कर्मकाण्ड भास्कर

श्रावणी पर्व

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माहात्म्य बोध- ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ की ब्रह्म आकांक्षा जिस दिन पूरी हुई, कहते हैं उस दिन श्रावणी थी। एक से बहुत होना, सहयोग, सम्पर्क, स्नेह के आधार पर आत्मा में उल्लास विकसित होता है और एकाकीपन की नीरसता दूर होती है। यही ब्रह्मा ने किया,उसे अकेलापन भाया नहीं। अपनी विभूतियों को अपने तक सीमित रखकर, भला वह उस स्थिति में सन्तुष्ट भी कैसे रहता? विष्णु की नाभि में से कमल नाल निकली और वह पुष्प बनकर खिल पड़ी। उसी मकरन्द का भ्रमर बह्मा है- प्रजापति। सङ्कल्प शक्ति क्रिया में परिणत होती है और उसी का स्थूल रूप, वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है, नाभि में से अन्तरंग- बहिरंग बनकर विकसित होने वाली कर्मवल्लरी को ही पौराणिक अलंकार में कमलबेल कहा गया है, पुष्प इसी बेल का परिपक्व परिणाम है।

सृष्टि का सृजन हुआ, उसमें दो तत्त्व प्रयुक्त हुए। १. ज्ञान २. कर्म। इन दोनों के सम्मिश्रण से सूक्ष्म चेतना- सङ्कल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हो गई और संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया, जिसमें ऋद्धि- सिद्धियों का आनन्द- उल्लास भर गया- यह कमल की पंखुड़ियाँ हैं। मूल है ज्ञान और कर्म,जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन द्वारा सम्भव हुआ। ज्ञान और कर्म, जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन द्वारा सम्भव हुआ। ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मनुष्य की गरिमा का विकास हुआ है, इन्हें जो जितना परिष्कृत एवं प्रखर बनाता चलता है, उसकी प्रगति पूर्णता की दिशा में उतनी ही तीव्र गति से होती है- इस तथ्य को स्मरण रखने के लिए भारतीय धर्म के दो प्रतीक हैं- एक ज्ञान ध्वज शिखा, जो मस्तकरूपी किले के ऊपर फहराई जाती है। दूसरा यज्ञोपवीत- कर्त्तव्य, जिसमें मनुष्य को आगे और पीछे से पूरी तरह कस दिया गया है। शिखा स्थापना और यज्ञोपवीत धारण उसी ज्ञान और कर्म को परिष्कृत बनाये रखने की चेतावनी है, जो जीवन को उसके आदि उद्गम पर ही दे दी गई थी और जो अद्यावधि अपनी उपयोगिता यथावत् बनाये हुए है।
श्रावणी पर्व पर पुराना यज्ञोपवीत बदला जाता है और नया पहना जाता है। प्रायश्चित्त सङ्कल्प पढ़ते हैं और पिछले दिनों की हुई अवाञ्छनीयताओं का प्रायश्चित्त विधान सम्पन्न करते हैं। ऋषि पूजन भी इसी समय किया जाता है और वेद पूजन भी। वेद अर्थात् सद्ज्ञान। ऋषि अर्थात् वे व्यक्ति जो सद्ज्ञान को सत्कर्म में परिणत करने के लिए साहसिक तपश्चर्या करते हैं, कष्टसाध्य रीति- नीति अपनाते हैं। शिखा में सिंचन, यज्ञोपवीत, नवीनीकरण एक प्रकार से उनका वार्षिक संस्कार हैं, जैसे हर साल जन्मदिन और विवाह दिन मनाये जाते हैं। मोटर, रेडियो, बन्दूक आदि के लाइसेन्स नये होते हैं, उसी प्रकार यज्ञोपवीत और शिखा जैसे प्रकाश स्तम्भों को कहीं उपेक्षा विस्मृति के गर्त में तो नहीं डाल दिया गया- इसका निरीक्षण विश्लेषण नवीनीकरण से करते हैं।
श्रावणी पर्व ब्राह्मण के, ऋषित्व के अभिवर्धन का पर्व है। सद्ज्ञान एवं सत्कर्म की मर्यादाओं का खण्डन हुआ हो, तो उसके प्रायश्चित्त के लिए तथा उच्च आदर्शवादी जीवन को अधिक तेजस्वी बनाने के लिए इस पर्व पर आत्म सङ्कल्प एवं परमात्म अनुदानों का योग करने का विधान बनाया गया है। सामूहिक रूप से संक्षिप्त ही सही, किन्तु भाव- भरे उपचारों द्वारा यज्ञीय भाव जनमानस में जाग्रत् करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

