कर्मकाण्ड भास्कर

वसन्त पंचमी

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माहात्म्यबोध- वसन्त पंचमी शिक्षा, साक्षरता, विद्या और विनय का पर्व है। कला, विविध गुण, विद्या को- साधना को बढ़ाने, उन्हें प्रोत्साहित करने का पर्व है- वसन्त पंचमी। मनुष्यों में सांसारिक, व्यक्तिगत जीवन का सौष्ठव, सौन्दर्य, मधुरता उसकी सुव्यवस्था यह सब विद्या, शिक्षा तथा गुणों के ऊपर ही निर्भर करते हैं। अशिक्षित, गुणहीन, बलहीन व्यक्ति को हमारे यहाँ पशुतुल्य माना गया हैं। अशिक्षित, गुणहीन बलहीन व्यक्ति को हमारे यहाँ पशुतुल्य माना गया है। साहित्य सङ्गीत कलाविहीनः, साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः। इसलिए हम अपने जीवन को इस पशुता से ऊपर उठाकर विद्या- सम्पन्न, गुण सम्पन्न- गुणवान् बनाएँ वसन्त पंचमी इसी की प्रेरणा का त्यौहार है।

भगवती सरस्वती के जन्म दिन पर उनके अनुग्रह के लिए कृतज्ञता भरा अभिनन्दन करें- उनकी अनुकम्पा का वरदान प्राप्त होने की पुण्यतिथि पर हर्षोल्लास मनाएँ, यह उचित ही है। दिव्य शक्तियों को मानवी आकृति में चित्रित करके ही उनके प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति सम्भव है। भावोद्दीपन मनुष्य की निज की महती आवश्यकता है। शक्तियाँ सूक्ष्म, निराकार होने से उनकी महत्ता तो समझी जा सकती है, शरीर और मस्तिष्क द्वारा उनसे लाभ उठाया जा सकता है, पर अन्तःकरण की मानस चेतना जगाने के लिए दिव्यतत्त्वों को भी मानवी आकृति में संवेदनायुक्त मनःस्थिति में मानना और प्रतिष्ठापित करना पड़ता है। इसी चेतना विज्ञान को ध्यान में रखते हुए भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने प्रत्येक दिव्य शक्तियों को मानुषी आकृति और भाव गरिमा में सँजोया है। इनकी पूजा, अर्चना, वन्दना, धारणा हमारी अपनी चेतना को उसी प्रतिष्ठापित देव गरिमा के समतुल्य उठा देती है, साधना विज्ञान का सारा ढाँचा इसी आधार पर खड़ा है।

भगवती सरस्वती की प्रतिमा, मूर्ति अथवा तस्वीर के आगे पूजा- अर्चा की प्रक्रिया की जाए, इसका सीधा तात्पर्य यह है कि शिक्षा की महत्ता को स्वीकार, शिरोधार्य किया जाए, उनको मस्तक झुकाया जाए अर्थात् मस्तक में उनके लिए स्थान दिया जाए। अपनी आज की ज्ञान सीमा जितनी है, उसे और अधिक बढ़ाने का प्रयत्न किया जाए। वास्तव में संग्रह करने और बढ़ाने योग्य सम्पदा धन नहीं, ज्ञान है। लक्ष्मी नहीं, विद्या का अधिक संग्रह सम्पादन किया जाना चाहिए। परीक्षा के लिए पढ़ना भी अच्छा है। विदेशों में श्रमजीवी, व्यापारी, शिल्पी तथा दूसरे लोग रात्रि विद्यालयों में निरन्तर पढ़ते रहते हैं तथा बचपन में स्वल्प शिक्षा रहते हुए भी धीरे- धीरे ज्ञान- सम्पदा बढ़ाते चलते हैं और जीवन के अन्तर तक अपनी रुचि के विषय में निष्णात् बन जाते हैं, ऊँची से ऊँची उपाधि प्राप्त कर लेते हैं।

