कर्मकाण्ड भास्कर

|| प्राण प्रतिष्ठा प्रकरण ||

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॥ प्राण प्रतिष्ठा प्रकरण॥

सूत्र सङ्केत- देवालयों में प्रतिमा का पूजन प्रारम्भ करने से पूर्व उनमें प्राण- प्रतिष्ठा की जाती है। उसके पीछे मात्र परम्परा नहीं, परिपूर्ण तत्त्वदर्शन सन्निहित है। इस परम्परा के साथ हमारी सांस्कृतिक मान्यता जुड़ी है कि पूजा मूर्ति की नहीं की जाती, दिव्य सत्ता की, महत् चेतना की, की जाती है। स्थूल दृष्टि से मूर्ति को माध्यम बनाकर भी प्रमुखता उस दिव्य चेतना को ही दी जानी चाहिए। अस्तु, प्राण- प्रतिष्ठा प्रक्रिया- क्रम में जिस प्रतिमा को हम अपनी आराधना का माध्यम बना रहे हैं, उसे संस्कारित करके उसमें दिव्य सत्ता के अंश की स्थापना का उपक्रम किया जाता है।

यह भी एक विज्ञान है। पृथ्वी में हर जगह पानी है, बोरिंग करके पम्प द्वारा उसे एकत्रित किया जा सकता है। वायु को कम्प्रेसर पम्प द्वारा किसी पात्र में घनीभूत किया जा सकता है। लैंसों के माध्यम से सर्वत्र फैले प्रकाश को सघन करके स्थान विशेष पर एकत्रित किया जाना सम्भव है। पानी, वायु, और प्रकाश की तरह परमात्म तत्त्व भी सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। उसे घनीभूत करके किसी माध्यम विशेष में स्थापित करना भी एक विशिष्ट प्रक्रिया है। उसके लिए श्रद्धासिक्त कर्मकाण्ड की व्यवस्था तत्त्वदर्शियों ने बनाई है। मन्दिर एवं प्रतिमा को उस महत् सत्ता के अवतरण के उपयुक्त बनाकर उसमें उसकी स्थापना करने के लिए प्राण- प्रतिष्ठा प्रयोग किया जाता है।

क्रम व्यवस्था- प्राण- प्रतिष्ठा के लिए यज्ञीय वातावरण बनाना आवश्यक है। अस्तु, प्राण- प्रतिष्ठा के क्रम में सामूहिक गायत्री यज्ञ का एक या अधिक दिन का आयोजन रखा जाना चाहिए। उसमें जल यात्रा से लेकर अन्यान्य कर्मकाण्ड सुविधा- व्यवस्था एवं समय का सन्तुलन बिठाते हुए किये जाने चाहिए। यज्ञीय वातावरण में प्राण- प्रतिष्ठा का कर्मकाण्ड किया जाए।

मूर्ति स्थापना स्थल पर पहले से रखी रहे। उसके आगे पर्दा लगा रहे। दस स्नान एवं पूजन की सामग्री पर्दे के अन्दर पहले से तैयार रखी जाए। जितनी मूर्तियों में प्राण- प्रतिष्ठा करनी है, उतने स्वयं सेवकों- व्यक्तियों को पहले से उस कार्य के लिए नियुक्त कर लिया जाना चाहिए। वे व्यक्ति ही पर्दे के अन्दर जाकर संचालक के निर्देशानुसार प्राण- प्रतिष्ठा का कार्य करें। अच्छा हो कि यह कृत्य समझदार कुमारी कन्याओं से कराया जाए। उसके लिए उन्हें पहले से सारा क्रम समझा दिया जाना चाहिए। नीचे लिखे क्रम से कर्मकाण्ड कराया जाए।

१- षट्कर्म- जिन्हें प्राण- प्रतिष्ठा करनी है, उन्हें प्रतिमाओं के पर्दे के बाहर आसन पर बिठाकर पहले षट्कर्म करा दिया जाए।
२- शुद्धि सिंचन- यज्ञ के कलशों का जल अनेक पात्रों में निकाल कर रखा जाए। मन्त्र पाठ के साथ उस जल का सिंचन, उपस्थित व्यक्तियों, पूजन सामग्री, मन्दिर एवं मूर्तियों पर किया जाए।

