कर्मकाण्ड भास्कर

शक्तिपीठों की दैनिक पूजा

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॥ शक्तिपीठों की दैनिक पूजा॥

गायत्री शक्तिपीठों में मातृशक्ति की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। अस्तु, उनकी नियमित पूजा- अर्चा का क्रम चलता है। इसके लिए यह पद्धति दी जा रही है। युग निर्माण अभियान के अन्तर्गत अपनाये गये हर कर्मकाण्ड के प्रति यह दृष्टि बराबर बनाकर रखी गयी है कि उसका कलेवर छोटा होते हुए भी उसका प्रभाव अद्भुत ही रहा है।

दैनिक पूजा अर्चा में भी यही दृष्टि जीवन्त रखी जानी है। प्रतीक पूजा मनोविज्ञान सम्मत ही नहीं, उसका एक अपना विधान भी है। प्रतीक से भावना में उभार आता है और प्रखर भावना के संघात से, प्रतीक से सम्बद्ध दिव्य सत्ता प्रस्फुटित- प्रकट हुए बिना रह नहीं पाती। जहाँ पूजा आराधना करने वाले भावनाशील होते हैं, वहाँ मूर्ति में दिव्यता उभर आती है। मीराबाई और श्रीरामकृष्ण परमहंस के उदाहरण सर्वविदित हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति में प्रतीक पूजा के साथ भाव भरे पूजन आराधन को अनिवार्य रूप से जोड़कर रखा गया है। शक्तिपीठों में पूजा- उपचार थोड़े ही हों, पर नियमित और भावपूर्ण हों, तो उसका प्रभाव प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। उस स्थिति में पूजा- उपचार मात्र औपचारिकता या शिष्टाचार तक ही सीमित नहीं रहते वरन् एक प्रभावशाली साधना प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त और फलित होते हैं। शक्तिपीठों में इस साधना क्रम को भी समुचित महत्त्व दिया जाना आवश्यक है। देवालयों में पूजन के संक्षिप्त एवं विस्तृत अनेक क्रम चलते हैं। गायत्री शक्तिपीठों के सामान्य कर्मकाण्ड का भावभरा पूजन- क्रम नीचे दिया जा रहा है-

१-   जागरण-  प्रातः मन्दिर के पट खोलकर रात्रि में डाला गया प्रतिमा आवरण हटाने के पूर्व उन्हें जगाने का विधान है। यह ठीक है कि वह परम चेतना कभी सोती नहीं; किन्तु यह भी सत्य है कि उन घट- घटवासी को जब तक अपने अन्दर जाग्रत् न किया जाए, तब तक उसका प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई नहीं देगा। मन मन्दिर हो या देव मन्दिर- महाशक्ति का विशिष्ट अनुग्रह पाने की आकांक्षा रखने वाले को उसे जाग्रत् करने की प्रक्रिया भी निभानी पड़ती है।
जागरण क्रम में पुजारी पहले पवित्रीकरण आदि षट्कर्म करें। उसके बाद ताली या छोटी घण्टी बजाते हुए नीचे दिया हुआ मन्त्र बोलते हुए आवरण आदि हटाएँ।


ॐ उत्तिष्ठ त्वं महादेवि, उत्तिष्ठ जगदीश्वरि।
उत्तिष्ठ वेदमातस्त्वं, त्रैलोक्यमङ्गलं कुरु॥

जागरण कराने के बाद नीचे लिखे मन्त्र बोलते हुए माँ को प्रणाम करें।

ॐ देवि ! प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद, प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।। प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवि ! चराचरस्य॥
विद्याः समस्तास्तव देविभेदाः, स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्, का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोक्तिः॥
विश्वेश्वरि ! त्वं परिपासि विश्वं, विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति, विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः॥
  - मा० पु० ८८.२,५,३३।


