कर्मकाण्ड भास्कर

॥ गायत्री जयन्ती- गङ्गा दशहरा॥

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॥ गायत्री जयन्ती- गङ्गा दशहरा॥

माहात्म्य बोध- सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी जिस शक्ति की साधना करके विश्व संचालन के उपयुक्त ज्ञान एवं विज्ञान, अनुभव एवं पदार्थ प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए, पौराणिक प्रतिपादन के अनुसार उसका नाम गायत्री है। सृजन और अभिवर्धन का उद्देश्य लेकर चल रही जीवन प्रक्रिया को भी इसी सम्बल की आवश्यकता है, जो ब्रह्मा जी की तरह उसे मानसिक क्षमता एवं भौतिक सम्पन्नता युक्त कर सके। गायत्री मन्त्र में वे तत्त्व बीज मौजूद हैं। उपासना और तपश्चर्या के विधान को अपनाकर इन तत्त्वों को वैज्ञानिक रूप से अपने भीतर- बाहर बढ़ाया भी जा सकता है। गायत्री को वेदमाता, ज्ञान गंगोत्री, संस्कृति की जननी एवं आत्मबल की अधिष्ठात्री कहा जाता है। इसे गुरुमन्त्र कहते हैं। यह समस्त भारतीय धर्मानुयायियों की उपास्य है। इसमें वे सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं, जिनके आधार पर वह सार्वभौम, सार्वजनीन उपासना का पद पुनः ग्रहण कर सके। इसी ज्ञान- विज्ञान की देवी गायत्री का जन्मदिन है- गायत्री जयन्ती।

इसी दिन भगवती गङ्गा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुईं। जिस प्रकार स्थूल गङ्गा धरती को सींचती, प्राणियों की तृष्णा मिटाती, मलिनता हरती और शान्ति देती हैं, वही सब विशेषताएँ अध्यात्म क्षेत्र में गायत्री रूपी ज्ञान गङ्गा की है। गायत्री महाशक्ति के अवतरण से संगति भली प्रकार मिल जाती है। एक को सूक्ष्म दूसरे को स्थूल- एक ही तत्त्व की व्याख्या कहा जाए, तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

राजा सगर के साठ हजार पुत्र अपने कुकर्मों के फलस्वरूप अग्नि में जल रहे थे। उनकी कष्ट निवृत्ति गङ्गा जल से ही हो सकती थी। सगर के एक वंशज भगीरथ ने निश्चय किया कि वे स्वर्ग से गङ्गा को धरती पर लायेंगे। इसके लिए कठोर तप साधना में लग गये। इस निःस्वार्थी, परमार्थी का प्रबल पुरुषार्थ देखकर गङ्गा धरती पर आयीं, पर उन्हें धारण कौन करे, इसके लिए पात्रता चाहिए। इस कठिनाई को शिव ने अपनी जटाओं में गङ्गा को धारण करके हल कर दिया। गङ्गा का अवतरण हुआ। सगर पुत्र उसके प्रताप से स्वर्ग को गये और असंख्यों को उसका लाभ मिला।

