गीत संजीवनी-1

कहाँ छुपा बैठा है!

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कहाँ छुपा बैठा है अब तक वह सच्चा इन्सान।
खोजते जिसे स्वयं भगवान॥
जिसने जानी पीर पराई, परहित में निज देह तपाई
जिसने लगन दीप की पाई, तिल- तिल जलकर ज्योति जलाई॥
उसकी आभा से ही होता, देवों का सम्मान।
खोजते जिसे स्वयं भगवान॥
जिसने रूखा सूखा खाया, पर न कहीं ईमान गँवाया।
उसने ही वह भोग लगाया, जिसे राम ने रुचि से खाया॥
स्वार्थ रहित सेवा ही जिसकी, मेवा सुधा समान।
खोजते जिसे स्वयं भगवान॥
जिसने गला दिया अपना तन, सींचा इस धरती का उपवन।
परहितमय है जिसका जीवन, वही महकता बनकर चन्दन॥
ईश्वर के मस्तक पर होगा, उसका ही गुणगान।
खोजते जिसे स्वयं भगवान॥
मुक्तक-
दुनियाँ याद करे नित तुमको।
कार्य जगत में वह कर जाओ॥
ऐसी भक्ति करो तुम प्रभु की।
चन्दन बन उपवन महकाओ॥    
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