कर्मकाण्ड भास्कर

॥ घृतावघ्राणम्॥

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॥ घृतावघ्राणम्॥

घृत आहुतियों से बचने पर टपकाया हुआ घृत, जल भरे प्रणीता पात्र में जमा रहता है। इसे थाली में रखकर सभी उपस्थित लोगों को दिया जाए। इस जल मिश्रित घृत में दाहिने हाथ की अँगुलियों के अग्रभाग को डुबोते जाएँ और दोनों हथेलियों पर मल लिया जाए। मन्त्र बोलते समय दोनों हाथ यज्ञ कुण्ड की ओर इस तरह रखें, मानो उन्हें तपाया जा रहा हो। यज्ञीय वातावरण एवं सन्देश को मस्तिष्क में भर लेने, आँखों में समा लेने, कानों में गुँजाते रहने, मुख से चर्चा करते रहने और उसी दिव्य गन्ध को सूँघते रहने, वैसे ही भावभरा वातावरण बनाये रखने की सामर्थ्य पाने की इच्छा रखने वालों को यज्ञ भगवान् का प्रसाद घृत अवघ्राण से प्राप्त होता है।

ॐ तनूपा अग्नेऽसि, तन्वं मे पाहि।
ॐ आयुर्दा अग्नेऽसि, आयुर्मे देहि॥
ॐ वर्चोदा अग्नेऽसि, वर्चो मे देहि।
ॐ अग्ने यन्मे तन्वाऽ, ऊनन्तन्मऽआपृण॥
ॐ मेधां मे देवः, सविता आदधातु।
ॐ मेधां मे देवी, सरस्वती आदधातु॥
ॐ मेधां मे अश्विनौ, देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ।
  - पा० गृ० सू० २.४.७- ८


॥ भस्मधारणम्॥

जीवन का अन्त भस्म की ढेरी के रूप में होता है। मुट्ठी भर भस्म बनकर हवा में उड़ जाने वाले अकिंचन मनुष्य का लोभ, मोह, अहंकार में निरत रहना मूर्खतापूर्ण है। इस दूरगामी किन्तु नितान्त सत्य स्थिति को यदि वह समझ सका होता, तो उसने अपनी गतिविधियों का निर्धारण ऐसे आधारों पर किया होता, जिसे सुरदुर्लभ मानव जीवन व्यर्थ और अनर्थ जैसे कार्यों में गँवा देने का पश्चात्ताप न करना पड़ता। मृत्यु कभी भी आ सकती है और इस सुन्दर कलेवर को देखते- देखते भस्म की ढेरी बना सकती है। यह बात मस्तिष्क में भली प्रकार बिठा लेने के लिए यज्ञ भस्म मस्तक पर लगाई जाती है। इस भस्म को मस्तक, कण्ठ, भुजा तथा हृदय पर भी लगाते हैं, मस्तक अर्थात् ज्ञान, कण्ठ अर्थात् वचन, भुजा अर्थात् कर्म। मन, वचन, कर्म से हम ऐसे विवेकयुक्त कर्म करें, जो जीवन को सार्थक कृतकृत्य बनाने वाले सिद्ध हों।

स्फ्य की पीठ पर भस्म लगा ली जाती है और सभी लोग अनामिका अँगुली में लेकर मन्त्र में बताये हुए स्थानों पर क्रमशः लगाते हैं।

ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः, इति ललाटे।
ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम्, इति ग्रीवायाम्।
ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम्, इति दक्षिणबाहुमूले।
ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्, इति हृदि।
  - ३.६२