आत्म- शक्ति का- ऋतम्भरा प्रज्ञा का अवतरण ठीक गंगावतरण स्तर का है। उसकी पुनरावृत्ति की आज अत्यधिक आवश्यकता है। सारा संसार पाप- तापों से जल रहा है। इस विकृति से छुटकारा उसे उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की ज्ञान गङ्गा ही दिला सकती है। यह अवतरण अनायास ही नहीं होगा। इसके लिए जाग्रत् आत्माओं को भगीरथ की भूमिका निभानी पड़ेगी। ज्ञान- यज्ञ के विस्तार के लिए- भावनात्मक नव निर्माण के लिए निःस्वार्थ- परमार्थ परायण प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ेगा। ऐसा करने से वह कठिन और असम्भव दीखने वाली प्रक्रिया सम्भव ही नहीं, सरल भी हो सकती है। युग परिवर्तनकारी प्रचण्ड शक्ति को यश लोलुप एवं अहन्ता पोषक क्षुद्र व्यक्ति धारण नहीं कर सकते। उसे धारण करने के लिए तपस्वी, मनस्वी, तेजस्वी शंकर चाहिए। ऐसी महानता सम्पन्न विभूतियाँ जब इस नवयुग प्रवर्तिनी ज्ञान गङ्गा को अपने मस्तक में धारण कर लेंगी, तब उसका प्रवाह आगे बढ़ेगा। न केवल दुर्बुद्धि और दुर्भावनाग्रस्त पतनोन्मुख सगर पुत्रों का उद्धार होगा, वरन् सर्वसाधारण की सुख- शान्ति का द्वार भी खुल जाएगा। हमें भगीरथ और शंकर की भूमिका निभाते हुए ज्ञान गङ्गा के अवतरण के लिए गायत्री जयन्ती के पुण्य पर्व पर व्रत लेना चाहिए और उसके लिए कटिबद्ध होना चाहिए।
यह पर्व महत्त्वपूर्ण प्रेरणाएँ देता है। स्वर्ग से उतरकर धरती पर अवतरण। हिमालय की सुख- सुविधाओं को त्याग, कष्टसाध्य लोकमंगल की प्रवृत्ति। लघुता को महानता में परिणत करने वाला- समुद्र मिलन का लक्ष्य, इसके लिए यात्रा द्वारा अपनी पात्रता सिद्ध करने के लिए सुदूर प्रदेशों का सिञ्चति करने की तप साधना। भूमि की तृष्णा बुझाने के लिए अपना अस्तित्व गवाँ देने की साध। इस महानता से हरेक को प्रभावित कर सहायता के लिए तत्पर, हिमालय का अजस्र अनुदान, बादलों का आश्वासन, नदी- नालों का आत्म समर्पण जैसी उपलब्धियों का प्रादुर्भाव। गंगोत्री की तनिक- सी धारा का बंगाल पहुँचते- पहुँचते हजार धाराओं में विस्तार। यही महानता गङ्गा अवतरण की प्रक्रिया है। जिस व्यक्ति में भी वह अवतरित होती है, उसे गङ्गा जैसा दृष्टिकोण चरित्र और कर्त्तव्य अपनाना होता है। गायत्री अपना प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करते हुए मानो प्रत्येक जाग्रत् आत्मा को यह उद्बोधन प्रदान करती है कि जीवन के श्रेष्ठतम सदुपयोग का क्रिया- कलाप यही हो सकता है।

गायत्री मन्त्र के २४ अक्षरों में २४ शिक्षाएँ हैं, जो आज भी व्यक्ति और समाज के लिए सही मार्गदर्शन हैं। ये शिक्षाएँ गायत्री स्मृति के २४ श्लोकों में विद्यमान हैं। इसी प्रकार गायत्री मन्त्र में ९ शब्द ३ व्याहृतियाँ १ प्रवण- इन १३ पदों की १३ श्लोकों के रूप में विवेचना ‘गायत्री गीता’ में की गई है। इन दोनों संकल्पों को गायत्री महाविज्ञान के द्वितीय खण्ड में पढ़ा जा सकता है और उस आधार पर गायत्री मन्त्र के प्रकाश में व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण का आधार क्या होना चाहिए, इसके सभी प्रधान पक्षों पर प्रकाश डाला जा सकता है। साधारण गायत्री मन्त्र का मोटा शब्दार्थ भी बहुत प्रेरक और प्रकाशपूर्ण है।
भूः भुवः स्वः तीन लोक हैं, तीनों में ॐ परमात्मा समाया हुआ है। वही शीर्ष भाग का प्रणव और व्याहृतियों का तात्पर्य है। भूः शरीर को, भुवः मन को और स्वः अन्तरात्मा को कहते हैं। इन्हीं को स्थूल- सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है। इनमें परमात्मा व्याप्त है। यह परमात्मा का घर है। देव मन्दिर तीर्थ है। इन्हें सदा निर्मल एवं परिष्कृत ही रखा जाना चाहिए। इनमें दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों की मलीनता को स्थान नहीं मिलना चाहिए। व्यक्ति, परिवार और समाज भी भूः, भुवः, स्वः हैं। इन्हें परमात्मा का मूर्तिमान स्वरूप, उत्तरदायित्व समझा जाए और उन्हें श्रेष्ठतम स्थिति में रखने के लिए निरन्तर तत्पर रहा जाए, यह प्रेरणा गायत्री के शीर्ष भाग की- ‘भूः भुवः स्वः’ की है।

