गीत संजीवनी-1

गँवा दिया किसलिए बावरे

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गँवा दिया किसलिए बावरे- यह जीवन अनमोल।
कुछ तो,बोल रे प्रवासी बोल- बोल रे प्रवासी बोल॥
धन, वैभव, पद, माल खजाना- साथ नहीं कुछ तेरे जाना।
हुआ कहाँ से तेरा आना- बता भला क्या पता ठिकाना॥
पार नहीं पा सकता बन्दे- यह दुनियाँ है गोल॥
इन्द्रिय द्वार झरोखे भारी- बना बना बैठे सुर क्यारी।
आवत देखहिं विषय बयारी- ते हठि देहिं कपाट उघारी॥
लूट रही हैं सभी इन्द्रियाँ- पिला विष घोल॥
यह शरीर तो वाहन तेरा- इसे बना ले साँप सपेरा।
क्यों प्रमाद ने तुझको घेरा- प्राण पपीहे ने यों टेरा॥
यह शरीर तो अन्तरात्मा- का है केवल खोल॥
बैरागी गुरु अलख जगाया- एक नूर से जग उपजाया।
तू भी एक उसी की माया- उसे न यदि इस तन से पाया॥
कितना बोले मधुर- मधुर रहा ढोल का ढोल॥
ज्ञान कमा ले भक्ति जगा ले- कुछ ऐसे कर कर्म बावले
पतिव्रता की रीति निभा ले- परमेश्वर से प्रीति जगा ले॥
अंधकार में भटक- भटक कर- करकट नहीं टटोल॥
कठिन डगर है तू एकाकी- टूटा पाँव लिए बैशाखी
पास न कोई वस्तु काम की- अभी दूर तक मंजिल बाकी॥
उगने लगा प्रकाश मूढ़मति- अब तो आँखे खोल॥
मुक्तक- मनुज का जन्म है अनमोल,इसको व्यर्थ ना खोवें
यही हीरा- यही चन्दन,समझकर भार मत ढोवें॥    
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