कर्मकाण्ड भास्कर

|| संस्कार प्रकरण ||

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॥ संस्कार प्रकरण॥

शास्त्रीय पृष्ठभूमि
व्युत्पत्तिपरक अर्थ- सम् पूर्वक कृञ् धातु से घञ् प्रत्यय होकर संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है-
संस्करणं सम्यक्करणं वा संस्कारः अर्थात् परिष्कार करना अथवा भली प्रकार निर्माण करना ’ संस्कार’ है।
‘संस्कार- प्रकाश’ में संस्कार शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा गया है- समुपसर्गात् कृञो घञि निष्पन्नोऽयं संस्कार शब्दः स्वयमेव स्वलक्षणमप्यभिधत्ते ।। तद्यथा- आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो हीनाङ्गपूरको दोषापमार्जनकरोऽतिशयाधायकश्च विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेष एव ‘संस्कार’ इत्युच्यते। अर्थात् सम् उपसर्गपूर्वक कृ धातु से घञ् प्रत्यय होकर निष्पन्न ‘संस्कार’ शब्द स्वयमेव अपना लक्षण भी प्रकट कर देता है। यथा- शरीर और आत्मा में कमी या त्रुटि को पूर्ण करते हुए, दोषों का परिमार्जन करते हुए, अतिशय गुणों का आधान करने वाले शास्त्र विहित विधि (कर्मकाण्ड)से समुद्भूत अतिशय विशेष को ही ‘संस्कार’ कहा जाता है।

‘संस्कार’ शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता रहा है। मेदिनी कोश के अनुसार इसका अर्थ है- क. प्रतियत्न ख. अनुभव ग. मानस कर्म। सर्व प्रथम ऋग्वेद में इस शब्द का प्रयोग हुआ, जिसका अर्थ वहाँ घर्म(बरतन)की शुद्धता -पवित्रता लिया गया। तदनन्तर शतपथ ब्राह्मण, छान्दोग्य उपनिषद् में इस शब्द का अर्थ निर्मलता- स्वच्छता लगाया गया। जैमिनिकृत मीमांसा सूत्र में इसका प्रयोग ‘चमकाने’ के अर्थ में हुआ। तब से अब तक यह शब्द अपने अर्थ और स्वरूप को काफी सारगर्भित और वैज्ञानिकता से अभिपूरित कर चुका है।

संस्कार की परिभाषाएँ, प्रभेद एवं प्रयोजन-

मीमांसा दर्शन का भाष्य करते हुए शबरमुनि लिखते हैं- ‘संस्कारो नाम स भवति यस्मिन् जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्य’ अर्थात् संस्कार वह प्रक्रिया है, जिसके होने से कोई व्यक्ति या पदार्थ किसी कार्य के योग्य हो जाता है। (जै० सू० ३.१.३)
प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट्ट कृत तन्त्र वार्तिक में कहा गया है-
‘योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते’ अर्थात् संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं। महर्षि हारीत ने लिखा है- ‘द्विविधो हि संस्कारो- ब्राह्मो दैवश्च। गर्भाधानादिस्मार्तो ब्राह्मः पाक यज्ञ सौम्याश्च दैवः’ अर्थात् संस्कार दो प्रकार के होते हैं- १- ब्राह्म संस्कार और २. दैव संस्कार। गर्भादानादि संस्कार जो स्मृति ग्रन्थों द्वारा विहित हैं, ब्राह्म संस्कार कहलाते हैं और पाकयज्ञ, हवियज्ञ, सोम यागादि दैव संस्कार कहे जाते हैं। हारीत मुनि आगे लिखते हैं-

‘ब्राह्मेण संस्कारेण ऋषीणां सलोकतां समानतां सायुज्यतां वा गच्छति इति। दैवेन संस्कारेण देवानां समानतां सालोक्यतां सायुज्यतां सारूप्यतां वा गच्छति।’ अर्थात् ‘ब्राह्म’ संस्कार से मानव में ब्राह्मणोचित ऋषि कल्प गुणों, उनकी समानता (समान सम्मान) उनकी समीपता अथवा उनसे युक्त होने की योग्यता का विकास होता है। दैव संस्कार से देवों के समान गुणों, उनकी समीपता, उनसे युक्त होने की योग्यता अथवा उनके सदृश रूप, गुण आदि की योग्यता प्राप्त होती है।