‘तत्’ अर्थात् ‘वह’। ‘यह’ अर्थात् प्रत्यक्ष- प्रेय। वह अर्थात् परोक्ष- श्रेय। हमें वासना और तृष्णापरक लोभ- मोह में ग्रस्त होकर लोभ और मोह की वासना- अहंता की पूर्ति में लगे रहकर प्रत्यक्ष भौतिकता तक अपने को सीमित नहीें कर लेना चाहिए। ‘यह’ को ही सब कुछ नहीं समझ लेना चाहिए। वरन् ‘वह’ पर भी ध्यान देना चाहिए। अन्तरात्मा की पुकार, मरणोत्तर स्थिति, ईश्वरीय निर्देशों की पूर्ति, पवित्र कर्त्तव्यों का निर्वाह जैसे महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर भी ध्यान देना चाहिए। सीमित संकीर्णता में चिन्तन अवरुद्ध न रखकर, विस्तृत, उदात्त, दूरगामी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और अपनी कार्य पद्धति उसी आधार पर निर्धारित करनी चाहिए। यही है गायत्री के प्रथम पद ‘तत्’ का सन्देश।

‘सवितुः’ सृजनकर्ता- तेजस्वी, ईश्वर इन दो महान् विशेषताओं से परिपूर्ण है, हम भी उनका अनुसरण करें। ध्वंसात्मक- विघटनात्मक प्रवृत्तियाँ छोड़ें और सृजनात्मक- विधेयात्मक क्रिया- कलाप अपनाएँ। हम क्या कर सकते हैं, क्या बन सकते हैं, इसी पर ध्यान केन्द्रित रखें। संसार में जो कुछ अवाञ्छनीय है, वह वाञ्छनीयता के अभाव भर का द्योतक है। प्रकाश का न होना ही अन्धकार है। अन्धकार से लड़ते फिरना बेकार है। प्रकाश उत्पन्न करें, ताकि अन्धकार सहज ही तिरोहित हो सके।

दूसरा अर्थ है- तेजस्वी। दासता, मलिनता, विलासिता की दुष्प्रवृत्तियों में बँधना सर्वथा अस्वीकार कर दें। आत्म गौरव को समझें- स्वतन्त्र चिन्तन एवं कर्त्तव्य अपनाएँ- सर्वतोमुखी स्वच्छता में गहरी अभिरुचि लें तथा भव- बन्धनों से मनोभूमि को, असंयम से शरीर को, अवाञ्छनीय प्रचलनों से समाज को बन्धन मुक्त कराएँ। सर्वांगीण मुक्ति का लक्ष्य लेकर चलें, यही तेजस्वी होने का स्वरूप है। इसके लिए हमें मनस्वी और तपस्वी दोनों होना चाहिए; ताकि हमारी दीपक जैसी उपयोगी तेजस्विता का प्रकाश और प्रभाव सर्वत्र अनुभव किया जा सके। उसके आधार पर स्वर्गीय वातावरण का सृजन हो सके। यह है सविता शब्द के सृजनकर्ता और तेजस्वी होने का सही स्वरूप।

