सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिंसा,
दयान्वितं चानृतमेव सत्यम्।
हितं नराणाँ भवतीह येन,
तदेव सत्यं न तथाऽन्यथैव॥
- देवी भागवत 3 । 11। 36
वह सत्य, सत्य नहीं जिसके कारण हिंसा होती हो। दया से सना हुआ असत्य भी सत्य है। जिसमें मनुष्यों का हित होता हो वही सत्य है इसके विपरीत जिसके अवाँछनीय परिणाम निकले, वह सत्य भी असत्य ही है।
या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रूते सा न पाश्यति
अहो व्याघ स्वकार्याथिन् किं पृच्छसि पुनः पुनः।
ये प्यायेन जिहीर्षन्तो धर्ममिच्छन्ति कर्हिचित्
अकूजनेन मोक्षं वा नानुकूजेत् कथंचन।
अवश्यं कूजितव्ये वा शंकरेन्नप्य कूजितः।
श्रेयस्तन्नानृंत वक्तुँ तत्सत्यमविचारितम्।
- महा. कर्तव्य 9। 59 । 60
न्याय की रक्षा करने वाला कार्य करना ही धर्म है। इसके लिए कभी चुप रहना पड़े तो वैसा ही करना चाहिए। यदि चुप रहने से सन्देह उत्पन्न होता हो तो झूठ बोल दे। न्याय की रक्षा के लिए वैसा करना भी निस्सन्देह सत्य ही कहा जायेगा।
अधर्म नात्र पश्यन्ति धर्म तत्वार्थ दर्शिनः। यत्स्तेनैः सह सम्बन्धान्मुच्यते शपथैरपि। श्रेयस्तन्नानृतं वक्तुँ तत्सत्यम् विचारितम्। न च तेभ्यो धनं देयं शक्ये सतं कथंचन। पापेभ्यो हि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेतू।
तस्माद् धर्मार्थमनृत मुक्त्वानानृत भाग् भवेत।
- महा. कर्ण 69। 63-64-6
यदि दुष्टों से पाला पड़े तो झूठी शपथ खाकर भी उनसे अपना पीछा छुड़ाले। उनसे अपने धन तथा प्राण की रक्षा करने के लिए बोला हुआ झूठ झूठ नहीं है। अपना बस रहते प्राणियों के हाथ अनीतिपूर्वक अपना धर्म अपहरण न होने देना चाहिए। धर्म के लिए झूठ बोलने से मनुष्य झूठा नहीं कहलाता।