महत्वाकाँक्षायें अनियन्त्रित न होने पावें

January 1965

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आजकल हमारा जीवन संघर्ष इतना बढ़ गया है कि हमें जीवन में सन्तोष और शान्ति का अनुभव ही नहीं हो पाता। बहुत से लोग जीवनभर विकल और विक्षुब्ध रहते हैं। हम जीवन में दिन-रात दौड़ते हैं, नाना प्रयत्नों में जुटे रहते हैं। कभी इधर, कभी उधर हमारी घुड़दौड़ निरन्तर चालू ही रहती है। किन्तु फिर भी हममें से बहुत कम ही जीवन की प्रेरणाओं का स्त्रोत ढूँढ़ पाते हैं, विरले ही जीवन की यथार्थता का साक्षात्कार कर पाते हैं। जहाँ हमें सहज शान्ति और सन्तोष की उपलब्धि होती है, वहाँ बहुत ही कम पहुँच पाते हैं। आजीवन निरन्तर सचेष्ट रहते हुए भी हमसे से बहुतों को अन्त में पश्चाताप और खिन्नता के साथ ही जीवन छोड़ना पड़ता है।

हमें लक्ष्य भ्रष्ट करने में विकृत महत्वाकाँक्षाओं का बड़ा हाथ है। ये हमें जीवन के सहज और स्वाभाविक मार्ग से भटका कर गलत मार्ग पर ले जाती है। इनके कारण हमें जो करना चाहिए, उसकी तो हम अपेक्षा कर देते हैं और जो हमें नहीं करना चाहिए, वह करने लगते है।

यों जीवन में आकाँक्षाओं का होना आवश्यक है क्योंकि इनके पिता तो जीवन जड़ बन जायगा। प्रगति का द्वार ही बन्द हो जायगा। आज संसार का जो विकसित प्रगतिशील स्वरूप दिखाई देता है, वह बहुत से व्यक्तियों की आकाँक्षाओं का ही परिणाम है। किसी वैज्ञानिक के मस्तिष्क में जब यह प्रश्न उठता है कि यह क्या है, कैसा है, कैसे चल रहा है, तो उसे जानने के लिए मचल उठना, उसके लिए तन्मय होकर अपने को अन्त तक लगाये रखना, संसार में महान वैज्ञानिक आश्चर्यों का द्वार खोल देता है।

साहित्यकार के मन में जब भावनाओं का उद्रेक होता है तो यह भी जगत के समक्ष उन्हें व्यक्त कर देने के लिए आतुर हो उठता है और यही आकाँक्षा काव्य के रूप में निखर उठती है। कोई भी क्षेत्र हो विज्ञान का, दर्शन या धर्म का, कला या कृति का सभी क्षेत्रों में जो उपलब्धियाँ आज तक हो पाई हैं, वे मनुष्य की महत्वाकाँक्षाओं की प्रेरणा का ही परिणाम हैं। संसार में जितने भी बड़े काम हुए हैं, वे सब महत्वाकाँक्षाओं ने ही कराये हैं।

यद्यपि कुछ न कुछ आकांक्षाएं सभी में होती हैं, तथापि हर आकाँक्षा को महत् नहीं कहा जा सकता। आकांक्षाएं जब स्वयं व्यक्ति और समाज के लिए कल्याणकारी हित-साधक होती हैं तभी वे महत्वाकांक्षाएं हैं। किसी को नुकसान पहुँचाने या डाकू बन कर लूटपाट करने के लिए केवल अपने ही लाभ में लिए किये जाने वाले दुस्साहस को महत्वाकाँक्षा नहीं कहा जा सकता। स्वर्गीय चितरंजनदास के शब्दों में “महत्वाकांक्षाएं जब पदार्थ प्रेरित होती हैं, तभी तक वे महत् हैं।” जिनसे समाज का अहित होता हो, जो रचनात्मक न होकर विनाशात्मक हों, ऐसी महत्वाकाँक्षा रावण, कंस, दुर्योधन की महत्वाकाँक्षा है, जो जगत के लिए हानिकारक और स्वयं उनके जीवन में भी विनाशकारी ही सिद्ध होती हैं। ऐसी दुस्साहसी आकाँक्षाओं का अवलम्बन लेकर कोई व्यक्ति जीवन में सन्तोष, शान्ति का अनुभव कर सके, यह असम्भव है।