अपने देश में यह समझा जाता है कि विद्या नौकरी करने के लिए प्राप्त की जानी चाहिए- यह विचार बहुत ही ओछा और निकृष्ट है। उसमें विद्या की हेटी- खोटी समझकर उसका अपमान करने की धृष्टता छिपी हुई है। विद्या मनुष्य के मस्तिष्क के व्यक्तित्व के गौरव के निखार एवं विकास के लिए है। पेट भरने की तरह मानसिक भूख बुझाने के लिए दैनिक जीवन में अध्ययन के लिए भी स्थान रखना चाहिए। जिन्हें सरकारी पाठ्यक्रम परीक्षा स्तर की पढ़ाई पढ़नी हो, वे रात्रि विद्यालयों- ट्यूटोरियल स्कूलों की व्यवस्था और उनके आधार पर पढ़ाई जारी रखें, जिन्हें किन्हीं विशेष विषयों में रुचि हो, उनका साहित्य खरीद कर अथवा पुस्तकालयों द्वारा प्राप्त कर अपनी ज्ञान गरिमा बढ़ाएँ। भगवती सरस्वती के पूजन- वन्दन के साथ- साथ इस स्तर की प्रेरणा ग्रहण करने और उस दिशा में कदम उठाने का साहस करना चाहिए। स्वाध्याय हमारे दैनिक जीवन का अङ्ग बन जाए। ज्ञान की गरिमा को हमें समझना चाहिए कि सरस्वती पूजन की प्रक्रिया ने अन्तःकरण तक प्रवेश पा लिया।

अपने देश में शिक्षितों की संख्या २३ प्रतिशत और अशिक्षितों की ७७ प्रतिशत है। यह अभाव अन्न की भुखमरी से भी अधिक भयावह है। यदि मनुष्य शरीर मात्र बनकर जिए, उसकी बौद्धिक परिधि चौड़ी न हो सकी, तो उसे पशु जीवन ही कहा जायेगा। अपने देश की तीन चौथाई जनसंख्या इसी स्तर का जीवनयापन करती है। अन्न का अकाल जब पड़ता है, तब सरकारी गैर- सरकारी स्तर पर दयालु, दानी और लोकसेवियों द्वारा उस कष्ट का निवारण करने के लिए कितने ही उपाय किये जाते हैं, पर अत्यन्त खेद की बात है कि इस बौद्धिक भुखमरी की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। स्कूली बच्चों की पढ़ाई भर का थोड़ा- सा प्रबन्ध सरकार कर ही रही है, बाकी प्रौढ़ महिलाएँ उसी निरक्षरता की व्यथा से ग्रसित हैं। छोटे देहातों में तो लड़कों के लिए भी पढ़ाई का प्रबन्ध नहीं, पिछड़े वर्ग के लोग पढ़ाई की आवश्यकता ही नहीं समझते। जिनके पास गुजारे को है, वे कहते हैं कि हमें बच्चों से नौकरी थोड़े ही करानी है, हम क्यों पढ़ाएँ? लड़कियों का पढ़ना तो अभी भी बेकार समझा जाता है। इस स्थिति का अन्त किया जाना चाहिए। शिक्षितों को विद्या ऋण चुकाने के लिए अपने समीपवर्ती अशिक्षितों को पढ़ाने का सङ्कल्प लेना चाहिए और एक नियत संख्या में उन्हें शिक्षित बनाकर ही रहना चाहिए।

ऊँची पढ़ाई के लिए रात्रि विद्यालय, प्रौढ़ पुरुषों के लिए रात्रि पाठशालाएँ, प्रौढ़ महिलाओं के लिए अपराह्न पाठशालाएँ पढ़ने योग्य बच्चों को स्कूल भिजवाने के लिए उनके अभिभावकों से आग्रह, कन्या शिक्षा के लिए वातावरण बनाना तथा व्यवस्था करना, नये स्कूल खुलवाने के लिए सरकार से आग्रह एवं जनता से सहयोग एकत्रित करना, चालू विद्यालयों का विकास- विस्तार का प्रबन्ध करना, पुस्तकालयों की स्थापना, चल पुस्तकालयों का प्रचलन, छात्रों को पुस्तकें उधार देने वाले पुस्तक बैंक आदि कितने ही शिक्षा प्रसार सम्बन्धी ऐसे कार्यक्रम हैं, जिन्हें पूरे उत्साह के साथ सर्वत्र विकसित किया जाना चाहिए। वसन्त पर्व पर सरस्वती पूजन की यह प्रक्रिया उचित ही होगी।

भगवती सरस्वती के हाथ में वीणा है, उनका वाहन मयूर है, मयूर अर्थात् मधुरभाषी। हमें सरस्वती का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए उनका वाहन मयूर बनना चाहिए। मीठा, नम्र, विनीत, सज्जनता, शिष्टता और आत्मीयतायुक्त सम्भाषण हर किसी से करना चाहिए। जीभ को कड़ुआ, धृष्ट, अशिष्ट बोलने की आदत कदापि न पड़ने दें। छोटों को भी तू नहीं, आप कहकर बोलें, कम से कम तुम तो कहें ही। हर किसी के सम्मान की रक्षा करें; ताकि किसी को आत्महीनता की ग्रन्थि का शिकार बनाने का पाप अपने सिर पर न चढ़े।