‘वरेण्यं’ का अर्थ है- वरण करने -योग्य, चुने जाने योग्य। इस संसार में कूड़ा- करकट भी कम नहीं। ओछे विचार- मूढ़ मान्यताएँ- हेय परम्पराएँ तथा खोटे व्यक्तियों से दुनिया भरी पड़ी है। इसमें केवल वरेण्य- श्रेष्ठ उचित को ही अपनाया जाए और जो अवाञ्छनीय भरा पड़ा है, उसे न तो स्वीकार किया जाए और न सहयोग दिया जाए।

‘भर्गः’ शब्द का अर्थ भून देना होता है। अपने भीतर की दुर्भावनाओं को, गुण- कर्म में भरी अवाञ्छनीयताओं को छोड़ना- तोड़ना ही चाहिए। परिवार में जो अस्त- व्यस्तता और अव्यवस्था का क्रम चल रहा हो, उसे बदला जाना चाहिए। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में जो दुष्प्रवृत्तियाँ घुस पड़ी हैं, उन्हें उखाड़ा ही जाना चाहिए। अनीति के विरुद्ध संघर्ष के लिए गीता में भगवान् कृृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिये हैं, उन्हीं को गायत्री का ‘भर्ग’ शब्द देता है। धर्म की स्थापना और अधर्म का उन्मूलन करना भगवान् के अवतार का प्रधान उद्देश्य रहा है। भाड़ में जिस तरह चने भूने जाते हैं, उसी तरह हमारी तेजस्विता ‘‘अवाञ्छनीयता’’ को भूनने में तत्पर रहें, यह भर्ग शब्द की प्रेरणा है।

‘देवस्य’ शब्द देवतत्व की ओर सङ्केत करता है। लोग लेने भर का मजा लूटते हैं, देने का आनन्द उससे कितना अधिक मधुर है, इस का आश्वासन कोई कर सके, तो उसका अन्तःकरण निरन्तर आनन्द एवं उल्लास से ओत- प्रोत बना रहे। जिसका स्वभाव देना हो, वह ‘देव’। जिसे तृष्णा खाये जा रही हो, वह ‘दानव’। हमें दानव नहीं देव बनना चाहिए। अनुकरणीय देव जीवन जीना चाहिए। मस्तिष्क में दिव्य दर्शन करते रहना चाहिए। समाज को देवात्माओं से भरा हुआ- स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत- प्रोत बनाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। देवाराधना का तात्पर्य देव प्रवृत्तियों का अभिवर्धन ही है। गायत्री मन्त्र का देव शब्द इसी दिशा में निर्देश करता है।

‘धीमहि’ का अर्थ है- धारण करना। जो श्रेष्ठ का कर्त्तव्य है, उसे केवल कहने- सुनने पढ़ने- लिखने के वाग् विलास तक ही सीमित न रखें, वरन् उसकी जड़ें अपने मस्तिष्क से आगे बढ़ाकर भाव क्षेत्र में, आकांक्षाओं में उतारें और उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयत्न करें। कथा, प्रवचन, स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन के सहारे बहुधा उच्च आदर्शों की सुधार पद्धति से अपना सम्बन्ध, सम्पर्क बनाया जाता है, पर यदि वहीं तक इस क्षेत्र में सीमित होकर रहा जाए, जड़ न जमाए, निष्ठा के रूप में परिणत न हो, कार्य- पद्धति में स्थान न पाए, तो उसे न उगने वाले बीज की संज्ञा दी जायेगी। गायत्री का ‘धीमहि’ शब्द कहता है, औचित्य को स्वीकार करना ही पर्याप्त नहीें, तदनुकूल आचरण भी करना चाहिए।