आज जिन संस्कारों का मानव समाज में प्रचलन है, उनकी संख्या मुख्यतः सोलह मानी गयी है, जैसा कि महर्षि व्यास जी ने लिखा है-
गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च। नामक्रिया निष्क्रमोऽन्न- प्राशनं वपनक्रिया॥
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः। केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः॥ त्रेताग्निसंग्रहश्चैव संस्काराः षोडशस्मृताः।- व्यास स्मृति- १.१३- १४
अर्थात् गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ (विद्यारम्भ), समावर्तन, विवाह तथा अग्न्याधान। अग्न्याधान के अन्तर्गत तीन अग्नियाँ (गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि) स्थापित की जाती थीं। इन अग्नियों का व्यावहारिक उपयोग वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि और मरणोत्तर संस्कारों में होने से संस्कारों की मान्य संख्या सोलह सिद्ध हो जाती है। इन नामों में कहीं- कहीं भिन्नता भी दिखाई देती है।

आयुर्वेदिक रसायन बनाने की अवधि में औषधियों पर कितने ही संस्कार डाले जाते हैें। कई बार कई प्रकार के रसों में उन्हें खरल किया जाता है और कई बार उन्हें गजपुट द्वारा अग्नि में जलाया- तपाया जाता है, तब कहीं वह रसायन ठीक तरह तैयार होता है और साधारण सी राँगा, जस्ता, ताँबा, लोहा, अभ्रक जैसी कम महत्त्व की धातु चमत्कारिक शक्ति सम्पन्न बन जाती है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य को भी समय- समय पर विभिन्न आध्यात्मिक उपचारों द्वारा सुसंस्कृत बनाने की महत्त्वपर्ण पद्धति भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने विकसित की थी। उसका परिपूर्ण लाभ देशवासियों ने हजारों, लाखों वर्षों से उठाया है। यों किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने के लिए शिक्षा, सत्संग, वातावरण, परिस्थिति, सूझ- बूझ आदि अनेक बातों की आवश्यकता होती है। सामान्यतः ऐसे ही माध्यमों से लोगों की मनोभूमि विकसित होती है। इसके अतिरिक्त भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने मनुष्य की अन्तःभूमि को श्रेष्ठता की दिशा में विकसित करने के लिए कुछ ऐसे सूक्ष्म उपचारों का भी आविष्कार किया है, जिनका प्रभाव शरीर तथा मन पर ही नहीं, सूक्ष्म अन्तःकरण पर भी पड़ता है और उसके प्रभाव से मनुष्य को गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से समुन्नत स्तर की ओर उठने में सहायता मिलती है।

इस आध्यात्मिक उपचार का नाम संस्कार है। भारतीय धर्म के अनुसार संस्कार १६ प्रकार के हैं। जिन्हें ‘षोडश संस्कार’ कहते हैं। माता के गर्भ में आने के दिन से लेकर मृत्यु तक की अवधि में समय- समय पर प्रत्येक भारतीय धर्मावलम्बी को १६ बार संस्कारित करके एक प्रकार का आध्यात्मिक रसायन बनाया जाता था। प्राचीनकाल में प्रत्येक भारतीय इसी प्रकार का एक जीता जागता रसायन होता था। मनुष्य शरीर में रहते हुए भी उसकी आत्मा देवताओं के स्तर की बनती थी। यहाँ के निवासी ‘भूसुर’ अर्थात् पृथ्वी के देवता माने जाते थे। उनके निवास की यह पुण्य भूमि भारत माता ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ समझी जाती थी। संस्कारवान् व्यक्तियों को तथा उनके निवास स्थान को ऐसा गौरव मिलना उचित भी था।

हमारी प्राचीन महत्ता एवं गौरव- गरिमा को गगनचुम्बी बनाने में जिन अनेक सत्प्रवृत्तियों को श्रेय मिला था, उसमें एक बहुत बड़ा कारण यहाँ की संस्कार पद्धति को भी माना जा सकता है। यह पद्धति सूक्ष्म अध्यात्म विज्ञान की अतीव प्रेरणाप्रद प्रक्रिया पर अवलम्बित है। वेद मन्त्रों के सस्वर उच्चारण से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंगें, यज्ञीय ऊष्मा के साथ सम्बद्ध होकर अलौकिक वातावरण प्रस्तुत करती हैं, जो भी व्यक्ति इस वातावरण में एकत्र होते हैं या जिनके लिए भी उस पुण्य प्रक्रिया का प्रयोग होता है, वे उससे प्रभावित होते हैं। यह प्रभाव ऐसे परिणाम उत्पन्न करता है, जिससे व्यक्तियों में गुण, कर्म, स्वभाव आदि की अनेक विशेषताएँ प्रस्फुटित होती हैं। संस्कारों की प्रक्रिया एक ऐसी आध्यात्मिक उपचार पद्धति है, जिसका परिणाम व्यर्थ नहीं जाने पाता। व्यक्तित्व के विकास में इन उपचारों से आश्चर्यजनक सहायता मिलती देखी जाती है।