ॐ आपोहिष्ठा मयोभुवः, ता न ऽ ऊर्जे दधातन। महेरणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्माऽअरंगमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः। - ११.५०, ३६.१४- १६
३- दशविध स्नान- प्रारम्भ में मूर्तियों को दस स्नान कराये जाते हैं। मूर्ति जिस पत्थर या धातु की बनी है, उसे न जाने कैसे- कैसे संस्कार के स्थान एवं व्यक्तियों के सम्पर्क में रहना पड़ा होगा। उसमें सन्निहित अवाञ्छनीय कुसंस्कारों के निवारण तथा वाञ्छित संस्कारों की स्थापना के लिए यह क्रम चलाया जाता है। इसके बाद ही प्रतिमा दैवी सत्ता की प्रतीक बनने योग्य होती है। प्रथम चार स्नान भस्म, मिट्टी, गोबर एवं गोमूत्र से होते हैं। यह अवाञ्छनीय संस्कारों के निवारण के लिए है। कर्मकाण्ड करने वाले व्यक्ति स्नान के पदार्थ को हथेलियों में लगाकर उसे मन्त्र के साथ मूर्ति पर मलें। चारों पदार्थ को प्रयोग हो जाने पर गीले वस्त्र (तौलिये) से उसे भली प्रकार पोंछ दिया जाए। उसके बाद शेष ६ पदार्थों दूध, दही, घी, सर्वोषधि, कुशोदक एवं शहद का प्रयोग इसी प्रकार किया जाए। अन्त में शुद्ध जल से स्नान करा देना चाहिए। यह जल, एकत्रित करके चरणामृत के रूप में वितरित किया जा सकता है। इसके लिए शुद्ध मुलायम कपड़े से प्रयुक्त जल को सोखकर किसी पात्र में निचोड़ते रहना चाहिए। इससे जल फैलकर मंदिर में गन्दगी एवं फिसलन का कारण भी नहीं बनेगा और चरणामृत भी सुविधापूर्वक एकत्रित हो जाएगा। इस कार्य के लिए एक अतिरिक्त स्वयं सेवक रखा जाना चाहिए। मन्त्रों एवं क्रिया की संगति बिठाते हुए भावनापूर्वक दस स्नान एवं शुद्धोदक स्नान का क्रम चलाया जाए।

(दशविध स्नान की प्रक्रिया पृष्ठ ११४ पर देखें।)

४. प्राण आवाहन- प्राण तत्त्व को दिव्य विद्युत् कह सकते हैं। कुशल इञ्जीनियर विद्युत् को विभिन्न स्वरूपों में प्रयुक्त करके विभिन्न कार्य कर लेते हैं। स्थूल विद्युत् के प्रवाह के नियम पदार्थ विज्ञान के अङ्ग हैं। ‘प्राण’ चेतन विद्युत् है। अस्तु, उसके प्रवाह के नियमन पर चेतना विज्ञान के नियम लागू होते हैं। तीव्र भावना एवं प्रखर सङ्कल्प द्वारा प्राण शक्ति को, स्थान- विशेष, वस्तु- विशेष की दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। आचार्य कर्मकाण्ड करने वाले व्यक्ति सहित सभी उपस्थित श्रद्धालु जन हाथ जोड़कर मन्त्र के साथ प्राण का आवाहन करें।

ॐ प्राणमाहुर्मातरिश्वानं, वातो ह प्राण उच्यते।
प्राणे ह भूतं भव्यं च, प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम्॥ -अथर्व० ११.४.१५
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं, षं सं हं लं क्षं हं सः। अस्याः गायत्रीेदेवीप्रतिमायाः, प्राणाः इह प्राणाः। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं, षं सं हं लं क्षं सः। अस्याः प्रतिमायाः, जीव इह स्थितः। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं, षं सं हं लं क्षं सः। अस्याः प्रतिमायाः सर्वेन्द्रियाणि, वाङ् मनस्त्वक् चक्षुः श्रोत्रजिह्वा घ्राणपाणिपादपायूपस्थानि, इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।

नोट- अन्य सभी देवताओं की प्रतिष्ठा हेतु (अस्याः शिव, राम, दुर्गा, प्रतिमायाः) प्रतिमा शब्द के पूर्व उस देवता का नाम बोलकर प्रतिष्ठा करें।
५. प्राण- प्रतिष्ठा हेतु न्यास- न्यास प्रक्रिया के द्वारा प्रतिमा के विभिन्न अंगो में विभिन्न देव शक्तियों को समाविष्ट करने का विधान है। सभी उपस्थित व्यक्ति मन्त्रों के साथ यही भावना करें। कर्मकाण्ड करने वाला व्यक्ति हर उक्ति के साथ अपने दाहिने हाथ में क्रमशः उन अंगो का स्पर्श करता चले, जिनका उल्लेख मन्त्रों में किया गया है।
 
ॐ ब्रह्मा मूर्ध्नि। शिखायां विष्णुः। रुद्रो ललाटे। भ्रु्रवोर्मध्ये परमात्मा। चक्षुषोः चन्द्रादित्यौ। कर्णयोः शुक्रबृहस्पती। नासिकयोः वायुदैवतम्। दन्तपंक्तौ अश्विनौ। उभे सन्ध्ये ओष्ठयोः। मुखे अग्निः। जिह्वायां सरस्वती। ग्रीवायां तु बृहस्पतिः। स्तनयोः वसिष्ठः। बाह्वोः मरुतः। हृदये पर्जन्यः। आकाशं उदरे। नाभौ अन्तरिक्षम्। कट्योः इन्द्राग्नी। विश्वेदेवा जान्वोः। जङ्घायां कौशिकः। पादयोः पृथिवी। वनस्पतयोंऽगुलीषु। ऋषयो रोमसु। नखेषु मुहूर्ताः। अस्थिषु ग्रहाः। असृङ्मांसयोः ऋतवः। संवत्सरो वै निमिषे। अहोरात्रं त्वादित्यश्चन्द्रमा देवता।

