गीत संजीवनी-1

गुरु का अमृत मिला जिसे

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गुरु का अमृत मिला जिसे वह, भूल गया हर स्वाद को।
भुला न पाया लेकिन गुरु की, वंशी के स्वर- नाद को॥
जिसको वह आनन्द दे दिया, गुरु ने सोच- विचार के।
उसको लगने लगे निरर्थक,सारे सुख संसार के।
बँध न सका सीमाओं में वह, अपने अचिर शरीर की।
अपनों से भी अधिक हुई, चिन्ता औरों की पीर की।
पर दुःख के आगे वह भूला, अपने दुःख- अवसाद को।
ऐसा सबल मनोबल उसने, पाया निज गुरुद्वार से।
तेज बहावों में न बहा वह, डरा नहीं मझधार से।
कभी निराशा से न भरा वह, विपदा में, तूफान में।
सुख, यश, अभिनन्दन पाकर भी, भरा नहीं अभिमान में।
ऐसी मस्ती मिली कि भूला, नश्वर सुख आह्लाद को।
पाकर प्राण- प्रवाह भर गया, अंग- अंग विश्वास से।
पग- पग पर संकेत पा गया, धरती से, आकाश से।
पवन झकोरे लगे बुलाने, सद्गुरु के आह्वान से।
संकट लगने लगे उसे फिर, तप के अनुसन्धान से।
श्रद्धा ऐसी जगी,कि भूला,तर्क,वाद- प्रतिवाद को।
जीवन में आधुनिक- पुरातन, के हर पल टकराव हैं।
तन- मन तथा परिस्थितियों के, द्विविधाजनक प्रभाव हैं।
गुरुवाणी करती निरस्त, हर असमंजस- विद्रोह को।
जगा ‘करिष्ये वचनं तव’ का, भाव मिटाती मोह को।
परिणत करती वही योग में, मन के गहन विषाद को। 
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