कर्मकाण्ड भास्कर

॥ श्री रामनवमी॥

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॥ श्री रामनवमी॥

माहात्म्य बोध भगवान् के अवतार सदा अधर्म के विनाश और धर्म की स्थापना, साधुता का परित्राण और दुष्कृत्यों का विनाश, इन दो प्रयोजनों को लेकर होते हैं। जब भी- जो भी अवतारी देवदूत इस धरती पर आये हैं, तब उन्होंने बढ़ी हुई असुरता को निरस्त किया और डगमगाते हुए देवत्व का सन्तुलन सँभाला है। जिनके भीतर इन दो प्रयासों के लिए तीव्र उत्कण्ठा जग रही हो, जिनका कर्तव्य इस दिशा में जितना प्रखर हो रहा हो, समझना चाहिए उनके अन्तःकरण में भगवान् की उतनी ही ज्योति जगमगा रही है। अवतारी देवदूतों का जन्म, जयन्ती मनाने का भी प्रधान उद्देश्य यही है कि उन्हें जो कार्य अत्यधिक प्रिय हैं, जिसके लिए वे देह धारण करते और कष्ट सहते हैं, उनका अनुकरण- अनुगमन हम भी करें।

यों तो अवतार चौबीस अथवा दस हुए हैं। पर उनमें प्रधानता भगवान् राम और कृष्ण को दी जाती है। इन्हीं की कथा- गाथाएँ प्रख्यात हैं। रामलीला, कृष्णलीला भी इन्हीं की होती है। देव मन्दिरों में इन्हीं की प्रतिमाएँ हैं। अन्य अवतारों की भी चर्चा- प्रतिष्ठा है, पर इतनी नहीं, जितनी इन दो की। कारण कि इन दो का अवतरण, शिक्षण उन विशेषताओं से भरा पड़ा है, जिनकी मानवीय जीवन को समुन्नत, विकसित बनाने में नितान्त आवश्यकता है। मर्यादाओं का पालन, कर्तव्य पर अविचल निष्ठा, व्यवहार में सौजन्य और अनीति के विरुद्ध प्रबल संघर्ष यह चारों ही लक्ष्य ऐसे हैं, जिन्हें रामचरित के कथा प्रसंगो में पग- पग पर पाया जा सकता है।

जन्म से लेकर लीला समापन तक के सभी प्रसंगो में उत्कृष्ट आदर्शवादिता ही भगवान् राम चरितार्थ करते रहे। चारों भाई गेंद खेलते हैं, छोटे भाई भरत को विजयी सिद्ध करने और प्रसन्न करने के लिए राम हारने का अभिनय करते हैं। अपनी हेटी भी होती हो, पर छोटों को श्रेय मिलता हो, तो अपनी बात को भुला ही दिया जाना चाहिए। बचपन में ही महर्षि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिए उन्हें माँगने आये, तो प्राण हथेली पर रख खुशी- खुशी तपोवन में चले जाते हैं। लाभ तो विश्वामित्र का और यज्ञ की रक्षा में अपने प्राणों का संकट, वे इस तरह नहीं सोचते; वरन् शुभकार्य कहीं भी किया जा रहा हो, कोई भी कर रहा हो, उसमें भरपूर सहयोग करना आवश्यक है। वे प्राणों तक का खतरा उठाकर ऋषि की पूरी सहायता करते हैं। किशोर होते हुए भी महाबलिष्ठ असुरों से जूझते हैं।

विमाता कैकेयी वनवास देना चाहती हैं। विमाता को माता से बढ़कर उन्होंने माना और माता की प्रसन्नता के लिए वनवास स्वीकार किया। अधिकार त्यागा और कर्तव्य निबाहा। पिता वचन तोड़ना चाहते हैं, कैकयी को दिये वचन पूरा करने में आगा- पीछा सोचते हैं। राम उनकी गुत्थी सुलझाते हैं। स्वजन सम्बन्धियों का व्यक्तिगत मोह तुच्छ और सज्जनों के वचन रखना, उनकी प्रामाणिकता का बना रहना महान् बताते हैं। वन गमन स्वीकार करके उन्होंने पिता को अपनी प्रामाणिकता अक्षुण्ण बनाये रखने तथा वचन पालन का अवसर प्रदान किया।