‘धियो’ का अर्थ है- बुद्धि, विवेक, आस्था। इसी बीज का विकसित स्वरूप है- व्यक्तित्व। भीतर जैसी भी स्थिति मनुष्य की है,
उसका बाह्य क्रिया- कलाप वातावरण लगभग उसी स्तर का बनता चला जाता है। यह सङ्केत अन्तःकरण की आन्तरिक भाव निष्ठा की ओर है। जहाँ से बुद्धि, मन तथा शरीर की गतिविधियों को प्रेरणा मिलती है। हमारी आस्था- निष्ठा जब पशु- प्रवृत्तियों से भरी होती है, तो मस्तिष्क में आदर्शों के प्रवचन और शरीर में धार्मिकता के आडम्बर बढ़ते रहने पर भी बात कुछ बनती नहीं है, दम्भ भर विकसित होता रहता है। गायत्री का ‘धियो’ शब्द आस्था निष्ठा, आकांक्षा के मर्मस्थल को स्पर्श करने और परिवर्तन की चाबी वहीं से घुमाने की ओर सङ्केत करता है। ‘धियो’ का अर्थ यहाँ ऋतम्भरा प्रज्ञा से है। साधारण समझदारी और बुद्धिमानी को भी सन्मार्गगामी बनाने की उसमें शिक्षा समाविष्ट है।

‘यो नः’ अर्थात्- हमारा- हम सबका। एकाकीपन निकम्मी चीज है। अपने लिए ही धन, भोग, यश, वैभव, पद, सत्ता एकत्रित करने में सभी लोग लगे रहते हैं। तथाकथित भक्त एवं धर्मात्मा भी इसी गलित कुष्ठ के रोगी देखे जाते हैं। उन्हें भी अपने लिए स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, प्रतिष्ठा चाहिए। इस क्षुद्रता के कारण उनकी पूजा उपासना भी व्यापारी- व्यवसाइयों की भाँति अपनेपन की संकीर्णता में ही उलझी रह जाती है। न उससे उनका लाभ होता है और न समाज का। स्वार्थी वस्तुतः ओछेपन का नाम है, जो अपनी उपलब्धियों से न स्वतः लाभान्वित हो सकता है और न दूसरे को होने देता है। कोई एकाकी व्यक्ति उन्नति करे भी, तो ऐसे दूषित वातावरण में उसका लाभ नहीं ले सकता। दुष्ट और ईर्ष्यालु उसे अकारण ही सताते रहेंगे और चैन से न बैठने देंगे। गायत्री मन्त्र का ‘यो नः’ शब्द यही प्रेरणा देता है कि जो भी सोचना हो ‘मैं’ की तुच्छ परिधि में नहीं; वरन् ‘हम’ को ध्यान में रखकर सोचना तथा करना चाहिए- अपने को समाज का एक घटक मानना चाहिए और सामाजिक प्रगति में ही अपनी प्रगति की झाँकी देखनी चाहिए।

‘प्रचोदयात्’ अर्थात् प्रेरणा दे। परमात्मा से प्रार्थना है कि आपने हमें भौतिक सुविधाएँ उपार्जित करने में समर्थ बुद्धियुक्त शरीररूपी यन्त्र दे दिया, अब भौतिक क्षेत्र में हमारा माँगना और आपका देना व्यर्थ है। पात्रता के अभाव में यदि प्रस्तुत उपलब्धियों से ही लाभ उठा सकना अपने लिए सम्भव न हो, तो आगे बढ़ा हुआ वैभव अधिक तृष्णा और अधिक दुष्टता ही उत्पन्न करेगा। सदुपयोग न आने पर ही मनुष्य अपने को अभावग्रस्त समझता है और उसका निराकरण वस्तुओं से नहीं, आन्तरिक समाधान में ही सम्भव होता है। अस्तु; परमात्मा से एक ही प्रार्थना गायत्री मन्त्र में की गयी है कि वे हमें सन्मार्ग पर चलने की आकांक्षा जगा दें, उधर चलने का साहस प्रदान करें और घसीटते हुए उस कल्याण मार्ग पर नियोजित कर दें। यही प्रार्थना है कि ‘घुनने और धुनने’ में समय नष्ट करते रहने की कुण्ठा को हटाएँ। कुत्साओं से विरत हों और शरीर एवं मन को उस मार्ग पर धकेलें, जिससे मानव जीवन का प्रयोजन पूरा होता है। गायत्री मन्त्र का अन्तिम चरण उत्कृष्ट विचारणा को साहसिक प्रेरणा में व्यावहारिक गतिविधियों में परिणत करने का आग्रह करता है। उसी बिन्दु पर वह अत्यधिक जोर देता है।