॥ पर्व व्यवस्था॥

श्रावणी पर्व पर द्विजत्व के सङ्कल्प का नवीनीकरण किया जाता है। उसके लिए परम्परागत ढंग से लोग एकत्रित होकर तीर्थ आवाहन करके, दस स्नान, हेमाद्रि सङ्कल्प एवं तर्पण आदिकर्म करते हैं। इसके लिए किसी जलाशय पर जाते हैं, अथवा मन्दिर आदि पवित्र स्थल पर जल पात्र- बाल्टी आदि के सहारे यह सब करते हैं। यह सब उपचार प्रायश्चित्त के अन्तर्गत आते हैं, उसके लिए नीचे लिखे अनुसार क्रम बना लेना चाहिए।

१. षट्कर्म (सामान्य प्रकरण) २. तीर्थ आवाहन ३. हेमाद्रि सङ्कल्प (इसी पर्व में) ४. दसस्नान (पृ. ११२) ५. यज्ञोपवीत नवीनीकरण (पृ.२०८), यदि नवीन यज्ञोपवीत देना हो, तो यज्ञोपवीत प्रकरण से लें। वैसे सामान्यभाव में पृ.४२ वाला प्रकरण भी पर्याप्त माना जा सकता है। ६. तर्पण (पृ.२९५) ७. अर्घ्यदान नमस्कार आदि (सामान्य प्रकरण से) कराकर परम्परागत श्रावणी उपाकर्म पूरा किया जा सकता है।

इस श्रावणी उपाकर्म में थोड़े से गिने- चुने लोग ही सम्मिलित हो पाते हैं। शहरों में तो यह और भी कठिन हो जाता है। सामूहिक पर्व पूजन में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हो जाते हैं और उसमें कठिनाई भी नहीं होती। इसलिए जलाशय पर किये जाने वाले उपचारों के मूलभूत तत्त्व भी पर्व पूजन क्रम के साथ संयुक्त करके अधिक पुण्यप्रद श्रावणी पर्व का सामूहिक क्रम यहाँ दिया जा रहा है, जहाँ उसे दो खण्डों में करना हो, वहाँ वैसा भी किया जा सकता है। श्रावणी पर सामूहिक पर्वायोजन का क्रम इस प्रकार चलाया जाना चाहिए।

