कर्मकाण्ड भास्कर

॥ नवरात्र पर्व॥

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नवरात्र पर्व वर्ष में दो बार आता है। (१) चैत्र शुक्ल १ से ९ तक। चैत्र नवरात्र जिस दिन आरम्भ होता है, उसी दिन विक्रमी संवत् का नया वर्ष प्रारम्भ होता है। विक्रमादित्य राजा होने के साथ ही जनहित- लोकमंगल के लिए समर्पित साधक भी थे। उनकी आदर्शनिष्ठा की झलक सिंहासन बत्तीसी की पुस्तकों में मिलती है। लोकमानस और शासन तन्त्र के आदर्श समन्वय के प्रतीक के रूप में उन्हें मान्यता दी गयी और उनके राज्याभिषेक को नवीन संवत्सर से जोड़कर उनकी कीर्ति को अमर बना दिया गया। इसी प्रकार चैत्र नवरात्र का समापन दिवस भगवान् श्री राम का जन्म दिन रामनवमी होता है। (२) दूसरा नवरात्र आश्विन शुक्ल से ९ तक पड़ता है। इससे लगा हुआ विजयदशमी पर्व आता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नक्षत्रों की गणना अश्विनी नक्षत्र से प्रारंभ होती है। इस आधार पर आश्विन मास ज्योतिष नक्षत्र वर्ष का प्रथम मास माना जाता है।

इस प्रकार दोनों नवरात्र पर्वों के साथ नये शुभारम्भ की भावना, मान्यता जुड़ी हुई है। दोनों में छः मास का अन्तर है। यह साधना पर्व वर्ष को दो भागों में बाँटते हैं। ऋतुओं के सन्धिकाल इन्हीं पर्वों पर पड़ते हैं। सन्धिकाल को उपासना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। प्रातः और सायं, ब्राह्ममुहूर्त्त एवं गोधूलि वेला दिन और रात्रि के सन्धिकाल हैं। इन्हें उपासना के लिए उपयुक्त माना गया है। इसी प्रकार ऋतु सन्धिकाल के नौ- नौ दिन दोनों नवरात्रों में विशिष्ट रूप से साधना- अनुष्ठानों के लिए महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। नवरात्र पर्व के साथ दुर्गावतरण की कथा भी जुड़ी है। वर्तमान समय, युग सन्धि काल के रूप में तत्त्वदर्शियों ने स्वीकार किया है। युग की भयावह समस्याओं से मुक्ति के लिए युगशक्ति के उद्भव की कामना सभी के मन में उठती है। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत साधना की अपेक्षा सामूहिक साधना अनुष्ठानों का महत्त्व अत्यधिक बढ़ जाता है। इसीलिए युग निर्माण अभियान के सूत्र संचालकों ने हर भावनाशील से अपेक्षा की है कि नवरात्र पर्व पर सामूहिक साधना अनुष्ठानों के लिए विशेष रूप से प्रयास करें। शक्तिपीठ, प्रज्ञा संस्थान एवं शाखा संगठनों को तो ये उत्तरदायित्व विशेष रूप से सौंपे गये हैं। जहाँ दो- चार परिजन भी हों, वहाँ भी नवरात्रों पर सामूहिक साधना- अनुष्ठान की व्यवस्था बना लें। जो किसी मजबूरी में अपना अनुष्ठान घर पर करते हों, वे भी सायंकाल सत्संग- आरती में तथा पूर्णाहुति के दिन सामूहिक क्रम में ही शामिल हों। ऐसे प्रयास सभी साधक करें।