तत्पश्चात् हाथ जोड़कर मन्त्र बोलें-
ॐ प्रवरां दिव्यां गायत्रीं, सहस्रनेत्रां शरणमहं प्रपद्ये।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्याय नमः। ॐ तत्पूर्वजयाय नमः।
ॐ तत्प्रातरादित्याय नमः। ॐ तत्प्रातरादित्यप्रतिष्ठायै नमः। -गा०पु०प०
नोट- अन्य सभी देवों की प्रतिष्ठा के समय उन- उन देवताओं की स्तुति, आरती, प्रार्थना आदि की जाए।

प्राण स्थिरीकरण- न्यास के बाद सभी व्यक्ति दोनों हथेलियाँ मूर्ति की ओर करके स्थापित प्राण को स्थिर करने की भावना के साथ मन्त्र बोलें।
ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु, अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च।
अस्यै देवत्वमर्चायै, मामहेति च कश्चन॥ प्रति० म०पृ०३५२

शोभा शृंगार- प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रतिमा को वस्त्र- आभूषण पहनाये जाएँ। इस कार्य में दक्ष व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए। शोभा- शृंगार में अधिक समय न लगे, इसका ध्यान रहे, अन्यथा उपस्थित जन समुदाय ऊबने लगेगा। इस क्रिया के समय मधुर स्वर से गायत्री चालीसा पाठ का किसी वन्दना के गान का क्रम चलता रहे। शृंगार हो जाने पर षोडशोपचार पूजन किया जाए।

षोडशोपचार- जिस प्रतिमा में प्राण- प्रतिष्ठा की गई है, इष्ट भाव से उसका पूजन करके अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति की जानी चाहिए। पूजन में पुरुष सूक्त के मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। इस सूक्त में परमात्मा के विराट् रूप का वर्णन है। इस सूक्त से पूजन के साथ यह भाव तरंगित होता रहता है कि हम प्रतिमा के माध्यम से उसी विराट् सत्ता की अर्चना कर रहे हैं, जिसका वर्णन पुरुष- सूक्त के मन्त्रों में है।

आरती- षोडशोपचार पूजन समाप्त होने पर जितनी प्रतिमाओं की प्राण- प्रतिष्ठा की गई है, उन सभी के लिए पृथक्- पृथक् आरती सजाई जाए। आरती की तैयारी होते ही शंख, घण्टे आदि सधे हुए क्रम से बजाने प्रारम्भ कर दिये जाएँ। आरती प्रारम्भ होने के साथ ही मूर्ति के आगे लगा पर्दा हटा दिया जाए। आरती के साथ निम्न मन्त्र का सस्वर पाठ किया जाए।

ॐ त्वं मातः सवितुर्वरेण्यमतुलं, भर्गः सुसेव्यः सदा, यो बुद्धीर्नितरां प्रचोदयति नः, सत्कर्मसु प्राणदः।
तद्रूपां विमलां द्विजातिभिरुपास्यां मातरं मानसे, ध्यात्वा त्वां कुरु शं ममापि जगतां, सम्प्रार्थयेऽहं मुदा॥    -गा०पु०प०

नमस्कार - आरती समाप्त होने पर सभी उपस्थित श्रद्धालुजन भावना सहित मातेश्वरी को नमस्कार करें। नमस्कार के साथ यह मन्त्र बोला जाए।
ॐ नमस्ते देवि गायत्रि! सावित्रि! त्रिपदेऽक्षरे। अजरे अमरे मातः, त्राहि मां भवसागरात्।
नमस्ते सूर्यसंकाशे, सूर्यसावित्रिकेऽमले। ब्रह्मविद्ये महाविद्ये, वेदमातर्नमोऽस्तु ते॥
अनन्तकोटिब्रह्माण्ड- व्यापिनि ब्रह्मचारिणि। नित्यानन्दे महामाये, परेशानि नमोऽस्तु ते॥ -गा०पु०प०

समापन- इसके पश्चात् जयघोष करके प्राण- प्रतिष्ठा का विशेष कर्मकाण्ड समाप्त किया जाए। साथ ही, प्रतिमा पर पुष्पार्पण करने, आरती एवं चरणामृत वितरण की क्रम व्यवस्था बना दी जानी चाहिए। लोग पंक्तिबद्ध होकर मन्दिर में प्रवेश करते रहें। पुष्प चढ़ा कर आरती लें एवं चरणामृत ग्रहण करें। यह क्रम देर तक चलता रहेगा। अस्तु, पूर्णाहुति का क्रम भी साथ ही प्रारम्भ कर लिया जाना उचित है। स्थिति एवं व्यवस्था के अनुरूप प्रसाद वितरण आदि का क्रम सम्पन्न करें।

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