कर्मकाण्ड भास्कर

पंचभू- संस्कार

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॥ पंचभू- संस्कार॥
सूत्र- सङ्केत- यज्ञादि कर्मकाण्डों के अन्तर्गत भूमि को संस्कारित करने के लिए पंच भू- संस्कार करने की परिपाटी है। संक्षिप्त पूजन क्रम में षट्कर्मों के अन्तर्गत पृथ्वीपूजन करके उस भूमि में पवित्रता के संस्कार उभारे जाते हैं, उसी का थोड़ा विस्तृत क्रम पंचभू- संस्कार के रूप में किया जा सकता है। भूमि संस्कारित करने की अधिक विस्तृत प्रक्रिया इसी खण्ड में भूमि पूजन प्रकरण में दी गयी है। समय और आवश्यकता के अनुसार विवेकपूर्वक चयन किया जा सकता है।
शिक्षण और प्रेरणा- इस सन्दर्भ में भूमिपूजन प्रकरण देखें।

क्रम व्यवस्था- पंच भू- संस्कार केवल मुख्य पूजन करने वाले व्यक्ति से कराया जा सकता है। अधिक व्यवस्था हो, तो मुख्य पूजन- स्थल के साथ प्रत्येक तत्त्ववेदी के स्थल पर अथवा प्रत्येक कुण्ड पर एक व्यक्ति द्वारा एक साथ मन्त्रोच्चार के साथ यह क्रम चलाया जा सकता है।
जितने स्थानों पर पंच भू- संस्कार कराना है, उतने स्थानों पर परिसमूहन- बुहारने के लिए कुशाएँ, लेपन के लिए गाय का गोबर, रेखांकन के लिए स्रुवा, स्फ्य या पवित्र काष्ठ का टुकड़ा तथा सिंचन के लिए जल रहना चाहिए।

क्रिया और भावना- प्रत्येक मन्त्र में क्रिया के लिए तीन- तीन निर्देश हैं। क्रिया तीन बार प्रत्येक निर्देश के साथ की जानी चाहिए। प्रत्येक क्रिया के साथ उससे सम्बद्ध भावना का संचार किया जाना चाहिए।

१. परिसमूहन
दाहिने हाथ में कुशाएँ लेकर तीन बार पश्चिम से पूर्व की ओर या दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए निम्न मन्त्र बोलते हुए बुहारें, भावना करें कि इस क्षेत्र में पहले से यदि कोई कुसंस्कार व्याप्त हैं, तो उन्हें मन्त्र और भावना की शक्ति से बुहार कर दूर किया जा रहा है। बाद में कुशाओं को पूर्व की ओर फेंक दें।
ॐ दर्भैः परिसमूह्य, परिसमूह्य, परिसमूह्य।
२. उपलेपन
बुहारे हुए स्थल पर गोमय (गाय के गोबर) से पश्चिम से पूर्व की ओर को या दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए लेपन करें और निम्न मन्त्र बोलते रहें। भावना करें कि शुभ संस्कारों का आरोपण और उभार इस क्रिया के साथ किया जा रहा है।
ॐ गोमयेन उपलिप्य, उपलिप्य, उपलिप्य।
३. उल्लेखन
लेपन हो जाने पर उस स्थल पर स्रुवा मूल से तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर या दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए निम्न मन्त्र बोलते हुए खींचे, भावना करें कि भूमि में देवत्व की मर्यादा रेखा बनाई जा रही है।
ॐ स्रुवमूलेन उल्लिख्य, उल्लिख्य, उल्लिख्य।
४. उद्धरण
रेखांकित किये गये स्थल के ऊपर की मिट्टी अनामिका और अङ्गुष्ठ के सहकार से निम्न मन्त्र बोलते हुए पूर्व या ईशान दिशा की ओर फेंके, भावना करें कि मर्यादा में न बाँध सकने वाले तत्त्वों को विराट् की गोद में सौंपा जा रहा है।
ॐ अनामिकाङ्गुष्ठेन उद्धृत्य, उद्धृत्य, उद्धृत्य।
५. अभ्युक्षण
पुनः उस स्थल पर निम्न मन्त्र बोलते हुए जल छिड़कें, भावना करें कि इस क्षेत्र में जाग्रत् सुसंस्कारों को विकसित होने के लिए सींचा जा रहा है।

ॐ उदकने अभ्युक्ष्य, अभ्युक्ष्य, अभ्युक्ष्य।
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