२- शुद्धिकरण- परमात्मा को पवित्रता प्रिय है, उस महाशक्ति का प्रवाह सदा निर्मल पवित्र माध्यमों से ही होता है, इसलिए उससे सम्बद्ध स्थल, मन्दिर, प्रतीक मूर्ति एवं साधन, व्यक्तित्व सभी को निर्मल रखने की परम्परा है। इस उत्तरदायित्व को स्मरण रखते हुए मूर्तिकक्ष एवं मूर्ति की स्वच्छता भावनापूर्वक की जानी चाहिए। निम्न मन्त्र का उच्चारण करते रहें।
ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवः, ता नऽऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः। ॐ तस्माऽअरंगमामवो, यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जन यथा च नः। -११.५०- ५२।
मन्त्र पूरा होने पर भी कृत्य पूरा न हो, तो गायत्री मन्त्र दुहराते रहें।

नोट- मूर्ति की स्वच्छता के क्रम में सामान्य रूप में गीले वस्त्र से क्रमशः मातेश्वरी के मुख, हाथ और चरण पोंछ दिये जाते हैं। आवश्यकता और भावना के अनुसार सारा शृंगार उतारकर पूरी मूर्ति की स्वच्छता का क्रम अपनाया जाता है। इसके लिए प्रातःकाल के अतिरिक्त भी कोई समय चुना जा सकता है, क्योंकि शृंगार उतारने, स्वच्छता करने एवं नया शृंगार बनाने में काफी समय लग जाता है। ऐसे अवसरों पर सेवा सज्जा करने वाले स्पष्ट रूप से सस्वर स्तुतामया वरदा०, गायत्री चालीसा, यन्मण्डलम्०, गायत्री मन्त्र आदि का पाठ करते रहें।

पूजा उपचार-  शुद्धिकरण के उपरान्त प्रातः आरती की व्यवस्था की जानी चाहिए। आरती के निर्धारित समय पर सभी श्रद्धालुओं को एकत्रित करने के लिए घण्टी का कोई निर्धारित सङ्केत किया जाना उपयुक्त रहता है। उस समय प्रतिमा के सामने का पर्दा डालकर रखा जाए। सस्वर मन्त्र बोलते हुए पुजारी अन्दर माँ का षोडशोपचार पूजन करे। सभी उपस्थित जन भक्ति- भावनापूर्वक सङ्गति करें। पूजन का क्रम संक्षिप्त उक्तियों सहित यहाँ दिया जा रहा है। इसके लिए पुरुषसूक्त के १६ मन्त्रों का उपयोग भी श्रद्धानुसार नित्य भी किया जा सकता है। पर्वों एवं विशेष प्रसंगो पर तो पुरुषसूक्त से पूजन किया ही जाना चाहिए।

पूजन भावनापूर्वक किया जाना चाहिए। देवशक्तियों को यों न तो किसी पदार्थ की आवश्यकता होती है और न किसी सम्मान की अपेक्षा, किन्तु साधक की भक्ति भावना से उनकी तुष्टि अवश्य होती है। घर में कोई सम्माननीय अतिथि आते हैं। प्रेमी परिजन उन्हें बुलाते हैं। उन अतिथि को किसी वस्तु का अभाव नहीं होता, फिर भी प्रेमी परिजन प्रेमवश श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति अपने साधनों द्वारा उनका सम्मान करते हैं। इससे दोनों ही पक्षों को सन्तोष होता है। पूजा- उपचार के समय भी ऐसा ही भाव उभरना चाहिए। उपचार की वस्तुएँ चढ़ाते समय अपने सर्वोत्तम साधनों- विभूतियों को प्रभु चरणों में अर्पित करने का उत्साह- उल्लास तरंगित होता रहे, तो पूजन सार्थक और सशक्त होता है।  

॥ षोडशोपचारपूजन॥

ॐ श्री गायत्रीेदेव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि॥ १॥ आसनं समर्पयामि॥ २॥ पाद्यं समर्पयामि॥ ३॥ अर्घ्यं समर्पयामि॥ ४॥ आचमनं समर्पयामि॥ ५॥ स्नानं समर्पयामि॥ ६॥
वस्त्रं समर्पयामि॥ ७॥ यज्ञोपवीतं समर्पयामि॥ ८॥ गन्धं विलेपयामि॥ ९॥
अक्षतान् समर्पयामि॥ १०॥ पुष्पाणि समर्पयामि॥ ११॥
धूपं आघ्रापयामि॥ १२॥ दीपं दर्शयामि॥ १३॥
नैवेद्यं निवेदयामि॥ १४॥ ताम्बूलपूगीफलानि समर्पयामि॥ १५॥ दक्षिणां समर्पयामि॥ १६॥ सर्वाभावे अक्षतान् समर्पयामि।
ततो नमस्कारं करोमि-
ॐ स्तुता मया वरदा...........................।