एक व्यक्ति धार्मिक जीवन इसलिए बिताता है कि इससे उसका जीवन शुद्ध निर्मल बनेगा, आत्मा का विकास होगा, ईश्वर का साक्षात्कार होगा, तो उसकी ऐसी महत्वाकाँक्षा उत्तम है। आवश्यक है। लेकिन बहुत से लोग धार्मिक क्षेत्र में इसलिए घुसते हैं कि इससे उनकी पूजा-प्रतिष्ठा होगी, लोग भेंट चढावेंगे, जय-जय करेंगे। कई लोगों को राजनीति में इसलिए आना पड़ता है कि इससे वे अपने देश और समाज की स्वतन्त्रता, अधिकारों की रक्षा और विकास के लिए ठोस प्रयत्न कर सकेंगे। किन्तु ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं है जो राजनीति को अपनी नेतागिरी जमाने, नाम कमाने, बंगले और कोठियाँ बनाने, जायदाद इकट्ठी करने का साधन बनाते हैं।

किसी क्षेत्र में अपने स्वार्थ और दूसरों को हानि पहुँचा कर आगे बढ़ने की आकाँक्षाएँ महत् नहीं, इन्हें निकृष्ट और हेय ही माना जाना चाहिए, इनका परिणाम सदैव दुःखद और असन्तोषजनक ही है। इन विकृत महत्वाकाँक्षाओं के कारण ही हम जीवनभर सहज मार्ग नहीं अपना पाते। हमें जो करना चाहिए उसकी तो उपेक्षा करने लगते हैं और जो नहीं करना चाहिए उनमें हाथ डालने का दुस्साहस विकृत महत्वाकाँक्षाओं से ही प्रेरित होता हैं। शान्ति, सन्तोष, स्थायी सफलता की कामना रखने वाले साधक को इन भूल-भुलैयों से बचना चाहिए।

एक सज्जन थे, जो चुनावों में दो बार हार जाने का रोना रोते हुए कह रहे थे-” क्या करें साहब, राजनीति का ऐसा नशा है- जो छुड़ाये नहीं छूटता।” स्मरण रहे मनुष्य की जो प्रवृत्तियाँ किसी नशे से प्रेरित होंगी, उनका परिणाम क्या उस नशेबाज की स्थिति पैदा नहीं कर देगा, जो एक दिन औंधे मुँह गन्दी नाली में गिर पड़ता है, लोग उसके ऊपर हँसते हैं? जिन आकाँक्षाओं के पीछे कोई नशा काम करता है, वह महत्वाकाँक्षा कैसे हो सकती है? महत्वाकाँक्षा तो उत्कृष्ट महान आदर्श के साकार करने का साहस तथा कर्मठतायुक्त अभियान है, जिसके गर्भ में स्वस्थ और सन्तुलित मनोभूमि, जागरुक चेतना, विवेकयुक्त बुद्धि काम करती है।

विकृत महत्वाकाँक्षा निम्न-गामिनी होती है- इस आइने में जब मनुष्य अपनी तस्वीर देखकर उस ओर उन्मत्त होकर दौड़ता है तो परिणाम में उसकी स्थिति उस बाज की सी ही हो जाती है, जो आकाश से मकान या धरती पर पड़े शीशे के टुकड़े में अपना प्रतिबिम्ब देखकर उस और झपटता है, शीशे से टकरा कर घायल हो जाता है। विकृत महत्वाकाँक्षाएँ मनुष्य को मृग मरीचिका की तरह भटकाती हैं। यथार्थ को भुलाकर स्वप्न लोक की दुनिया में भटकाती हैं। ये हवा के उस बगुले की तरह है- जो एक सूखे पत्ते को आसमान में उठा देता है, लेकिन ज्यों की बगुला नष्ट होता है, पत्ता धरती पर आ पड़ता है।

अपनी महत्वाकाँक्षाओं के बारे में हमें विवेकपूर्ण बुद्धि से सोचना चाहिए कि वे कितनी यथार्थ और कितनी उपयोगी हैं? कहीं उन्होंने हमें भुलावे में तो नहीं डाल रखा है? वे हमें जीवन के सही रास्ते पर ले जा रही हैं या हमें पथ भ्रष्ट कर रही हैं। किन्हीं प्रलोभनों के पीछे कोई स्वार्थबुद्धि तो काम नहीं कर रही? यह सब विचारणीय है। महत्वाकाँक्षाएँ यदि निकृष्ट स्तर की हों तो उन्हें त्याग देना चाहिए। श्रेयस्कर तो केवल श्रेष्ठता की ओर ले जाने वाला महत् आकाँक्षाएँ ही हो सकती हैं।


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