माँगो तो उस खुदा से

September 1998

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मैं भी चलूँ, बादशाह सलामत अकबर से कुछ माँगू। अपनी तंगी दूर करूँ। सुना है कि वे हर एक फकीर की इज्जत करते हैं और भरपूर मदद करते हैं। जो भी उनके सामने हाथ फैलाता है, वह मुँह-माँगी मुराद पाता है, कभी खाली हाथ नहीं लौटता।

यह सोचकर बाबा फरीद शहंशाह अकबर से मिलने चल पड़े। उन्होंने अकबर की दरियादिली, सभी धर्मों के प्रति उसके आदर एवं गरीबों की मदद के अनेक किस्से सुने थे। अपने दीन-ए इलाही धर्म के कारण बादशाह अकबर फकीरों में भी बहुत लोकप्रिय था।

अनेक जरूरतमंद फकीर अपनी जरूरतों के लिए अकबर के पास बेझिझक पहुँच जाते और वहाँ से पूर्णतया सन्तुष्ट होकर वापस आते थे। इन्हीं फकीरों से बादशाह की दानिशमन्दी और दरियादिली की प्रशंसा सुनकर शेखबाबा फरीद ने भी सोचा, चलो मैं भी बादशाह से कुछ माँग लूँ।

शेखफरीद जिस समय बादशाह के पास पहुँचे, उस समय शहंशाह अकबर खुदा की इबादत कर रहे थे। वे ध्यानमग्न थे। आँखें मूँद कुछ सोच रहे थे। बाबा शेख फरीद इंतजार करते हुए दूर से ही अकबर की इबादत पर नजर लगाए रहे।

इबादत कर लेने के बाद जब अकबर अपने आसन पर से उठे, तो फरीद ने देखा कि वह हाथ फैलाकर अल्लाह से कुछ माँग रहे हैं, ऐ मेरे खुदा! ऐ परवर दिगार! ऐ मेरे मौला। मुझ पर रहम कर! ऐ दो जहाँ के मालिक! मुगल सल्तनत को गाँधार से लेकर दक्षिण तक सलामत रख। इसे और भी अधिक बढ़ा मेरी ताजपोशी महफूज रहे। मेरी झोली सदा भरी रहे। धन-संपत्ति कभी कम न हो। अकबर को हाथ ऊपर फैलाए परमात्मा से इस प्रकार की याचना करते देखकर शेखफरीद मुड़कर वापस जाने लगा। बादशाह अकबर उनकी बड़ी इज्जत करते थे। वे बड़े ही चिंतनशील एवं पहुँचे फकीर थे। ऐसे फकीर को अपने महल आया हुआ देखकर वे अपना अहोभाग्य समझ रहे थे। चुपचाप यों ही बिना कुछ बोले जाते देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ। अकबर ने अत्यन्त विनय पूर्वक उनसे निवेदन किया।

हुजूर! आप यों ही चुपचाप क्यों चले जा रहे हैं? इबादत में लगे रहने की वजह से देर हो गयी। माफी चाहता हूँ। बन्दा अब खिदमत के लिए हाजिर है। हुक्म कीजिए।

पर शेख फरीद चुपचाप कुछ सोच रहे थे। मानो वे किसी अन्तर्द्वन्द्व के समाधान हेतु बड़ी गम्भीरता से आत्म-मंथन कर रहे हों। उनके मन में याचक और याचना में संघर्ष चल रहा था। आखिर किससे मदद माँगी जाए, किससे नहीं।

पूरे आदर सहित बादशाह ने फिर दोहराया-बन्दे को खिदमत का एक मौका जरूर दीजिए। आपका यहाँ पधारना मेरे लिए बड़े गौरव की बात है।

बादशाह की इन बातों को सुनकर भी बाबा चुप ही रहे। अब बादशाह ने यह सोचा कि ये शायद कम सुनते हों। इसलिए पुनः कुछ जोर देकर बोले- आपने मुझसे खिदमत के लिए कुछ फरमाया नहीं बाबा! क्या कोई गुनाह हो गया है मुझसे! गुस्ताख़ी माफ करें, कुछ तो माँगें?

बाबा जाते-जाते कुछ रुके। एक हल्की-सी मुसकराहट उनके चेहरे पर दिखाई दी।

अब बाबा कुछ सकुचाते हुए बोले- बादशाह सलामत मैं तो खुद आपसे कुछ माँगने ही आया था, पर आपको स्वयं माँगते देखकर मेरी अन्दर की आँखें खुल गयीं।

मैं कुछ समझा नहीं। बन्दा परवर कुछ साफतौर पर कहें।

आपको हाथ फैलाकर माँगते देखकर खुदा ने मेरे हृदय की आँखें खोल दी हैं।

क्या मतलब है?

आपको हाथ फैलाए देखकर मैं यह जान गया हूँ कि सारे जहाँ का मालिक तो वह खुदा है, जिससे आप भी हाथ फैलाकर कुछ माँग रहे थे?

अकबर के अंतःकरण की हिलोरों को भाँपकर शेखफरीद कहने लगे शहंशाह अकबर! मैं यह महसूस करता हूँ कि मैं वह बदकिस्मत फकीर हूँ, जो एक मंगते के आगे हाथ फैलाने आया हूँ। लानत है मुझ जैसे मंगते पर। मैं सोचता हूँ कि जिस इन्सान के पास खुद ही नहीं है, वह भला मुझे क्या देगा? कैसे वह अपने को सत्ता-धन-संपत्ति एवं रुतबे से अलग कर सकेगा। मनुष्य की अन्दरूनी गरीबी का ख्याल कर मैंने आपसे कुछ माँगना उचित नहीं समझा। धन जरूरी है, पर उसका आगमन ईमानदारी, सन्तोष और अपने बाजुओं की मेहनत पर टिका होना चाहिए। तभी तनाव कम होगा और देने वाले तथा लेने वाले को शान्ति मिलेगी, सुकून मिलेगा।

बादशाह अकबर! हिंसा, अन्याय, दिखावा, क्रोध और लालच से आया हुआ पैसा न तुम्हें शान्ति देगा, न मुझे ही और न ही तुम्हारी आगे आने वाली पीढ़ियों को ही ताकत दे सकेगा। देने वाला तो बस एक खुदा ही है। उसी से कुछ माँगना उचित रहेगा।

बाबा फरीद बिना कुछ माँगे ही वापस चले गए। शहंशाह अकबर का गर्व धूलि-धूसरित हो रहा था।


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