॥ क्षमा प्रार्थना॥

अपने दोषों को देखते रहना, जिनके साथ कुछ अनुचित या अप्रिय व्यवहार बन पड़ा हो, उनके मनोमालिन्य को दूर करना, जिसको हानि पहुँचाई हो, उसकी क्षतिपूर्ति करना, यह सज्जनता का लक्षण है। यज्ञ कार्य के विधि- विधान में कोई त्रुटि रह सकती है, इसके लिए देव- शक्तियों एवं व्यक्तियों से क्षमा याचना कर लेने से जहाँ अपना जी हलका होता है, वहाँ सामने वाले की अप्रसन्नता भी दूर हो जाती है। यह आत्म- निरीक्षण, आत्म- शोधन की दूसरों के प्रति उदात्त दृष्टि रखने की सज्जनोचित प्रक्रिया है। यज्ञ के अवसर पर इस प्रक्रिया को अपनाये रहने के लिए क्षमा प्रार्थना का विधान यज्ञ आयोजन के अन्त में रहता है। सब लोग हाथ जोड़कर खड़े होकर मन्त्रोच्चारण करें, साथ ही उस स्तर के भाव मन में भरे रहें।

ॐ आवाहनं न जानामि, नैव जानामि पूजनम्।
विसर्जनं न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर !॥ १॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं, भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मया देव! परिपूर्णं तदस्तु मे॥ २॥
यदक्षरपदभ्रष्टं, मात्राहीनं च यद् भवेत्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव! प्रसीद परमेश्वर! ॥ ३॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या, तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति, सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥ ४॥
प्रमादात्कुर्वतां कर्म, प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णोः, सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः॥ ५॥

॥ साष्टाङ्गनमस्कारः॥

सर्वव्यापी विराट् ब्रह्म को- विश्व ब्रह्माण्ड को भगवान् का दृश्य रूप मानकर ‘सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥’ की भावना से घुटने टेककर भूमि में मस्तक लगाकर देव शक्तियों को, महामानवों को भाव- विभोर होकर अभिवन्दन- नमस्कार किया जाता है। उनके चरणों में अपने को समर्पित करने अर्थात् अनुगमन करने का सङ्कल्प, आश्वासन व्यक्त किया जाता है। यही भूमि- प्रणिपात साष्टांग नमस्कार है।

ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥


॥ शुभकामना॥

यह शुभकामना मन्त्र भी सबके कल्याण की अभिव्यक्ति के लिए है। हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष न हो, अशुभ चिन्तन किसी के लिए भी न करें। जिनसे सम्बन्ध कटु हो गये हों, उनके लिए भी हमें मङ्गल कामना ही करनी चाहिए। द्वेष- दुर्भाव किसी के प्रति भी नहीं रखना चाहिए। सबके कल्याण में अपना कल्याण समाया हुआ है। परमार्थ में स्वार्थ जुड़ा हुआ है- यह मान्यता रखते हुए हमें सर्वमङ्गल की- लोककल्याण की आकांक्षा रखनी चाहिए। शुभ कामनाएँ इसी की अभिव्यक्ति के लिए हैं।

सब लोग दोनों हाथ पसारें। इन्हें याचना मुद्रा में मिला हुआ रखें। मन्त्रोच्चार के साथ- साथ इन्हीं भावनाओं से मन को भरे रहें।

ॐ स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयन्ताम्, न्याय्येन मार्गेण महीं महीशाः।
गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं, लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु॥ १॥

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्॥ २॥
श्रद्धां मेधां यशः प्रज्ञां, विद्यां पुष्टिं श्रियं बलम्।
तेज आयुष्यमारोग्यं, देहि मे हव्यवाहन॥ ३॥ 
- लौगा० स्मृ०

॥ शान्ति- अभिषिञ्चनम्॥

यज्ञशाला के दिव्य वातावरण में रखा हुआ जल कलश अपने भीतर उन मङ्गलकारक दिव्य तत्त्वों को धारण कर लेता है, जो मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शान्ति एवं आत्मिक गरिमा की अभिवृद्धि में सहायक होते हैं। जल कलश से पुष्प द्वारा सभी उपस्थित लोगों पर अभिषिंचति के साथ यह भावना रखें कि यज्ञ की भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियाँ इस जल के माध्यम से उपस्थित लोगों को प्राप्त हो रही हैं और वे असत् से सत् की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ेंगे।

ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष  शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः, सर्व œ शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः। सर्वारिष्ट- सुशान्तिर्भवतु।
  - ३६.१७

॥ सूर्यार्घ्यदानम् ॥

सूर्यार्घ्यदान हर उपासनात्मक कृत्य के बाद किया जाता है। जल का स्वभाव अधोगामी है, वही सूर्य की ऊष्मा के संसर्ग से ऊर्ध्वगामी बनता है, असीम में विचरण करता है। साधक भावना करता है, हमारी हीन वृत्तियाँ, सविता देव के संसर्ग से ऊर्ध्वगामी बनें, विराट् में फैलें, सीमित जीव, चंचल जीवन- असीम अविचल ब्रह्म से जुड़े, यही है सूर्यार्घ्यदान की भावना।

सूर्य की ओर मुख करके कलश का जल धीरे- धीरे धार बाँधकर छोड़ना चाहिए। किसी थाल को नीचे रखकर यह अर्घ्य जल उसी में इकट्ठा कर लिया जाए और फिर किसी पावन स्थान पर उसका विसर्जन किया जाए।

ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या, गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥

ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः।

॥ प्रदक्षिणा ॥

अब तक बैठकर मन, वचन से ही मन्त्रोच्चार किया जाता रहा। हाथों का ही प्रयोग हुआ। अब यज्ञ मार्ग पर चलना शेष है। इसी पर तो भावना के परिष्कार की, यज्ञ प्रक्रिया की सफलता निर्भर है। अब यह कर्मयात्रा आरम्भ होती है। यज्ञ अनुष्ठान में जिस दिशा में चलने का संकेत है, प्रदक्षिणा में उसी दिशा में चलना आरम्भ किया जाता है। कार्य के चार चरण हैं- १- सङ्कल्प, २- प्रारम्भ, ३- पुरुषार्थ, ४- तन्मयता। इन चार प्रक्रियाओं से समन्वित जो भी कार्य किया जाएगा, वह अवश्य सफल होगा। यज्ञमय जीवन जीने के लिए चार कदम बढ़ाने, चार अध्याय पूरे करने का पूर्वाभ्यास- प्रदर्शन किया गया। एकता, समता, ममता, शुचिता चारों लक्ष्य पूरे करने के लिए साधना, स्वाध्याय, सेवा और संयम की गतिविधियाँ अपनाने के लिए चार परिक्रमाएँ हैं। हम इस मार्ग पर चलें, यह सङ्कल्प प्रदक्षिणा के अवसर पर हृदयंगम किया जाना चाहिए और उस पथ पर निरन्तर चलते रहना चाहिए।

सब लोग दायें हाथ की ओर घूमते हुए यज्ञशाला की परिक्रमा करें, स्थान कम हो, तो अपने स्थान पर खड़े रहकर चारों दिशाओं में घूमकर एक परिक्रमा करने से भी काम चल जाता है।

परिक्रमा करते हुए दोनों हाथ जोड़कर गायत्री वन्दना एवं यज्ञ महिमा का गान करें। परिक्रमा केवल मन्त्र से करें, कोई एक स्तुति करें या दोनों करें, इसका निर्धारण समय की मर्यादा को ध्यान में रखकर कर लेना चाहिए।

ॐ यानि कानि च पापानि, ज्ञाताज्ञातकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्ति, प्रदक्षिण पदे- पदे॥


॥ पुष्पाञ्जलिः॥


यह विदाई सत्कार है। पुरुष सूक्त के मन्त्रों को आरम्भ करके देव आगमन पर उनका आतिथ्य, स्वागत- सत्कार किया गया था। यह विदाई सत्कार मन्त्र पुष्पाञ्जलि के रूप में किया जाता है।