प्रकृति ने मोर को कलात्मक तथा सुसज्जित बनाया है। हमें भी अपनी अभिरुचि परिष्कृत बनानी चाहिए, हम प्रेमी बनें, सौन्दर्य, स्वच्छता और सुसज्जनता का शालीनतायुक्त आकर्षण अपने प्रत्येक उपकरण एवं क्रियाकलाप में नियोजित रखें, तभी भगवती सरस्वती हमें अपना वाहन, पार्षद, प्रिय पात्र मानेंगी। हाथ में वीणा, अर्थात्- संगीत गायन जैसी भावोत्तेजक प्रक्रिया को अपने प्रसुप्त अन्तःकरण में सजगता भरने के लिए प्रयुक्त करना है। हम कला प्रेमी बनें, कला पारखी बनें, कला के पुजारी और संरक्षक भी। माता की तरह उसका सात्त्विक एवं पोषक पय पान करें, उच्च भावनाओं के जागरण में उसे सँजोएँ। जो अनाचारी कला के साथ व्यभिचार क रने पर तुले हुए हों, पशु प्रवृत्ति भड़काने और कामुकता, अश्लीलता एवं कुरुचि उत्पन्न करने में लगे हों, उनका न केवल असहयोग- विरोध ही करें, वरन् विरोध- भर्त्सना के अतिरिक्त उन्हें असफल बनाने में भी कुछ कसर उठा न रखें।

सरस्वती के अवतरण पर्व पर प्रकृति खिलखिला पड़ती है, हँसी और मुस्कान के फूल खिल पड़ते हैं। उल्लास, उत्साह और प्रकृति के अभिनव सृजन के प्रतीक नवीन पल्लव प्रत्येक वृक्ष पर परिलक्षित होते हैं। मनुष्य में भी जब ज्ञान का, शिक्षा का प्रवेश होता है- सरस्वती का अनुग्रह अवतरित होता है, तो स्वभाव में, दृष्टिकोण में क्रिया कलाप में वसन्त ही बिखरा दीखता है। हलकी- फुलकी, चिन्ता और उद्वेगों से रहित खेल जैसी जिन्दगी जीने की आदत पड़ जाती है। हर काम की पूरी- पूरी जिम्मेदारी अनुभव करने पर भी मन पर बोझ किसी भली- बुरी घटना का न पड़ने देना यही है हलकी- फुलकी जिन्दगी, पुष्पों की तरह अपने दाँत हर समय खिलते रहें, मुसकान चेहरे पर अठखेलियाँ करती रहे। चित्त हलका रखना, आशा और उत्साह से भरे रहना, उमंगें उठने देना, उज्ज्वल भविष्य के सपने सँजोना, अपने व्यक्तित्व को फूल जैसा निर्मल, निर्दोष, आकर्षक एवं सुगन्धित बनाना- ऐसी ही अनेक प्रेरणाएँ वसन्त ऋतु के आगमन पर पेड़- पौधों पर नवीन पल्लवों- पुष्पों को देखकर प्राप्त की जा सकती है। कोयल की तरह मस्ती में कूँकना, भौरों की तरह गूँजना- गुनगुनाना जीवन की कला जानने वाले के चिह्न हैं। हर जड़ चेतन में, वसन्त ऋतु में एक सृजनात्मक उमंग देखी जाती है। उस उमंग को वासना से ऊँचा उठाकर भावोल्लास में विकसित किया जाना चाहिए। सरस्वती का अभिनन्दन प्रकृति, वसन्त अवतरण के रूप में करती है। हम पूजा वेदी पर पुष्पाञ्जलि भेंट करने के साथ- साथ जीवन में वसन्त जैसा उल्लास, कलात्मक प्रवृत्तियों का विकास और ज्ञान संवर्धन का प्रयास करके सच्चे अर्थों में भगवती का पूजन कर सकते हैं और उसका लाभ अपने को तथा अन्य असंख्यों को पहुँचा सकते हैं। युग निर्माण योजना का जन्मदिन वसन्त पंचमी है, इसकी लगभग सारी महत्त्वपूर्ण गतिविधियाँ वसन्त पंचमी से ही आरम्भ हुई हैं-