*  श्रावणी पर्व के लिए नर- नारी सभी में उत्साह रहता है। पूजन मंच के सामने बिठाने की व्यवस्था पहले से ही निर्धारित रहे।
* अभ्यागतों को दो वर्गों में विभक्त किया जाए। दोनों के लिए अलग- अलग खण्ड निश्चित रहें, एक खण्ड में केवल उन्हें बिठाया जाए, जो यज्ञोपवीत- परिवर्तन आदि सभी उपचारों में भाग लेंगे। दूसरा वर्ग जो केवल पूजन, रक्षाबन्धन वृक्षारोपण जैसे गिने- चुने कर्मकाण्डों में ही भाग लेंगे। बालक- बालिकाएँ भी उसी वर्ग में रहें।
*  सभी उपचार करने वालों को पूजनमंच के निकट तथा खुली पंक्तियों में बिठाएँ, ताकि बार- बार पूजन सामग्री देने, उपचार करने में कठिनाई न हो। सीमित उपचार वालों को अपेक्षाकृत सघन भी बिठाया जा सकता है।
* पर्व पूजन में प्रयुक्त होने वाली सभी वस्तुएँ पहले से समुचित मात्रा में रखी जाएँ, उन्हें कार्य प्रारम्भ के पूर्व जाँच लिया जाए, जैसे देवमंच की सज्जा, बह्माजी का चित्र या प्रतीक नारियल, ऋषियों का प्रतीक कुशाओं का छोटा पूला। वेदपूजन के लिए पीले वस्त्र में लपेटी वेद की पुस्तक, पूजन सामग्री एवं पुष्प- अक्षत यथेष्ट मात्रा में, शिखा सिंचन के लिए चन्दन या सुगन्धियुक्त जल, यज्ञोपवीत परिवर्तन के लिए यज्ञोपवीत, रक्षाबन्धन के लिए कलावा,- सूत्र, वृक्षारोपण के लिए तुलसी अथवा फूल लगाने योग्य वृक्षों की पौध। यदि यज्ञ करना है, तो उससे सम्बन्धित सभी सामग्री।
सभी व्यवस्था सटीक बनाकर, स्वयं सेवकों एवं संचालकों को उनके उत्तरदायित्व समझाकर पर्वपूजन प्रारम्भ करें। पूजन मंच पर प्रतिनिधि द्वारा षट्कर्म से लेकर रक्षाविधान तक के सभी उपचार, समय एवं परिस्थितियों की मर्यादा के अनुसार कराएँ। उसके बाद विशेष उपचार भावनापूर्वक प्रेरणा उभारते हुए सम्पन्न कराये जाएँ। अन्त में यज्ञ अथवा दीपयज्ञ- आरती आदि के समापन प्रक्रिया के उपचार यथानुशासन कराये जाएँ।

॥ पर्व पूजन क्रम॥
 
उपस्थित श्रद्धालुओं को संक्षेप में पर्व की भूमिका बतलाकर, भाव जागरण करके षट्कर्म आदि कृत्य कराएँ। कदाचित् सामूहिक रूप से षट्कर्म कराना सुलभ प्रतीत न हो, तो ॐ अपवित्रः .... मन्त्र से सामूहिक अभिषिंचन करके सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन आदि कृत्य पूरे करें। तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्र के साथ तीर्थ आवाहन करें-
ॐ पुष्करादीनि तीर्थानि, गंगाद्याः सरितस्तथा ।।
आगच्छन्तु पवित्राणि, स्नानकाले सदा मम ॥
त्वं राजा सर्वतीर्थानां, त्वमेव जगतः पिता ।।
याचितं देहि मे तीर्थं, तीर्थराज नमोऽस्तु ते ॥
अपामधिपतिस्त्वं च, तीर्थेषु वसतिस्तव ।।
वरुणाय नमस्तुभ्यं, स्नानानुज्ञां प्रयच्छ मे ।।
गंगे च यमुने चैव, गोदावरि सरस्वति ।।
नर्मदे सिन्धु कावेरि, जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥

॥ हेमाद्रि संकल्प॥

प्रेरणा प्रवाह- यह सृष्टि नियन्ता के सङ्कल्प से उपजी है। हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है, यह सृष्टि ईश्वरीय योजना के अनुकूल हुई, तो कल्याणकारी परिणाम उपजते हैं, अन्यथा अनर्थ का सामना करना पड़ता है। अपनी सृष्टि में चाहने, सोचने, करने में कहीं भी विकार आया हो, तो उसे हटाने तथा नई शुरुआत करने के लिए हेमाद्रि सङ्कल्प करते हैं।
क्रिया और भावना- सभी के हाथों में सङ्कल्प के अक्षत- पुष्प दें तथा भावनापूर्वक सङ्कल्प दुहराने का आग्रह करें। भावना करें कि-
*  हम विशाल तन्त्र के एक छोटे, किन्तु प्रामाणिक पुर्जे हैं। विराट् सृष्टि ईश्वरीय योजना, देव संस्कृति के अनुरूप हमें बनना है, ढलना है।
*  हमारे सङ्कल्प के साथ वातावरण की शुचिता और देव अनुग्रह का योगदान मिल रहा है। परमात्म सत्ता की प्रतिनिधि आत्मसत्ता के लिए पुलकित- हर्षित होकर सक्रिय हो रही है। मन्त्र-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्धे, श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपान्तर्गते भारतवर्षे भरतखण्डे अस्मिन्वर्तमाने............संवत्सरे..........................क्षेत्रे .....मासे ......पक्षे ........तिथौ .......वासरे........गोत्रोत्पन्नः .......... नामाहं ज्ञाताज्ञात- स्तेय- अनृतभाषण नैष्ठुर्य सङ्कीर्णभाव असमानता कपट विश्वासघात - कटूक्ति - पति- पत्नी व्रतोत्सर्ग - ईर्ष्या - द्वेष - कार्पण्य - क्रोध - मद - मोह - लोभ मात्सर्य - जनक- जननी गुर्वादि- पूज्यजन- जनित- उच्चनीचादि असमता- मादकपदार्थ सेवन - सुरापान - मांसादि अभक्ष्यआहार - आलस्य - अतिसंग्रह - द्यूतक्रीडा - इन्द्रिय- असंयमानां स्वकृतचतुर्विंशति संख्यकानां दोषाणां परिहारार्थं श्रावणी उपाकर्म अहं करिष्ये।

॥ दस स्नान॥
पृष्ठ ११२ के अनुसार दस- स्नान की प्रक्रिया सम्पन्न करें।

॥ शिखा सिंचन॥

प्रेरणा प्रवाह- देव संस्कृति सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है। उसके अनुकरण का वातावरण बने, तो ही उसका लाभ मिल सकता है, शिखा को उसका प्रतीक माना गया है। विचार सर्वोच्च साधन हैं। उन्हें उच्च आदर्शों से ही युक्त रखना चाहिए, इसके लिए स्वाध्याय का क्रम नियमित चलना चाहिए। अपनी सांस्कृतिक महानता का बोध, उसके प्रति गौरव की अनुभूति, उसे क्रियान्वित करने का प्रचण्ड उत्साह उभरने से जीवन धन्य अवश्य बनेगा।
क्रिया और भावना- सबकी बायीं हथेली पर सुगन्धित जल दिया जाए। मन्त्रोच्चारण के साथ दाहिने हाथ से शिखा को उस जल से सिंचित करें। भावना करें कि शरीर के ऊपरी भाग में मस्तिष्क के उच्चतम स्तर पर सांस्कृतिक चेतना को स्थापित करके उसके द्वारा दिव्य तेजस्विता को धारण किया जा रहा है।
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखा मध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ -सं.प्र.

॥ यज्ञोपवीत नवीनीकरण॥

तदुपरान्त वानप्रस्थ प्रकरण पृष्ठ २६२ से यज्ञोपवीत नवीनीकरण उपचार की प्रेरणा तथा क्रिया लें। पंचदेवावाहन पूर्वक यज्ञोपवीत लेने वाले हों, तो उसकी भी व्यवस्था साथ ही की जा सकती है। इस नवीनीकरण का विस्तृत रूप यज्ञोपवीत प्रकरण से लेना पड़ेगा। समयाभाव में वानप्रस्थ प्रकरण से भी विधि पूरी हो जाती है। यज्ञोपवीत नवीनीकरण कराएँ। शेष सुनें- समझें और अन्य उपचारों में भाग लें।

॥ विशेष पूजन॥

प्रेरणा प्रवाह- श्रावणी पर्व पर सामान्य देव पूजन के अतिरिक्त विशेष पूजन के लिए ब्रह्मा, वेद एवं ऋषियों का आवाहन किया जाता है। ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हैं। ब्राह्मी चेतना का वरण- करने अनुशासन पालन से ही अभीष्ट प्राप्ति हो सकती है। उस विद्या को जानने- अभ्यास में लाने वालों को ब्रह्मचारी, ब्राह्मण, ब्रह्मज्ञ आदि सम्बोधन दिये जाते रहे हैं। ब्रह्मा का आवाहन पूजन करके इन्हीं तथ्यों को प्रत्यक्ष करने का प्रयास किया जाता है।