संस्कारों में जो विधि- विधान हैं, उनका मनोवैज्ञानिक प्रभाव मनुष्य को सन्मार्गगामी होने की प्रेरणा देता है। संस्कार के मन्त्रों में अनेक ऐसी दिशाएँ भरी पड़ी हैं, जो उन परिस्थितियों के लिए प्रत्येक दृष्टि से उपयोगी हैं। पुंसवन संस्कार के समय उच्चारण किए जाने वाले मन्त्रों में गर्भवती के लिए रहन- सहन, आहार- विहार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण मौजूद हैं। इस प्रकार विवाह में दाम्पत्य जीवन की, अन्नप्राशन में भोजन- छाजन की, वानप्रस्थ में सेवापरायण जीवन की आवश्यक शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। उन्हें यदि कोई प्रभावशाली वक्ता, ठीक ढंग से समझाकर संस्कार के समय उपस्थित लोगों को बता सके, तो जिनका संस्कार से सम्बन्ध है, उन्हीं को नहीं, वरन् सुनने वाले दूसरे लोगों को भी इस सन्देश से अत्यावश्यक कर्त्तव्यों का ज्ञान हो सकता है और वे भी जीवन को उचित दिशा में ढालने के लिए तत्पर हो सकते हैं।

परिवार को संस्कारवान् बनाने की, कौटुम्बिक जीवन को सुविकसित बनाने की, एक मनोवैज्ञानिक एवं धर्मानुमोदित प्रक्रिया को संस्कार पद्धति कहा जाता है। हर्षोल्लास के वातावरण में देवताओं की साक्षी, अग्निदेव का सान्निध्य, धर्म- भावनाओं से ओत- प्रोत मनोभूमि, स्वजन- सम्बन्धियों की उपस्थिति, पुरोहित द्वारा कराया हुआ धर्म कृत्य, यह सब मिल- जुलकर संस्कार से सम्बन्धित व्यक्तियों को एक विशेष प्रकार की मानसिक अवस्था में पहुँचा देते हैं और उस समय जो प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, जो प्रक्रियाएँ कराई जाती हैं, वे अपना गहरा प्रभाव सूक्ष्म मन पर छोड़ती हैं और वह प्रभाव बहुधा इतना गहरा एवं परिपक्व होता है कि उसकी छाप अमिट नहीं, तो चिरस्थायी अवश्य बनी रहती है।

एक शिक्षा सामान्य ढंग से रास्ता चलते, उथले ‘मूड’ में कह दी जाए, तो उसका प्रभाव दूसरा होगा और उसी बात को धर्म सम्मिश्रित गंभीर वातावरण में कहा जाए, तो उसका प्रभाव अन्य प्रकार का होता है। मजाक में किसी की झूठी कसम खाई जा सकती है, पर गंगाजी में खड़े होकर या गंगाजली हाथ में लेकर गम्भीरतापूर्वक कसम खाना कुछ दूसरा ही अर्थ रखता है। व्यभिचारी लोग अपनी प्रेमिका को लम्बे चौड़े आश्वासन देते रहते हैं, उनकी कोई कीमत नहीं होती, पर विवाह संस्कार के अवसर पर सात भाँवर फिरते हुए जो वचन दिये जाते हैं, उनका वर- वधू दोनों पर ऐसा अमिट प्रभाव पड़ता है कि वे आजीवन परस्पर एक दूसरे से बँधा हुआ ही अनुभव करते रहते हैं। यों ध्यान से देखा जाए, तो उस भाँवर फिरने का कोई विशेष मूल्य दिखाई नहीं पड़ता। भाँवर फिरना, गाँठ जोड़ना, सात कदम साथ- साथ चलना इन सब बातों में साधारण से खेलकूद में होने वाले श्रम से अधिक क्या कोई विशेषता दिखाई पड़ती है? इनमें तो और भी कम श्रम लगता है; किन्तु जिस भावना के साथ, जिस वातावरण में विवाह विधान की छोटी- छोटी विधियाँ पूरी की जाती हैं, उनकी ऐसी मनोवैज्ञानिक छाप पड़ती है कि उससे जीवन भर इनकार नहीं किया जा सकता।