॥ व्यवस्था- क्रम॥
* सामूहिक साधना के लिए कोई सार्वजनिक स्थल चुना जा सकता है, किसी के व्यक्तिगत स्थान का उपयोग भी किया जा सकता है। स्थान ऐसा हो, जहाँ अपनी सहज गतिविधियों से दूसरों को तथा उनकी गतिविधियों से अपने साधना क्रम में अड़चन पैदा न हो।
* स्थान इतना होना चाहिए कि देव स्थापना और सामूहिक उपासना के लिए जगह की तंगी न पड़े।
* साधना स्थल पर गायत्री माता का चित्र, कलश, दीपक आदि सजाये जाएँ। सामूहिक साधना स्थल पर जौ बोने से पवित्रता एवं सुन्दरता का संचार होता है। जो एक- दो दिन पहले भी बोये जा सकते हैं। बोने से पूर्व उन्हें चौबीस घण्टे भिगो दिया जाए, तो अंकुर जल्दी निकल आते हैं।
* सामूहिक साधना के लिए कई दिन पहले से ही जन सम्पर्क द्वारा साधकों की संख्या बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
* प्रेरणा देने, प्रभाव बतलाने और स्नेह भरे आग्रह, प्रोत्साहन का क्रम अपनाने से कमजोर सङ्कल्प वाले भी साधना का लाभ उठाने लगते हैं।
* ९ दिन में २७ माला नित्य करने से २४००० मन्त्र होते हैं। जिनसे न बन पड़े, वे १२ माला करके १०८ माला का अनुष्ठान कर सकते हैं।
* साधना काल में अस्वाद व्रत, एक समय अन्नाहार, शाक, फल जैसे सुगम उपवास का क्रम अपनाने, ब्रह्मचर्य पालने, चमड़े के जूतों का उपयोग न करने, चारपाई पर न सोने, अपने कार्य स्वयं करने जैसी सर्वसुलभ तप- तितिक्षा अपनाने की बात सबको ध्यान में रखनी चाहिए। जिस दिन से नवरात्र प्रारम्भ हो, उस दिन प्रातःकाल या उसके एक दिन पहले शाम को सामूहिक सङ्कल्प की व्यवस्था बनानी चाहिए। संक्षेप में साधना का महत्त्व एवं नियम समझाते हुए नीचे लिखे क्रम से उपचार कराएँ-

(१) षट्कर्म (२) यज्ञोपवीत परिवर्तन, जो यज्ञोपवीत न पहने हों, उन्हें नवरात्र साधना के लिए अस्थायी यज्ञोपवीत दिया जा सकता है। (३) तिलक, कलावा, (४) कलश स्थापना- दीप प्रज्वलन, पूजन (५) सर्वदेव आवाहन, पूजन- नमस्कार। यदि समय की सुविधा हो, तो षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त से भी कराया जा सकता है। (६) स्वस्तिवाचन (७) अनुष्ठान सङ्कल्प, (८) सिंचन- अभिषेक एवं (९) पुष्पाञ्जलि ।। (इनके मन्त्र सामान्य प्रकरण में दिये जा चुके हैं।)
जप के समय दीपक एवं अगरबत्ती आदि जलाये रखें। अखण्ड दीपक आवश्यक नहीं। अखण्ड जप या दीपक रखने की भावना और स्थिति हो, तो प्रातःकाल से लेकर सायंकाल आरती तक रखा जाना पर्याप्त है। शाम को सामूहिक गायत्री चालीसा गान, प्रेरक भजन, कीर्तन, प्रज्ञा पुराण वाचन, जैसे सत्संग क्रम चलाये जाएँ। अन्त में आरती करके समापन किया जाए।
नौवें दिन सामूहिक पूर्णाहुति की व्यवस्था की जाए। एक, पाँच, नौ जैसी भी स्थिति हो, तदनुरूप वेदियाँ बनाकर यज्ञ किया जाए। सामूहिक क्रम में आहुतियों की संख्या का बन्धन नहीं होता। पूर्णाहुति में सुपारी अथवा नारियल के गोले का उपयोग किया जाना चाहिए।
पूर्णाहुति के बाद सामान्य प्रसाद वितरण करके समापन किया जा सकता है। यदि व्यवस्था हो सके, तो सभी साधकों को अमृताशन (दलिया, खिचड़ी जैसे भगौनी में पकाने योग्य पदार्थ) का भोजन कराकर, प्रसाद से उपवास की समाप्ति (पारण) की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए।
अनुष्ठान के साथ दान की परम्परा जुड़ी हुई है। ज्ञानदान सर्वश्रेष्ठ है। इस दृष्टि से प्रत्येक साधक को चाहिए कि यथाशक्ति वितरण योग्य सस्ता युग साहित्य खरीदकर उन्हें उपयुक्त व्यक्तियों को साधना का प्रसाद कहकर दें। पढ़ने और सुरक्षित रखने का आग्रह करें। अनुष्ठान के बाद इस प्रक्रिया को श्रेष्ठदान एवं ब्रह्मभोज के समतुल्य माना जाता है। यज्ञ पूर्णाहुति के साथ ही इसे सुनिश्चित मात्रा में करने का सङ्कल्प करना चाहिए। पूर्णाहुति के बाद विसर्जन करें। यदि रामनवमी अथवा दशहरा पर्व उसी स्थल पर मनाना है, तो विसर्जन पर्व पूजन के बाद करें। सामूहिक साधना के संरक्षण, दोष परिमार्जन के लिए शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार सूचना भेजी जा सकती है।
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