चित्रकूट में भरत मिलते हैं। वे वापस चलने का अनुरोध करते हैं। राज्य सुख भोगने को कहते हैं। राम अपने भाई को राजा और स्वयं तपस्वी बने रहने में अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। सुविधाओं से भरे जीवन की अपेक्षा परमार्थ प्रयोजनों के लिए कष्ट- कठिनाई सहना श्रेयस्कर मानते हैं, वे सुविधाओं को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। हारे हुए दुर्बल शरीर का न्यायानुमोदित समर्थन करते हुए प्रचण्ड बलशाली से जूझते हैं, स्वावलम्बन का जीवन जीकर निःस्वार्थ भाव से छात्र और ऋषियों का नित्य मार्ग साफ करने वाली शबरी की भक्ति को तथाकथित योगी- तपस्वियों से बढ़- चढ़कर ठहराते हैं और उसका अभिवादन करने उसके घर पहुँचते हैं। जन्म- जाति के आधार पर ऊँच- नीच की अवाञ्छनीय मूढ़ता पर पाद प्रहार करते हैं और शबरी के जूठे बेर खाते हैं।

सूर्पणखा के रूप और वैभव भरे प्रस्ताव को अस्वीकार करके एक पत्नीव्रत की प्रबल निष्ठा का परिचय देते हैं। असुरता के आतंक से लडने में जब समझदार मनुष्य अपनी प्रत्यक्ष हानि देखते- साथ नहीं देते, तो नासमझ कहे जाने वाले पिछड़े वर्ग के वानरों की सेना गठित करते हैं और संसार को बताते हैं कि पाप बाहर से कितना ही बड़ा बलवान् क्यों न दिखता हो, भीतर से अत्यन्त दुर्बल होता है और उसके विरुद्ध मनस्वी लोग उठ खड़े हों, तो असुरता की बालुका निर्मित दीवार ढहने में देर नहीं लगती। अनेक वरदानों से शक्ति- सम्पन्न रावण जब मारा गया और उसके शरीर में अनेक बाण- व्रण पाये गये, तो राम ने यही कहा- मेरा बाण तो एक ही लगा है, बाकी घाव तो उसके कुकर्मों के हैं, जो अपने आप ही फूटे हैं। अपनी विजय का रहस्य भी उन्होंने धर्म रथ पर आरूढ़ होना बताया है। न्याय नीति और सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। वह साधनरहित होते हुए भी अन्ततः विजयी होकर ही रहता है। प्रजा की प्रसन्नता के लिए अपनी पत्नी को वनवास भेजना, यज्ञ के अवसर पर पत्नी की आवश्यकता बताये जाने पर भी एक पत्नी के होते हुए दूसरे विवाह की बात अङ्गीकार न करना, वृद्धावस्था में तप साधना करने के लिए वानप्रस्थ, संन्यास परम्पराओं को स्वीकार करना जैसे अनेकों प्रसङ्ग ऐसे हैं, जिनका घटनात्मक वर्णन हजार प्रवचनों से बढ़कर हैं। भगवान् राम ने जीवन के आदर्शों को जीभ से नहीं कहा, वरन् अपने आचरण द्वारा लोगों के सामने रखा।