यही है, गायत्री मन्त्र के शब्दों में समाया हुआ मोटा, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण- भावपूर्ण और तथ्यपूर्ण अर्थ। इन्हीं की परिधि में वक्ताओं को अपने प्रतिपादन अपने ढंग से प्रस्तुत करते हुए, गायत्री मन्त्र की व्याख्या करनी चाहिए और उपस्थित लोगों के मनःक्षेत्र को इस महाशक्ति की प्रेरणाओं से आलोकित करना चाहिए।

गायत्री का वाहन है- हंस। हंस का अर्थ है स्वच्छ कलेवर। दाग- धब्बों से, कलंक- कालिमाओं से बना हुआ जीवन हंस कैसे कहा जायेगा? जिसे नीर- क्षीर विवेक करना आता है, जो दूध में से पानी हटा देता है, दूध ही ग्रहण करता है, वह हंस है, जीवन को बिना दाग- धब्बे का स्वच्छ निर्मल चरित्र रखने का प्रयत्न करने वाला तथा अनुचित का सर्वथा त्याग, औचित्य कष्टसाध्य होते हुए भी उसे अंगीकृत करने की नीति, हंस प्रवृत्ति है। जिन्होंने यह नीति अपनाई, उन्हीं को गायत्री माता अपना वाहन बनायेंगी। उन्हीं पर विशेष कृपा करेंगी। यह तथ्य भी इस अवसर पर उपस्थित लोगों को समझाया जाना चाहिए। गङ्गा और गायत्री के जन्मदिन का पुनीत पर्व हमारे कर्म में गङ्गा जैसी सरसता और चिन्तन में गायत्री जैसी ज्योति उत्पन्न करे, इसी प्रेरणा को अधिकाधिक गहराई तक हृदयंगम किया जाए।

॥ पर्व पूजन॥

देवमंच पर आद्यशक्ति गायत्री और गंगावतरण के चित्रों की झाँकी सजाई जाए। पर्व व्यवस्था क्रम के अनुरूप प्रारम्भिक उपचार करते हुए रक्षाविधान तक के क्रम यथाशक्ति पूरे कराये जाएँ।

पर्व पर विशेष रूप से आद्यशक्ति की तीन धाराओं वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता, हंस तथा पतितपावनी गङ्गा का आवाहन करें। प्रत्येक आवाहन के पूर्व उनकी गरिमा का संक्षिप्त, सारगर्भित विवरण दें। फिर भावना संचार का सङ्केत देते हुए मन्त्रोच्चारपूर्वक आवाहन करें।
॥ वेदमाता आवाहन॥
वेद अर्थात् ज्ञान की माता। हमारे आवाहन के साथ ‘माँ’ वह दिव्य ज्ञान प्रकाश के रूप में अवतरित हो, जो अज्ञान, अशक्ति, अभाव से मुक्ति दिलाकर आदर्श लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ बना दे। दिव्य ज्ञान की उपलब्धि और उसे धारण करने व उपयोग में लाने की पात्रता को माँ सम्भव बनाए।
ॐ नमस्ते सूर्य संकाशे, सूर्ये सावित्रिकेऽमले।
ब्रह्मविद्ये महाविद्ये, वेदमातर्नमोऽस्तु ते॥ - गा०पुर०प०
ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः, प्राणं, प्रजां, पशुं, कीर्तिं, द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।
मह्यं दत्त्वा,व्रजत ब्रह्मलोकम्॥ -अथर्व.१९.७१.१
ॐ श्री वेदमात्रे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥ देवमाता आवाहन॥
देवत्व, सद्वृत्ति, सदाचार की जननी, हे माँ! दिव्य उल्लास प्रवाह के रूप में जन- जन में प्रस्फुटित हो। वह माँ हमारा भावभरा पूजन स्वीकार करे, दीनता और दुष्टता का निवारण करके हमारे जीवन को देवोपम बनाने के लिए अँगुली पकड़कर आगे बढ़ायें।
ॐ देवस्येति तु व्याकरोत्यमरतां, मर्त्योऽपि सम्प्राप्यते,
देवानामिव शुद्धदृष्टिकरणात्, सेवोपचाराद् भुवि।
निःस्वार्थं परमार्थकर्मकरणात्, दीनाय दानात्तथा,
बाह्याभ्यन्तरमस्य देवभुवनम्, संसृज्यते चैव हि॥
ॐ श्री देवमात्रे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ गा०गी०