यही मनोविज्ञान सम्मत धर्म विधान अन्य सब संस्कारों के अवसर पर काम करता है। उनके द्वारा अन्तर्मन पर ऐसी छाप डाली जाती है, जो किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत, सुविकसित, सौजन्ययुक्त एवं कर्त्तव्यपरायण बनाने में समर्थ हो सके। ऋषियों ने अपनी आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक शोधों के आधार पर इस पुण्य प्रक्रिया का निर्माण किया है। वह जितनी प्रभावशाली पूर्वकाल में थी, उतनी ही आज भी है, यदि उसे ठीक ढंग से, उचित व्यवस्था के साथ, उपयुक्त वातावरण में सम्पन्न किया जाए तो।

परिष्कृत एवं सरल प्रक्रिया -

प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन संस्कार पद्धतियों को आधार मानकर यह संशोधित एवं परिष्कृत प्रक्रिया प्रस्तुत की गई है। इनमें निम्न बातों का विशेष रूप से ध्यान रखा गया है, (१) संस्कार कराने में बहुत अधिक समय न लगे। (२) प्रत्येक संस्कार में आवश्यक शिक्षाओं का समुचित समावेश हो। (३) विधान ऐसा सरल हो, जिससे करने वाले को विशेष कठिनाई न हो।

आम तौर से संस्कार पद्धति में विधान तो दिये गये हैं, पर उनकी आवश्यकता, उपयोगिता एवं पृष्ठभूमि नहीं बताई गई है। इस पुस्तक में यह प्रयत्न किया गया है कि प्रतीक क्रिया के साथ- साथ यह भी बता दिया जाए कि ऐसा क्यों कराया जा रहा है?

कोई व्यक्ति संस्कारों की संगति पदार्थ- विज्ञान से जोड़ते रहते हैं। वे कहा करते हैं, कान छेदने से बवासीर नहीं होता। मुण्डन कराने से सिर दर्द नहीं उठता। इस प्रकार के प्रतिपादन अक्सर काल्पनिक होते हैं। कोई डॉक्टर या वैज्ञानिक इसका खण्डन कर दे, तो पुरोहित को अपना कथन वापस लेना पड़ेगा। हमें झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। कोई स्थूल लाभ होते हों, पदार्थ विज्ञान से किसी संस्कार की कोई उपयोगिता सिद्ध होती हो, तो कोई हर्ज नहीं । परन्तु उसी पर अवलम्बित होना उचित नहीं। प्रत्येक धार्मिक कर्मकाण्ड का मुख्य आधार मनोविज्ञान एवं अध्यात्म है। यह भी तो एक विज्ञान है, स्थूल विज्ञान से उसकी उपयोगिता एवं क्षमता किसी भी प्रकार कम नहीं, वरन् अधिक ही है। पाप- पुण्य, सदाचार- दुराचार में अन्तर करना पदार्थ विज्ञान से नहीं, धर्म- विज्ञान से ही सम्भव हो सकता है। बहिन और पत्नी का अन्तर धर्म सिखाता है- विज्ञान नहीं। इसलिए जहाँ मानवीय अन्तःकरण को विकसित करने का प्रश्न उपस्थित होता है, वहाँ विज्ञान की कुछ उपयोगिता नहीं, वहाँ तो आस्था, विश्वास, उदारता, सद्भावना जैसी मनोवृत्तियाँ सहायक होती हैं। संस्कारों का वैज्ञानिक दृष्टि से क्या महत्त्व है? इस पर विवाद करना व्यर्थ है। उनके आध्यात्मिक एवं मानवीय लाभ इतने अधिक हैं कि उनकी तुलना में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में मिल सकने वाले सभी लाभ तुच्छ सिद्ध होते हैं। संस्कार पद्धति निश्चित रूप से एक विज्ञान सम्मत एवं प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाने वाली प्रक्रिया है। पर उसका प्रतिपादन प्रयोगशालाओं के भौतिकविज्ञानियों द्वारा नहीं, वरन् आध्यात्मिक लाभों, सामाजिक सत्परिणामों एवं मनोवैज्ञानिक तथ्यों के द्वारा ही समझा और प्रतिपादित किया जाना चाहिए। सोलह संस्कारों में से अब सभी की उपयोगिता नहीं रही, इसलिए इन सबका वर्णन आवश्यक नहीं। जो उपयोगी हों, उन्हें ठीक प्रकार मनाया जाने लगे, तो बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है।