आरती-   आरती के समय उपस्थित व्यक्ति पंक्तिबद्ध व्यवस्थित क्रम से खड़े हों। घड़ियाल,शंख आदि सधे हुए क्रम से तालबद्ध बजाए जाएँ। वातावरण में दिव्यता लाने के लिए यह आवश्यक है, अस्त- व्यस्त क्रम से यह सम्भव नहीं।

आरती की ज्योति जलाकर पर्दा खोला जाए। पुजारी,आरती के लिए इस प्रकार खड़े हों कि प्रतिमा के दर्शन में उपस्थित परिजनों को बाधा न पड़े। आरती में पहले दीपक घुमाया जाता है। दीपक रखकर छोटे शङ्ख में जल भरकर उसे ५- ७ बार घुमाना चाहिए।

जल के बाद वस्त्र व चँवर घुमाया जाता है, अन्त में एक- दो बार जल घुमाकर वही जल उपस्थित समुदाय पर छिड़क दिया जाता है। यह सारे कृत्य निर्धारित समय में किये जाने चाहिए। इसके बाद दैनिक आरती के निर्धारित क्रम (वन्दनीया माताजी के आरती के कैसेट) के अनुसार प्रक्रिया पूरी की जानी चाहिए, प्रातः- सायं दोनों समय आरती का यही क्रम रहेगा।

भोजन नैवेद्य- भारतीय संस्कृति में भोजन को प्रसाद रूप- औषधि रूप में लेने का नियम है। प्रभु समर्पित पदार्थों में दिव्य संस्कारों का उदय हो जाता है। भोजन के प्रति राग- मोह की वृत्ति क्षीण होकर कर्त्तव्य बुद्धि जाग्रत् होती है। शक्तिपीठों में साधक जो भोजन अपने लिए तैयार करें,वह शुद्ध सात्विक हो। वही नैवेद्य माँ को अर्पित किया जाए। नैवेद्य का क्रम इस प्रकार है, श्रद्धापूर्वक मन्त्र बोलते हुए क्रमशः अर्घ्य, नैवेद्य एवं आचमन अर्पित किया जाए।

॥ अर्घ्य ॥

ॐ तापत्रय हरं दिव्यं,परमानन्दलक्षणम्।
नमस्तुभ्यं जगद्धात्रि ! अर्घ्यं नः प्रतिगृह्यताम्॥


॥ नैवेद्यम्॥

ॐ सत्पात्रसिद्धं नैवेद्यं, विविधभोज्यसमन्वितम्।
निवेदयामि देवेशि, सानुगायै गृहाण तत्॥


॥ आचमनम्॥

ॐ वेदानामपि वेद्यायै, देवानां देवतात्मने।
मया ह्याचमनं दत्तं, गृहाण जगदीश्वरि॥

पुष्पाञ्जलि-  रात्रि में पट बन्द किये जाने के पूर्व पुष्पाञ्जलि की जाए। दिन भर माँ के अनुग्रह के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए पुष्पाञ्जलि दी जाए। पुष्प की तरह माँ के चरणों में समर्पित होने का भाव किया जाए।

दोनों हाथों में पुष्प लेकर मन्त्र बोलें तथा क्रमशः माँ के आगे चढ़ाएँ।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥  - ३१.१६

शयन- रात्रि में देव प्रतिमाओं को शयन कराने की परम्परा है। तदनुसार पर्दा डालकर आवश्यक आच्छादन प्रतिमा पर चढ़ाकर नीचे लिखे मन्त्र से शयन की प्रार्थना की जाए।

ॐ इमां पूजां मया देवि ! यथाशक्त्युपपादिताम्।
शयनार्थं महादेवि ! व्रज स्वस्थानमुत्तमम्॥


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