१. योजना के संचालक का आत्मबोध, पर्व एवं दीर्घकालीन तप साधना का आरम्भ २. गायत्री तपोभूमि का शिलान्यास ३. सहस्रकुण्डीय गायत्री यज्ञ के माध्यम से ४ लाख जीवन्त आत्माओं का मथुरा में सम्मेलन और परिवार का संगठन ४. अखण्ड ज्योति, युग निर्माण पत्रिकाओं का प्रारम्भ ५. आर्षग्रन्थों के अनुवाद का प्रारम्भ जैसी प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ इसी दिन से प्रारम्भ की जाती रही हैं। इस दृष्टि से इसे एक आन्दोलन अभियान का जन्मदिन भी कह सकते हैं। युग निर्माण को इसे युग परिवर्तनकारी ज्ञानगंगा का, ज्ञान क्रान्ति का, लाल मशाल का, जन्मदिन मनाना चाहिए और इस अवसर पर मिशन का स्वरूप अधिकाधिक जनता तक पहुँचाने के लिए उसका कार्यक्षेत्र बढ़ाने के लिए नैतिक बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति का अनुगामी बनाने के लिए विशेष उत्साहपूर्वक प्रयत्न करना चाहिए। शाखाएँ वसन्त पर्व को अपना नवीन वर्ष मानें। पिछले वर्ष के कार्य का लेखा- जोखा लें और अगले कार्य का लक्ष्य निर्धारित करें।

॥ पूर्व व्यवस्था॥

वसन्त पंचमी पर्व युग निर्माण परिवार के परिजनों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। उसकी सनातन महत्ता भी कम नहीं है, फिर भी मिशन के सूत्र संचालक के आध्यात्मिक जन्मदिन के रूप में उसका महत्त्व और भी बढ़ गया है। पर्व आयोजन का जो विधान यहाँ दिया जा है- वह सार्वभौम उपयोगिता का ही दिया जा रहा है। प्रयास यह किया जाना चाहिए कि अपने प्रभाव क्षेत्र के सभी संस्थानों- पुस्तकालयों आदि में वसन्तपर्व प्रेरणास्पद ढंग से मनाया जा सके। पर्व संचालन करने वाले यदि पाठ रटाकर भी तैयार किये जा सकें, तो तमाम स्थानों पर एक साथ ये आयोजन किये जा सकते हैं। वैसे प्रातः, मध्याह्न और सायं तीन समयों में आयोजन विभक्त करके भी अधिक स्थानों पर क्रमशः आयोजन कर सकते हैं। उसके लिए व्यवस्था में कुशल सहयोगियों को तैयार करना पड़ता है। वे हर स्थान पर पूर्व व्यवस्था सही ढंग से बनाकर रखें।

पूर्व व्यवस्था में अन्य पर्वों की तरह पूजन मंच तथा श्रद्धालुओं के बैठने की व्यवस्था पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मंच पर माता सरस्वती का चित्र, वाद्ययन्त्र सजाकर रखना चाहिए। चित्र में मयूर न हो, तो मयूरपंख रखना पर्याप्त है। पूजन की सामग्री तथा अक्षत, पुष्प, चन्दन, कलावा, प्रसाद आदि उपस्थिति के अनुसार रखें। युग निर्माण मिशन के संचालक का आध्यात्मिक जन्मदिन मनाने के लिए जन्मदिन संस्कार के अनुसार व्यवस्था बना सकते हैं। उनके अभिनन्दन के लिए युगपुरुष वन्दना (प्रज्ञापुराण के प्रथम खण्ड के अन्त में छपी है) भी संस्कृत अथवा हिन्दी में सधे हुए कण्ठ से संक्षिप्त टिप्पणियों सहित गाई जा सकती है।

॥ पूर्व पूजन क्रम॥

पर्व पूजन के प्रारम्भिक उपचार षट्कर्म से रक्षाविधान तक सभी पर्वों की तरह करते हैं। विशेष पूजन क्रम में माँ सरस्वती का षोडशोपचार पूजन करके उनके उपकरण, वाहन तथा वसन्त पूजन का क्रम चलता है।

युग निर्माण मिशन के सूत्र संचालक का आध्यात्मिक जन्मदिन मनाना है, तो वसन्त पूजन के बाद उस क्रम को जोड़ा जाना चाहिए। सङ्कल्प में नवसृजन सङ्कल्प की संगति दोनों ही समारोहों के साथ ठीक- ठीक बैठती है। नवसृजन के लिए अपने समय, प्रभाव ज्ञान, पुरुषार्थ एवं साधनों के अंश लगाने की सुनिश्चित रूपरेखा बनाकर ही सङ्कल्प किया जाना उचित है।

समापन क्रम अन्य पर्वों की तरह ही पूरे किये जाते हैं।

॥ सरस्वती आवाहन॥

माँ सरस्वती शिक्षा, साक्षरता तथा भौतिक ज्ञान की देवी हैं। चूँकि वसन्त पंचमी भी शिक्षा- साक्षरता का पर्व है, इसलिए इस अवसर पर प्रधान रूप से देवी सरस्वती का पूजन किया जाता है। सरस्वती का चित्र अथवा प्रतिमा स्थापित कर देवी सरस्वती का आवाहन करना चाहिए।