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए संस्कारों की संख्या इस पुस्तक में सोलह से घटाकर दस कर दी गयी है। इन पर भी यदि जोर दिया जा सके, तो उसका परिणाम भी कम नहीं होगा, फिर जिन्हें सुविधा हो, वे १६ करें। उसके लिए पुरानी पद्धतियाँ मौजूद हैं। इस पुस्तक में उन्हीं संस्कारों को लिया गया है, जो आज भी उपयोगी हैं और जिन्हें करने के लिए प्रयत्न किया ही जाना चाहिए। प्रयत्न यह किया गया है कि इस प्रकार जिन संस्कारों को छोड़ना पड़ा है, जिन्हें उन्हीं दिनों मनाया जाता है। गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्त इन तीनों की प्रमुख प्रक्रिया गर्भवती के लिए नियत एक ही संस्कार में जोड़ दी गई है। जातकर्म और नामकरण का विधान सम्मिलित बना दिया गया है। विद्यारम्भ, उपनयन एवं समावर्तन का विधान एक ही यज्ञोपवीत संस्कार में है। कोई महत्त्वपूर्ण बात छूटने न पाए, इसका यथा सम्भव पूरा- पूरा ध्यान रखा गया है।

बच्चों का नाक- कान पुरानी परम्पराओं के अनुसार भले ही आभूषण धारण करने या शोभा- शृंगार का माध्यम माना जाता रहा हो, पर आज विवेकशील क्षेत्रों में उसकी उपयोगिता स्वीकार नहीं की जाती। इतना ही नहीं स्वास्थ्य एवं सफाई की दृष्टि से उसे हानिकारक ही माना जाता है। अब शोभा- शृंगार की कसौटी नाक, कान छेदना या शरीर पर लीला गुदाना नहीं रह गये हैं। इस विचार परिवर्तन के पीछे तथ्य भी है और बल भी। इसलिए कर्णवेध संस्कार को भी हटा दिया गया है। हमारे सामने परम्परा ही नहीं उपयोगिता की कसौटी भी प्रस्तुत है। उन्हीं परम्पराओं को प्रचलित रखने के हम पक्षपाती हैं, जो अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकें।

दो नये किन्तु उपयोगी संस्कार -

दो संस्कार इस पद्धति में नये बढ़ाए गये हैं। (१)जन्मदिवसोत्सव और (२) विवाहदिवसोत्सव। इन्हें हर व्यक्ति हर साल मना सकता है। (१) मनुष्य के लिए इस संस्कार में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उसका अपना व्यक्तित्व निर्माण ही है। अपना नाम, अपना रूप, अपना यश, अपना धन व्यक्तित्व निर्माण ही है। अपना नाम, अपना रूप, अपना यश, अपना धन सबको प्यारा लगता है। अपना जन्मदिन भी किसी व्यक्ति के लिए उसके अवतरण की सुखद स्मृति का सबसे आनन्ददायक दिन हो सकता है। उसे हर्षोल्लास के रूप में मनाते हुए भला किसको प्रसन्नता न होगी? बच्चों का जन्मदिन मनाने की प्रथा हमारे देश में सर्वत्र प्रचलित है। विदेशों में बड़े आदमियों का जन्मदिन भी उनके जीवन के व्यक्तिगत विशेष त्योहार के रूप में मनाये जाने की प्रथा है। इष्ट- मित्र, स्वजन सम्बन्धी एकत्रित होकर उस दिन अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करते और आमोद- प्रमोद मनाते हैं। हमारे यहाँ इसे जीवन समस्या पर विचार करने, शेष जीवन को अधिक परिष्कृत बनाने, मानव जीवन के उपलब्ध सौभाग्य पर सन्तोष अनुभव करने और स्वजन सम्बन्धियों को, इष्ट- मित्रों को इन अभिव्यक्तियों में सम्मिलित करने के रूप में मनाया जाता है।