वेद ज्ञान को कहते हैं। ज्ञान से ही विकास होता है। अज्ञान ही अवनति का मूल है। ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण करने के लिए वेद आवाहन- पूजन करते हैं। ऋषि जीवन ने ही उच्चतम जीवनचर्या का विकास और अभ्यास करने में सफलता पाई थी, उनके अनुभवों- निर्देशों का लाभ उठाने के लिए ऋषि पूजन करते हैं। अमीरी नहीं महानता का चयन ही बुद्धिमत्तापूर्ण है। यह किसी आदर्शप्र्रेमी, ऋषि और किसी भ्रष्ट वैभवशाली का तुलनात्मक विश्लेषण करके जनता को समझाया जा सकता है कि कुमार्ग पर चलना कितना घातक है। सौम्य जीवन अन्ततः कितना सुखद सिद्ध होता है, इसकी चर्चा ऋषि तत्त्व का प्रतिपादन करते हुए की जानी चाहिए।

॥ ब्रह्मा आवाहन॥
ॐ ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः, द्यौः समुद्रसम œ सरः।
इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान्, गोस्तु मात्रा न विद्यते॥ २३.४८
ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥

॥ वेद आवाहन॥
ॐ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्, आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ - ३१.१८
ॐ वेदपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
॥ ऋषि आवाहन॥
ॐ इमामेव गोतमभरद्वाजौ, अयमेव गोतमोऽयं भरद्वाजऽ,इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी, अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निः, इमावेव वसिष्ठकश्यपौ, अयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो, वागेवात्रिर्वाचाह्यन्नमद्यतेऽत्तिः, हवै नामैतद्यदत्रिरिति, सर्वस्यात्ता भवति,
सर्वमस्यान्नं भवति य एवं वेद॥-बृह०उ० २.२.४
ॐ ऋषिभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(आवाहन के पश्चात् षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त- पृष्ठ- ९६ से करें)।

॥ रक्षा बन्धन॥

प्रेरणा प्रवाह- श्रावणी पर रक्षा बन्धन बड़ा हृदयग्राही एवं सर्वप्रिय क्रम है। यह ऋषि परम्परा के अनुरूप मर्यादाओं के बन्धन से परस्पर एक दूसरे को बाँधने, अपने कर्त्तव्य निर्वाह का आश्वासन देने का अनोखा ढंग है।

* आचार्य- ब्राह्मण अपने यजमानों को रक्षा सूत्र बाँधते रहे हैं। उन्हें अनुशासन में बाँधकर कल्याणकारी प्रगति का अधिकारी बनाने के लिए अपने पवित्र कर्त्तव्य पालन का आश्वासन है, जो देव साक्षी में किया जाता है, इसके बिना मार्गदर्शक और अनुयायी एक दूसरे से लाभ नहीं उठा सकते।
* आज देश, धर्म, समाज, संस्कृति की चारों सीमाएँ किस प्रकार खतरे में हैं और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए किस प्रकार सर्वसाधारण को धर्मयोद्धा के रूप में, सृजन सेना के सैनिक के रूप में कटिबद्ध होना चाहिए? इसकी स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की जा सकती है, सृजन सेना के कर्त्तव्य में यह सब बताया गया है। कन्याओं द्वारा रक्षा बन्धन में एक और तत्त्व का समावेश है, वह है- नारी की गरिमा। इन दिनों कला के नाम पर जो दुःशासन- दुर्योधन जैसी धृष्टता की जा रही है, उसे रोकना। नारी को खिलौना बनाकर उसकी शालीनता को वैश्या स्तर पर गिराने की कुचेष्टा तथाकथित कलाकार, साहित्यकार और उसके माध्यम से पाप की कमाई करने वाले दुष्ट, जो अनाचार कर रहे हैं, उसे रोकने की भी प्रार्थना है। नारी को बहिन, पुत्री और माता की दृष्टि से देखने का अनुरोध तो प्रत्यक्ष ही रक्षाबन्धन में सन्निहित है।