ॐ पावका नः सरस्वती, वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः॥ ॐ सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि ध्यायामि। - २०.८४
तदुपरान्त षोडशोपचार पूजन (पृष्ठ ९६) करके प्रार्थना करें-
ॐ मोहान्धकारभरिते हृदये मदीये, मातः सदैव कुरुवासमुदारभावे।
स्वीयाखिलावयव- निर्मल, शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम्॥
सरस्वति महाभागे, विद्ये कमललोचने। विद्यारूपे विशालाक्षि, विद्यां देहि नमोऽस्तु ते॥
वीणाधरे विपुलमंगलदानशीले, भक्तार्तिनाशिनि विरंचिहरीशवन्द्ये। कीर्तिप्रदेऽखिल- मनोरथदे महार्हे,
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम्॥
॥ वाद्ययन्त्र पूजन॥

वाद्य सङ्गीत मनुष्य की उदात्त भावनाओं और उसकी हृदय तरंगों को व्यक्त करने के सहयोगी साधन हैं। इसलिए इन साधनों का पूजन करना, उनके प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धा- भावना प्रकट करना है। स्मरण रहे, स्थूल और जड़ पदार्थ भी चेतनायुक्त तरंगो से स्वर लहरियों के संयोग से सूक्ष्म रूप में एक विशेष प्रकार की चेतना से युक्त हो जाते हैं, इसलिए वाद्य केवल स्थूल वस्तु नहीं; प्रत्युत् उनमें मानव हृदय की सी तरंगो को समझकर उनकी पूजा करनी चाहिए। चर्मरहित जो वाद्ययंत्र उपलब्ध हों, उन्हें एक चौकी पर सजाकर रखें। पुष्प, अक्षत आदि समर्पित कर पूजन करें।

ॐ सरस्वती योन्यां गर्भमन्तरश्विभ्यां, पत्नी सुकृतं बिभर्ति।
अपा रसेन वरुणो न साम्नेन्द्र , श्रियै जनयन्नप्सु राजा॥- १९.९४

॥ मयूरपूजन॥

मयूर- मधुर गान तथा प्रसन्नता का सर्वोत्कृष्ट प्रतीक प्राणी है। मनुष्य मयूर की भाँति अपनी वाणी, व्यवहार तथा जीवन को मधुरतायुक्त आनन्ददायी बनाए, इसके लिए मयूर की पूजा की जाती है।

सरस्वती के चित्र में अंकित अथवा प्रतीक रूप में स्थापित मयूर का पूजन करें। अक्सर चित्रों में मयूर का चित्र होता ही है। यदि कहीं ऐसा चित्र सुलभ न हो, तो मयूर पंख को पूजा के लिए प्रयुक्त कर लेना चाहिए। निम्न मन्त्र से मयूर का पूजन किया जाए।

ॐ मधु वाताऽऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥ - १३.२७

॥ वसन्त पूजा॥

पुष्प प्रसन्नता, उल्लास और नवजीवन के खिलखिलाते रूप के मूर्त प्रतीक होते हैं। प्रकृति के गोद में पुष्पों की महक, उनका हँसना, खेलना, घूमना मनुष्य के लिए उल्लास, प्रफुल्लता का जीवन बिताने के लिए मूक सन्देश है। इसी सन्देश को हृदयंगम करने, जीवन में उतारने के लिए पुष्प का पूजन किया जाता है। खेतों में सर्षप (सरसों) पुष्प जो वासन्ती रंग के हों अथवा बाग आदि से फूल पहले ही मँगवाकर एक गुलदस्ता बना लेना चाहिए। वसन्त का प्रतीक मानकर इसका पूजन करें।

ॐ वसन्ताय कपिंजलानालभते, ग्रीष्माय कलविङ्कान्, वर्षाभ्यस्तित्तिरीञ्छरते, वर्त्तिका हेमन्ताय, ककराञ्छिशिराय विककरान्॥- २४.२० यजमान यही फूल का गुच्छा सरस्वती माता को अर्पित करें।

॥संकल्प ॥

....नामाहं वसन्तपर्वणि नवसृजन- ईश्वरीय योजनां अनुसरन् आत्मनिर्माण- परिवारनिर्माण त्रिविधसाधनासु नियमनिष्ठापूर्वकं सहयोगप्रदानाय संकल्पम् अहं करिष्ये॥
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