॥ विश्वमाता आवाहन॥

जगन्माता उस आत्मीयभाव सहित अवतरित हो, जो स्वार्थपरता का उच्छेदन करके हमें मनुष्यता के गौरव का अधिकारी बना दे। विश्वपरिवार, विश्वसंस्कृति, विश्व व्यवस्था के आदर्श को साकार करने की शक्ति दें।
ॐ त्वं मातः सवितुर्वरेण्यमतुलं, भर्गः सुसेव्यः सदा,
यो बुद्धीर्नितरां प्रचोदयति नः, सत्कर्मसु प्राणदः।
तद्रूपां विमलां द्विजातिभिरुपास्यां मातरं मानसे,
ध्यात्वा त्वां कुरुशं ममापि जगतां, सम्प्रार्थयेऽहं मुदा॥
ॐ श्री विश्वमात्रे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - गा०पु०प०
॥ हंस आवाहन॥
माँ आद्यशक्ति का वाहन हंस है। जीव को भी हंस कहा गया है। हंस- चेतना, विवेक, निर्मलता का अवतरण हो। उसके पूजन से हम सब भी महाशक्ति को धारण करके गतिशील होने में समर्थ हो सकें।
ॐ परमहंसाय विद्महे, महाहंसाय धीमहि। तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥
ॐ श्री हंसाय नमः॥ आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ हं०गा० 

॥ गङ्गा आवाहन॥

पतित पावनी, लोक- कल्याणकारी माँ गङ्गा, पवित्र परमार्थ वृत्ति सहित पधारें। पापों- कल्मषों की कालिमा धोकर हमें निर्मल बनाएँ।
ॐ पंचनद्यः सरस्वतीम्, अपि यन्ति सस्रोतसः।
सरस्वती तु पंचधा, सो देशेऽभवत्सरित्॥ -३४.११
ॐ शैलेन्द्रादवतारिणी निजजले, मज्जज्जनोत्तारिणी,
पारावार विहारिणी भव- भय, श्रेणी समुत्सारिणी।
शेषाहेरनुकारिणी हरशिरो,वल्लीदलाकारिणी,
काशीप्रान्तविहारिणी विजयते, गंगामनोहारिणी॥
ॐ श्री गंगायै नमः॥ आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥

आवाहन के बाद सबका संयुक्त पूजन पुरुष सूक्त से किया जाए। पूजन के उपरान्त पर्व प्रसाद- सङ्कल्प धारण कराया जाए।
...................नामाहं युगशक्ति महाप्रज्ञागायत्री- अवतरणपर्वणि त्रिपदासाधनां स्वयं सम्पादयितुं अद्यप्रभृति च .............जनान् एतत्साधनायां नियोक्तुं श्रद्धापूर्वकं सङ्कल्पयिष्ये।

सङ्कल्प के बाद यज्ञ, दीपयज्ञ सहित समापन के सामान्य अनुशासन क्रम से आयोजन पूर्ण किया जाए।
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