(२) इसी प्रकार विवाहदिवसोत्सव भी महत्त्वपूर्ण है। विवाह से ही हर व्यक्ति अपने नये परिवार एवं समाज का निर्माण करता है। आत्म भाव को द्विगुणित करने की अद्भुत आध्यात्मिक क्रान्ति विवाह द्वारा ही मूर्तिमान् होती है। वह दिन हर गृहस्थ के लिए बड़ा प्रेरणाप्रद है। अनेक सामाजिक उत्तरदायित्व गृहस्थ के साथ ही कन्धे पर आते हैं। उन्हें गाड़ी के दो पहियों की तरह स्त्री- पुरुष मिल- जुलकर अग्रसर करते हैं। ऐसा शुभ दिन एक हर्षोल्लास के रूप में मनाया ही जाना चाहिए। उस दिन को अतीत की स्मृति को ताजा करने वाले एक जीवन्त संस्मरण के रूप में मनाया जाना चाहिए और उन प्रतिज्ञाओं को हर वर्ष दुहराना चाहिए, जो विवाह के दिन दोनों ने गृहस्थ की सार्थकता के लिए की थी। ऐसा करने से वैवाहिक जीवन में जिम्मेदारियों को निबाहने के लिए नई प्रेरणा एवं स्फूर्ति मिलती है।

यह दो उत्सव हर व्यक्ति के जीवन में एक नया सन्देश एवं उल्लास लेकर आते हैं। इन्हें मनाने की व्यवस्था में थोड़ा धन और समय लगे, तो चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इसके बदले में जो मिलने वाला है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण एवं अधिक मूल्यवान् है। जिनके घर में कोई हर्षोल्लास मनाने का अवसर नहीं है, उन्हें भी वर्ष में दो बार आनन्द विभोर होने एवं अपने इष्टमित्रों के साथ प्रमुदित होने का अवसर मिल सकता है। संगठन की दृष्टि से सामाजिकता, सामूहिकता एवं स्नेह- सौहार्द्र बढ़ाने की दृष्टि से भी यह आयोजन उत्तम है। इष्ट- मित्रों से बार- बार मिलना- जुलना होता रहे, तो उससे आत्मीयता बढ़ती है और यह बढ़ती हुई मैत्री कुछ न कुछ सत्परिणाम ही उत्पन्न करती है।

युग निर्माण योजना में विवेकशील सज्जनों का संगठन सबसे पहला काम है। इन दिनों हर्षोत्सवों के माध्यम से यह उद्देश्य अधिक आसानी और तेजी से पूरा होता रह सकता है। बार- बार निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के सम्बन्ध में चर्चा करना निरर्थक नहीं कहा जा सकता है। उसका परिणाम नव- निर्माण आन्दोलन को सफल बनाने की दृष्टि से उत्साहवर्द्धक ही हो सकता है।

संस्कारों की पद्धति परिवार प्रशिक्षण की सर्वोत्तम पद्धति है, आमतौर से घर के लोगों को असर घर वालों पर नहीं पड़ता। ‘अति परिचय से अवज्ञा’ वाली उक्ति के विरुद्ध कुछ सिखाना- समझाना सम्भव नहीं होता। दूसरी बात यह भी है कि कोई बात बार- बार कही जाती रहे और उसे एक ही व्यक्ति कहे, तो वह कानों के अभ्यास में आ जाती है और फिर उसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। संस्कारों की प्रथा प्रचलित करके हम इस कमी को दूर कर सकते हैं। सुयोग्य पुरोहित या वक्ता बाहर के आदमी होते हैं, उनके तर्कपूर्ण प्रवचन प्रभावित करते हैं। फिर उस धर्मानुष्ठान के अवसर पर वातावरण एवं ‘मूड’ भी ऐसा लगता है कि कोई शिक्षाप्रद बात गम्भीरता से सुनी- समझी जा सके। परिवार में कई लोग होते हैं। किसी न किसी का कोई न कोई संस्कार आता ही रहता है। फिर जन्मोत्सव का भी तो क्रम चलाया जाता है। इस प्रकार साल में दो बार तो घर में संस्कार आयोजन की बात बन ही सकती है और इस बहाने परिवार के प्रशिक्षण का ठोस क्रम व्यवस्थित रूप से चलता रह सकता है। इन आयोजनों में लोगों से बहुत कुछ कहने समझने का अवसर मिल सकता है और वह प्रेरणा यदि तर्क और तथ्यपूर्ण हो, तो उसका प्रभाव एवं परिणाम होना ही चाहिए। व्यक्तियों के स्वभाव में, पारिवारिक वातावरण में एवं लोक व्यवहार में हमें अनेक सत्प्रवृत्तियों का समावेश करना है। रचनात्मक सत्कर्म में लोक मानस को संलग्न करना है, उसके लिए प्रथम कार्य प्रेरणा देना ही तो है। कोई बात पहले विचार में आती है, तभी तो उसके कार्यरूप में परिणत होने का अवसर आता है। बीज बोने के बाद ही तो पौधा उगने की आशा बँधती है। विचार बीज है, तो कर्म पौधा। सत्प्रवृत्ति के रूप में सत्कर्म के बीज बोने के लिए संस्कार आयोजन पूर्णतः समर्थ होते हैं।