सब लोग हाथ में पुष्प अथवा चन्दन- केशर से रँगे हुए पीले चावल लेते हैं। पुष्पाञ्जलि मन्त्र बोला जाता है और पुष्प वर्षा की तरह ही उसे देव शक्तियों पर बरसा दिया जाता है। पुष्पहार, गुलदस्ता आदि भी प्रस्तुत किया जा सकता है। पुष्प भावभरी सहज श्रद्धा के प्रतीक माने जाते हैं। उन्हें अर्पित करने का तात्पर्य है, अपनी सम्मान भावना की अभिव्यक्ति।

इस विश्व में असुरता और देवत्व के दो ही वर्ग अन्धकार और प्रकाश के रूप में हैं। इन्हीं को स्वार्थ और परमार्थ- निकृष्टता और उत्कृष्टता कहते हैं। दोनों में से एक को प्रधान दूसरे को गौण रखना पड़ता है। यदि भोगवादी असुरता प्रिय होगी, तो मोह, लोभ, अहङ्कार, तृष्णा, वासना में रुचि रहेगी और उन्हीं के लिए निरन्तर मरते- खपते रहा जायेगा। फिर जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए सत्कर्म करने की न इच्छा होगी और न अवसर मिलेगा, परन्तु यदि लक्ष्य देवत्व हो, तो शरीर को निर्वाह भर के और परिवार को उचित आवश्यकता पूरी करने भर के साधन जुटाने के उपरान्त उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के लिए मस्तिष्क में पर्याप्त स्थान और शरीर को पर्याप्त अवसर मिल सकता है। देवत्व का मार्ग उत्थान का और असुरता का मार्ग कष्ट- क्लेशों से भरे पतन का है। दोनों में से किसे चुना? किससे मैत्री स्थापित की? किसे लक्ष्य बनाया? इसका उत्तर पुष्पाञ्जलि के अवसर पर दिया जाता है। विदाई के अवसर पर भावभरी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना मानो यह कहना है कि हमें देवत्व प्रिय है, हमने उसी को लक्ष्य चुना है और उसी मार्ग पर चलेंगे।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।  - ३१.१६

ॐ मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि॥

॥ गायत्री- स्तुति॥

जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
आदि शक्ति तुम अलख- निरञ्जन जग पालन कर्त्री।
दुःख- शोक भय क्लेश कलह दारिद्र्य दैन्यहर्त्री॥ जयति०॥
ब्रह्मरूपिणी प्रणत पालिनी, जगद्धातृ अम्बे।
भवभयहारी जन- हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥ जयति०॥
भय- हारिणि भव- तारिणि अनघे, अज आनन्द राशी।
अविकारी अघहरी अविचलित, अमले अविनाशी॥ जयति०॥
कामधेनु सत्- चित् आनन्दा, जय गङ्गा गीता।
सविता की शाश्वती शक्ति तुम सावित्री सीता॥ जयति०॥
ऋग्, यजु, साम, अथर्व प्रणयिनी, प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्रार सुषुम्ना, शोभा गुण- गरिमे॥ जयति०॥
स्वाहा स्वधा शची ब्रह्माणी, राधा रुद्राणी।
जय सतरूपा वाणी, विद्या, कमला, कल्याणी॥ जयति०॥
जननी हम हैं, दीन- हीन, दुःख दारिद के घेरे।
यदपि कुटिल कपटी कपूत, तऊ बालक हैं तेरे॥ जयति०॥
स्नेह सनी करुणामयि माता! चरण शरण दीजै।
बिलख रहे हम शिशु सुत तेरे, दया दृष्टि कीजै॥ जयति०॥
काम- क्रोध मद- लोभ मोह हरिये।
शुद्ध बुद्धि निष्पाप हृदय, मन को पवित्र करिये॥ जयति०॥
तुम समर्थ सब भाँति तारिणी, तुष्टि- पुष्टि त्राता।
सत मारग पर हमें चलाओ, जो है सुख दाता॥ जयति०॥
जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता॥



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