नारी के प्रति पवित्र भावना की शक्ति का प्रमाण पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथानकों में मिलता है। इन्द्र को विजय तभी मिली, जब देवी शची ने पवित्र भाव से रक्षासूत्र बाँधा। अर्जुन, शिवाजी छत्रसाल आदि महापुरुषों की सफलताओं के पीछे उनका नारी के प्रति पवित्र दृष्टिकोण भी असाधारण महत्त्व रखता है।

क्रिया और भावना- रक्षाबन्धन पूज्य श्रद्धास्पद व्यक्तियों अथवा कन्याओं से कराया जाता है। सामूहिक आयोजन में कुछ प्रतिनिधि सबको रक्षासूत्र बाँधें। व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर राखी बाँधने का क्रम उस समय चलाने से व्यवस्था गड़बड़ा जाती है, उसे कार्यक्रम के बाद के लिए छोड़ देना चाहिए। रक्षासूत्र बाँधने- बँधवाने के समय पवित्र- दिव्य स्नेह सूत्रों से बाँधने का भाव रखें-
ॐ यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यœ, शतानीकाय सुमनस्यमानाः। तन्मऽआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्माञ्जरदष्टिर्यथासम्। -३४.५२

॥ वृक्षारोपण॥

प्रेरणा प्रवाह- वृक्ष परोपकार के प्रतीक हैं, जो बिना कुछ माँगे मनुष्यों- पशुओं को छाया, फल प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त वृक्षों की अधिकता से वायु शुद्ध होती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि वृक्षों से वर्षा, प्रदूषण, नियन्त्रण आदि में बड़ी सहायता मिलती है। मानव जीवन की सभी आवश्यक वस्तुएँ, यथा- भोजन, वस्त्र, निवास आदि में वृक्षों का योगदान अधिक रहता है। इसलिए वृक्षारोपण, उनका पूजन एवं अधिकाधिक हरियाली पैदा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है।

क्रिया और भावना- पर्व प्रकरण के प्रतीक रूप में तुलसी की पौध लगाने का न्यूनतम कार्यक्रम अवश्य पूरा किया जाना चाहिए। उसके लिए उचित मात्रा में पौध, पूजावेदी पर या अन्यत्र सजाकर रख लेनी चाहिए। उपस्थित व्यक्तियों में जो अपने यहाँ पौध लगाना चाहें, उन्हें वे दिये जाएँ। सभी उसे हाथ में लेकर मन्त्र के साथ अभिमंत्रित करें। भावना करें कि प्रकृति में संव्याप्त कल्याणकारी चेतना प्रवाह इस पौधे को मंगलमय क्षमता से सम्पन्न बना रहा है। मंच पर प्रतीक पौधे गमले में मन्त्रोच्चार के साथ आरोपित करें। शेष व्यक्ति कार्यक्रम समाप्त होने पर उसे वाञ्छित स्थानों में लगायें। श्रावणी से भाद्रपद तक वृक्षारोपण अभियान चलाया जाए।

ॐ वनस्पतिरवसृष्टो न पाशैस्त्मन्या, समञ्जछमिता न देवः।
इन्द्रस्य हव्यैर्जठरं पृणानः, स्वदाति यज्ञं मधुना घृतेन॥ -२०.४५

॥ सङ्कल्प॥

............नामाहं श्रावणीपर्वणि प्रायश्चित्तविधान- शुद्धान्तः करणैः आर्षप्रणाल्या- अनुरूपं तपश्चर्यात्यागयोः स्वजीवने सिद्धान्तमङ्गीकृत्य श्रद्धानिष्ठापूर्वकं तद्धारणस्य संकल्पमहं करिष्ये। तत्प्रतीकरूपे .......... नियमपालनार्थं स्वीकुर्वे।
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