संस्कार क्रम व्यवस्था -

संस्कारों की व्यवस्था सामूहिक यज्ञों, साप्ताहिक यज्ञायोजनों, प्रज्ञा- संस्थानों तथा घरों पर की जा सकती है। प्रयास यह किया जाना चाहिए कि संस्कार कराने वालों को व्यवस्था में परेशान न होना पड़े। उपकरणों से लेकर विशेष सामग्री आदि की व्यवस्था शाखा परिजन अपनी ओर से करें। प्रज्ञा संस्थान या शाखा केन्द्र पर सभी संस्कारों से सम्बन्धित वस्तुएँ सहज क्रम में आसानी से संचित रह सकती हैं। संस्कार कराने वालों को एक- एक वस्तु के लिए बहुत समय और श्रम लगाना पड़ता है। यदि घरों पर संस्कार कराये जायें, तो भी उनके जिम्मे वही व्यवस्थाएँ दी जाएँ, जो वे सुगमता से कर सकें। प्रज्ञा संस्थानों एवं बड़े यज्ञायोजनों में तो पूरी व्यवस्था रखी ही जाती है।

कार्यक्रम प्रारम्भ करने से पूर्व सारी व्यवस्था जमा ली जाए। यदि किसी वस्तु की कमी हो, तो उसके लिए हो हल्ला मचाकर वातावरण में तनाव पैदा न किया जाए। शांत मस्तिष्क से विचार करके यदि सहज क्रम में व्यवस्था हो सकती है, तो प्रामाणिक व्यक्ति को जिम्मेदारी सौंपकर कार्य आरम्भ कराया जाए। यदि व्यवस्था होती न दीखे, तो संस्कार कराने वालों के मन में अभाव का कुसंस्कार न जमने दिया जाए। चुपचाप विवेकपूर्वक उसका विकल्प मन में बना लिया जाए। किसी वस्तु के अभाव से कर्मकाण्ड में जो कमी आती है, उसकी पूर्ति सशक्त भावना तथा उल्लास भरे क्रम से हो जाती है, परन्तु अभाव के संस्कार या तनाव से भावना कुण्ठित होती है और उससे होने वाली कमी, कमी ही रह जाती है। संचालकों को भावना और उल्लास का वातावरण कायम रखने की कला में प्रवीणता प्राप्त करनी चाहिए। सारी व्यवस्था जमाकर संस्कार कराने से सम्बद्ध प्रमुख पात्रों को बुलाकर नीचे लिखे क्रम से कर्मकाण्ड चलाया जाए। यह क्रम घरों या स्वतन्त्र रूप से देव स्थलों पर संस्कार कराने की दृष्टि से बनाया गया है। सामूहिक यज्ञायोजनों में आवश्यकतानुसार थोड़ा- बहुत हेर- फेर कर लिया जा सकता है।,
  1. संस्कार कराने वालों पर भद्रं कर्णेभिः...मन्त्र के साथ अक्षत वर्षा करते हुए उन्हें आसन पर बिठाया जाए। यह मन्त्र इसी पुस्तक में यज्ञारम्भ के स्थल पर है।
  2. यज्ञ एवं पूजन के लिए जिन्हें बिठाया गया है, उन सबको षट्कर्म कराया जाए।
  3. षट्कर्म के बाद संक्षेप में संस्कार का उद्देश्य और महत्त्व समझाते हुए उन्हें सङ्कल्प कराया जाए। यज्ञ सङ्कल्प के अनुसार..नामाहं के आगे यह सङ्कल्प जोड़ें। श्रुति, स्मृति, पुराणोक्त फल पाने के लिए आत्म- कल्याण, लोकमंगल, वातावरण परिष्कार एवं उज्ज्वल भविष्य के लिए ..... संस्कार का महत्त्व और उत्तरदायित्व स्वीकार करते हुए, देव आवाहन एवं यज्ञादि सहित संस्कार- कर्म, श्रद्धा- निष्ठापूर्वक सम्पन्न करने का सङ्कल्प हम करते हैं।
  4. संस्कार कर्म करने वालों का यज्ञोपवीत बदलवायें। यदि वह पहले से न पहने हो, तो संस्कार कर्म के लिए अस्थाई रूप से ही पहना दें। उन्हें समझा दें, कि यज्ञोपवीत व्रतबन्ध कहा जाता है। संस्कारों के लिए व्रतशील जीवन जीना चाहिए। उसके पुण्य प्रतीक रूप में यज्ञोपवीत धारण कर लें। यदि वे स्थाई उत्साह दिखायें, तो उन्हें समझा दें कि यह यज्ञोपवीत तब तक काम देगा, जब तक स्थाई संस्कार नहीं करा लेते। यज्ञोपवीत परिवर्तन के लिए मन्त्र याद न हों, तो यज्ञोपवीत संस्कार से देख लें।

