। और इस तरह संसार में अनेक बुराइयां पनप ही नहीं पातीं। यदि मनुष्य अमर हो जाय तो कुछ भी करने में नहीं चूके। यदि मनुष्य के पाँव कही रुकते हैं तो मौत के दरवाजे पर।

मृत्यु मनुष्य के लिए त्याग उत्सर्ग का पाठ सिखाती है। साथ ही अनासक्त होने का व्यवहारिक प्रयोग है यह। मनुष्य जीवन भर वस्तु-व्यापार में लीन रहता है। इनका इस तरह संग्रह करता है मानो उसे सदा-सदा इसी धरती पर रहना है। नीति अनीति जैसे भी बने, कमाने, संग्रह करने, सुख-साधन जुटाने में ही हमारा जीवन लगा रहता है लेकिन मौत आती है और चुपके से हमें अपने अज्ञात हाथों में उठा लेती है। सब कुछ यहीं धरा रह जाता है, छोड़ देना पड़ता है। लेकिन मृत्यु कोई कठोरता क्रूरता नहीं है जो बलपूर्वक मनुष्य को यह त्याग कराती है, वरन् यह तो मंगलकारिणी है जो अनेक आसक्ति, मोह, तृष्णा के दलदल में फँसे मनुष्य को निकाल कर उसे मुक्त करती हैं। जगत के वस्तु पदार्थों के संग से लगे कल्मषों को मृत्यु माता ही अपने हाथों से धोती है, उन्हें छुड़ा देती है ठीक उसी तरह जैसे कोई माँ अपने बच्चे के शरीर में लगी गन्दगी को साफ करती है।

अन्य देशों में जहाँ मृत्यु को जीवन का अन्त माना जाता है वहाँ हमारे यहाँ मृत्यु को विश्राम, निद्रा मात्र समझा जाता है। मृत्यु पर भी हमारे यहाँ जन्म की तरह खुशियाँ मनाने, जुलूस निकालने, कीर्तन गान करने आदि का विधान है। सोया हुआ बालक फिर उठकर अपने खिलौने से खेलने लगता है। मृत्यु के बाद फिर से हम नया जीवन शुरू करते हैं। पिछले जीवन में जहाँ अध्याय छोड़ा था उससे आगे नये अध्याय का प्रारम्भ फिर करते हैं। रात को अधबुनी चादर छोड़कर सो जाने वाला जुलाहा दूसरे दिन फिर वहीं से अपनी चादर बुनना शुरू करता है जहाँ उसने छोड़ी थी। पूर्व-जन्म के ज्ञान संस्कार स्वभाव आदि की कमाई नये जनम में फिर से मिल जाती है। इस तरह मौत सबकी समाप्ति नहीं है अपितु शरीर रूपी साधन को दुरुस्त करके नये उत्साह, नई शक्ति से मंजिल की ओर गतिशील होने की प्रक्रिया है मौत।


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