भगवान् राम के अन्य साथी- सहयोगी, मित्र स्वजन भी ऐसे ही सच्चे चरित्र वाले हैं। उन्होंने सामयिक लाभ उठाने के लिए खोटे लोगों का न तो समर्थन किया और न उन्हें साथ लिया। लक्ष्मण ने अनन्य सेवक की तरह भाई का साथ दिया। वनवास उन्हें नहीं मिला, तो भी साथ रहे। उनकी पत्नी उर्मिला और माता सुमित्रा ने उन्हें उस आदर्श की स्थापना से रोका नहीं, वरन् अपने मोह पर नियन्त्रण करके उन्हें और उलटा प्रोत्साहित किया। भरत ने भाई के राजगद्दी न लेने पर उनकी पादुकाओं को सिंहासन पर रखा और स्वयं भाई जैसा तपस्वी जीवन बिताते हुए राजकाज चलाते रहे। केवट ने उन्हें गङ्गा पार उतारा। निषादराज को जब यह आशंका हुई कि भरत सेना लेकर राम को मारने जा रहे हैं, तब उसने निश्चय किया कि सारी नावें डुबो दी जाएँ और जीवित रहते भरत के आक्रमण को सफल न होने दिया जाए। पीछे आशंका निर्मूल सिद्ध हुई और खुशी- खुशी राम- भरत की भेंट में उसने सहायता दी, यह दूसरी बात थी। अपने प्राण देकर भी अन्याय से लड़ने का निश्चय करना निषादराज की महानता का परिचायक है। राम के ऐसे ही मित्र सहयोगी थे।
बूढ़ा जटायु रावण से जूझ पड़ा- जीवित रहते किसी की बहू- बेटी का अपमान न होने दूँगा। उसने प्राण गवाँ दिए पर बलवान् आततायी से पराभूत नहीं हुआ। रीछ- वानरों का त्याग बलिदान देखते ही बनता है। यहाँ तक कि एक गिलहरी बालों में धूल भरकर समुद्र पर बिखेरने लगी; ताकि समुद्र उथला हो जाए और अनीति से जूझने वाले वानरों को सफलता मिले। विभीषण ने सुविधाएँ छोड़ीं, कुटुम्ब रिश्ते का पक्षपात छोड़ त्रास सहा; किन्तु न्याय का समर्थन करने के लिए राम के साथ रहा। जो स्वयं श्रेष्ठ होता है, उसे श्रेष्ठ ही मानते हैं और वे ही उनके सहयोगी बनते हैं। इस प्रकार के घटनाक्रम और उनके प्रसंगो पर कहे हुए उनके वचन ऐसे हैं, जिनमें नीति,धर्म, सदाचार, संयम, परमार्थ, उदारता, अध्यात्म कूट- कूट कर भरा है। रामनवमी के अवसर पर भगवान् राम का जन्म दिन मनाते हुए ऐसे ही घटनाक्रम और प्रसङ्ग सुनाए जाएँ, ताकि जन साधारण को राम- भक्ति के रूप में उनके अनुगमन की प्रेरणा मिले।

रामनवमी के छः दिन बाद चैत्र सुदी पूर्णिमा को हनुमान् जयन्ती होती है। उनकी चर्चा भी राम के अनन्य सेवकों के रूप में की जा सकती है। भजन पूजन भले ही हनुमान् जी न करते हों, पर उनने अपना शरीर और मन सर्वतोभावेन ‘रामकाज’ के लिए अर्पित किया और समुद्र लाँघना, लङ्का दहन, पर्वत उठा लेने जैसे कठिन से कठिन कार्य करने को तत्पर रहे। अपनी सुविधा को भूल गये। न विवाह, न बच्चे, न नौकरी, न कोठी, न बँगला। अपने आप को विस्मरण करके ही कोई व्यक्ति भगवान् का कार्य कर सकता है और भक्त की कसौटी पर खरा सिद्ध हो सकता है। इसकी जीवन्त शिक्षा हनुमान् के चरित्र से मिलती है। रामनवमी ऐसे ही सन्देशों और प्रेरणाओं से भरी हुई है। लोगों को यही समझाया जाना चाहिए कि भगवान् राम के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने के लिए उन्हें उनके सन्देश हृदयंगम करने पड़ेंगे और अपने क्रिया- कलाप बदलने पड़ेंगे। मात्र तिलक लगाने, आरती उतारने और नाम रटने से ही भक्ति का प्रयोजन पूरा न हो सकेगा।