    बाँयें हाथ में यज्ञोपवीत देकर गायत्री मन्त्र के साथ उस पर जल के छींटे लगवाएँ। फिर निर्धारित क्रम के साथ पाँच देव शक्तियों का आवाहन करके ‘धारण- मन्त्र’ के साथ यज्ञोपवीत धारण करा दें।
  5. इसके बाद रक्षासूत्र- कलावा बाँधें और तिलक करें। यह कार्य आचार्य स्वयं करे या अपने किसी सहयोगी- प्रतिनिधि से करवाएँ। मन्त्रादि यज्ञ प्रकरण में हैं।
  6. इतना करके संक्षिप्त हवन विधि के क्रम से रक्षाविधान तक का कर्मकाण्ड पूरा करें।
  7. रक्षाविधान के बाद संस्कार विशेष के विशिष्ट कर्मकाण्ड प्रेरक व्याख्याओं सहित सम्पन्न कराएँ। यह सब सम्बन्धित संस्कारों में दिये गये हैं। केवल विशेष आहुति एवं आशीर्वाद बाद के लिए रोक लेने चाहिए।
  8. इन कृत्यों के बाद अग्नि स्थापना से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ कराने तक का क्रम संक्षिप्त हवन विधि से चलाया जाए।
  9. अब विशेष आहुति के बाद स्विष्टकृत आहुति से लेकर विसर्जन के पूर्व तक के क्रम समय एवं परिस्थिति के अनुसार करा लिए जाएँ।,
  10. अन्त में आशीर्वाद का क्रम भावभरे वातावरण में किया जाए। तत्पश्चात् विसर्जन करा दिया जाए।
  11. आशीर्वाद के लिए मङ्गल मन्त्र इसी पुस्तक के पृष्ठ ४१६ में दिये गये हैं। उनमें से आवश्यकतानुसार प्रयोग कर लेना चाहिए।
    समय की सीमा ध्यान में रखते हुए कर्मकाण्ड तथा व्याख्याओं का संक्षेप या विस्तार कर लेना चाहिए। सन्तुलन ऐसा बनाना चाहिए कि विशेष कर्मकाण्ड तथा उससे सम्बन्धित प्रेरणाओं को उभारने के लिए पर्याप्त समय मिल जाए। जहाँ समय की कमी हो, वहाँ यज्ञ एवं कर्मकाण्ड की टिप्पणियाँ न्यूनतम करते हुए विशेष कर्मकाण्ड के लिए समय बचा लेना चाहिए।

    संस्कार आयोजन के अन्तर्गत दुहरी प्रक्रिया चलती है। एक तो जिसका संस्कार है, उसके अन्तःकरण में दिव्य वातावरण में वाञ्छित श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण किया जाता है। साथ ही उन बीजों को विकसित और फलित करने के मुख्य सूत्रों पर सबका ध्यान खींचने तथा आस्था जमाने का क्रम भी चलता है। बीजारोपण शिशुओं से लेकर वयस्कों तक में समान रूप से होता है, परन्तु उसे फलित करने के सूत्रों को विकसित मस्तिष्क ही समझ और ग्रहण कर पाते हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं को जीवन्त बनाये रखकर ही संस्कारों को प्रभावशाली बनाया जाता है। कर्मकाण्ड संचालकों को व्याख्याएँ, टिप्पणियाँ तथा समग्र प्रवाह इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर ही बनाना चाहिए। इसके अनुरूप शिक्षण प्रेरणा तथा क्रिया और भावना दोनों को ही सन्तुलित ढंग से उभारा जाना चाहिए।
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