॥ पर्व पूजन क्रम॥
* रामनवमी पर भगवान् राम का चित्र देवमंच पर सजाया जाए। उनके साथ देवी माता सीता, बन्धुगण एवं आदर्श सेवक हनुमान् भी हों।
* पर्व व्यवस्था क्रम के अनुसार सारी व्यवस्था बनाकर, प्रारम्भ में सामान्य पूजन कराते हुए रक्षाविधान तक का क्रम सम्पन्न किया जाए।
तत्पश्चात् क्रमशः भगवान् राम, माता सीता, बन्धु एवं भक्त हनुमान् का आवाहन दिए हुए मन्त्रों के साथ किया जाए। भगवान् श्रीराम का व्यक्तित्व इन सभी के संयोग से पूर्ण बनता है। प्रत्येक आवाहन के पूर्व उनकी महानता पर संक्षिप्त सारगर्भित टिप्पणी की जाए। माहात्म्य बोध प्रकरण अथवा सामान्य ज्ञान के आधार पर यह क्रम चलाया जाए। मन्त्रोच्चार के साथ निर्दिष्ट भावना उभारते हुए आवाहन करें।
॥ श्रीराम आवाहन॥
भगवान् श्रीराम के जन्म दिवस के पावन पर्व पर उनका प्रकाश हम सबके अन्तःकरण में और वातावरण में अवतरित हो, ताकि उनके अनुरूप क्रम अपनाने और जीवन में श्री- समृद्धि और सन्तोष का संचार करने में हम समर्थ हों।
ॐ दाशरथये विद्महे, सीतावल्लभाय धीमहि।
तन्नः श्रीरामः प्रचोदयात्। -रा० गा०
ॐ राम एव परं ब्रह्म, राम एव परन्तपः।
राम एव परं तत्त्वं, श्रीरामो ब्रह्मतारकम्॥ -रा० रह०१.६
ॐ श्रीरामाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि,ध्यायामि॥
॥ श्री सीता आवाहन ॥
पवित्रता और निष्ठा की मूर्ति माँ सीता पवित्र प्रवाह बनकर हम सब में संचरित हों, ताकि हम अपूर्णता को पूर्णता में बदल सकें।
ॐ जनकजायै विद्महे, रामप्रियायै धीमहि।
तन्नः सीता प्रचोदयात्॥ - सी० गा०
ॐ उद्भवस्थिति संहारकारिणीं, क्लेश हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥ -रा०च०मा०
ॐ श्री सीतायै नमः आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
॥ बन्धु आवाहन॥
भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न आदर्श बन्धु भाव के रूप में प्रकट हों, सक्रिय हों; ताकि द्वेष और विग्रह का समापन होकर आदर्श सहकार का लाभ हम सब उठा सकें।
ॐ बाहू मे बलमिन्द्रियœ, हस्तौ मे कर्म वीर्यम्।
आत्मा क्षत्रमुरो मम॥ ॐ श्री रामानुजेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - २०.७
॥ हनुमान् आवाहन॥
भक्तराज हनुमान् प्रभु समर्पित पुरुषार्थ की प्रचण्डधारा के रूप में अवतरित- संचरित हों, जिससे स्वार्थ और निष्क्रियता के फन्दे कटें, असुरता क्षीण हो और जीवन धन्य बने।
ॐ अंजनीसुताय विद्महे, वायुपुत्राय धीमहि। तन्नो मारुतिः प्रचोदयात्॥ - ह०गा०
ॐ श्री हनुमते नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
आवाहन के बाद श्रीरामपंचायत का षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त से करें। पूजन के बाद पर्व प्रसाद रूप में मर्यादा धारण संकल्प कराया जाएँ।
............नामाहं मर्यादापुरुषोत्तम- भगवतो रामचन्द्रस्य जन्मपर्वणि देवसंस्कृतिमर्यादानुरूपेण स्वकीय- चिन्तन अद्यप्रभृति .......... पर्यन्तं परिपूर्णनिष्ठापूर्वकं संकल्पम् अहं करिष्ये।
सङ्कल्प के बाद यज्ञ, दीपयज्ञ, आरती आदि समापन के उपचार किये जाएँ। जयघोष एवं प्रसाद वितरण के साथ आयोजन समाप्त किया जाए।
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