पुनर्जन्म की सत्यता के अनेकानेक प्रमाण

September 1998

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मृत्यु जीवन का अन्त नहीं, वरन् मरने के बाद भी जीवन का अस्तित्व बना रहता है और वह पुनर्जन्म धारण करता है। भारतीय धर्मशास्त्रों में पग-पग पर इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है। श्रीमद् भगवद्गीता में बार-बार इस बात का उल्लेख किया गया है कि शरीर छोड़ना वस्त्र बदलने की तरह है। प्राणी को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। शुभ कर्म करने वाले श्रेष्ठ लोक को सद्गति को - मोक्ष को प्राप्त करते हैं और दुष्कर्म करने वालों को नरक की दुर्गति भुगतनी पड़ती है।

पुनर्जन्म के संदर्भ में आधुनिक परामनोवैज्ञानिक अनुसंधानों ने भी अब ऐसे अनेकों प्रमाण एकत्रित किये हैं जिनसे मनुष्यों का पुनर्जन्म होने के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे अन्वेषणों में प्रो. राइन की खोजे बहुत विस्तृत और प्रामाणिक मानी जाती है। इस दिशा में बहुत जाँच पड़ताल हुई और जो निष्कर्ष सामने आये, वे यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बना रहता है और वह पुनर्जन्म धारण करती है। भारतीय संस्कृति में आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म की सुनिश्चितता को आरम्भ से ही मान्यता प्राप्त है। किन्तु संसार के दो प्रमुख धर्मों-ईसाई और इस्लामी धर्मं के बारे में ऐसी बात नहीं हैं। इनमें मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व तो माना जाता है, पर कहा जाता है कि वह प्रसुप्त स्थिति में बना रहता है। महाप्रलय होने के उपरान्त फिर कहीं नया जन्म मिलता है। इतने विलम्ब से पुनर्जन्म होने की बात तो न होने जैसे ही बन जाती है। ऐसी दशा में इन धर्मों के अनुयायियों के बारे में पुनर्जन्म न मानने जैसी मान्यताएँ है। किन्तु वैज्ञानिक, परामनोवैज्ञानिक अनुसंधानों एवं उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर अब लोगों की मान्यताएँ बदली है और नये सिरे से पुनर्जन्म के सम्बन्ध में जाँच - पड़ताल करने का उत्साह उमड़ा है।

ब्राजीलियन इन्स्टीट्यूट ऑफ सायकोबायोफिजिकल रिसर्च के अध्यक्ष डॉ. हरनानी एण्ड्रेड ने एक सौ से अधिक ऐसे छोटे बच्चों का सर्वेक्षण किया है, जो पुनर्जन्म की घटनाएँ इतनी सटीक जानकारी के साथ बताते थे, जो बताने की इनकी कतई क्षमता नहीं थी। उदाहरण स्वरूप कई पीढ़ियों से इटली में बसने वाला परिवार ब्राजील में आ बसा। इस परिवार की एक छोटी-सी बालिका थी - नाम था - सिलवीया। सिलवीया जब एक माह की थी, तभी से वह जब कभी हवाईजहाज ऊपर से उड़ता, तो भयग्रस्त होकर घंटों चुपचाप सहमी-सी पड़ी रहती। जब वह बोलने लायक हुई तो कभी-कभी ब्राजीलियन भाषा के अतिरिक्त इटालियन शब्दों का भी प्रयोग करने लगती। यद्यपि उस परिवार में और न ही कहीं पास-पड़ोस में उसने किसी को इटालियन भाषा बोलते सुना था। उसके इस व्यवहार से सभी विस्मित थे।

समय बीतता गया और सिलवीया तीन वर्ष की हो गयी। अपनी सहेलियों, मित्रों से जब वह बातचीत करती तो अपने को कहीं और देश की निवासी बताती, साथ ही विशेष रूप से एक इटालियन व्यक्ति-अफोन्सा दिनारी का नाम प्रायः तेली रहती थी। एक दिन जब उसकी चौथी साल गिरह थी, तब उसने इटली की राजधानी रोम का एक चित्र देखा। देखते ही वह बोल उठी - यह तो कैपिटल अर्थात् राजधानी है। यहाँ पर एक घर में मैं रहती थी। एक दिन जब उसकी चौथी साल गिरह थी, तब उसने इटली की राजधानी रोम का एक चित्र देखा। देखते ही वह बोल उठी - यह तो कैपिटल अर्थात् राजधानी है। यहाँ पर एक घर में मैं रहती थी। जिस स्कूल में मैं पढ़ती थी, उसके पास में पहाड़ियाँ हैं। मैं उन पहाड़ियों पर उछलती-कूदती थी। उस चित्र के नीचे केवल रोम और इटली - इतने ही अक्षर छपे थे, इतने पर भी उसने वहाँ की भौगोलिक स्थिति का स्पष्ट वर्णन किया।

एक अन्य अवसर पर उसने अपनी मृत्यु के सम्बन्ध में बताया कि एक दिन वह स्कूल में थी। एक मित्र उसकी ओर फाउन्टेन पेन जैसी कुछ चीज लेकर आ रहा था। अचानक उस वस्तु में एक भयंकर विस्फोट हुआ और हम दोनों ऊपर की ओर उड़ते गये। इस घटना की साक्षी उसकी दादी माँ ने इस दिन के पूरे घटनाक्रम को अपनी डायरी में नोट कर लिया था, जिसे सिलवीया के पुनर्जन्म की सत्यता की जाँच-पड़ताल कर रहे डॉ. हरनानी एन्ड्रेड को दिखाया गया। रोम में पता लगाया गया तो पाया गया कि एक पहाड़ी के पास एक स्कूल था, जहाँ दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान खिलौना समझकर पेन के आकार की विस्फोटक वस्तु हाथ में लेने से दो बच्चे की मृत्यु गयी थी। उनमें से एक बच्ची थी और दूसरा एक लड़का। सत्यता की परख करने के लिए जब सिलविया की दादी ने उससे प्रश्न किया कि उस घटना के बाद क्या हुआ, तो उसने बताया कि तब वह आपके पास आ गयी।

पहले पुनर्जन्म की घटनाओं के बारे में पाश्चात्य जगत में जो ऊहापोह थी, अब वह मिटने लगी है। विश्व के विभिन्न भागों में मूर्धन्य वैज्ञानिक इन घटनाओं को केवल कपोल - कल्पना बताकर टाल देने की अपेक्षा इन घटनाओं की गहरी छानबीन गंभीरता से करने लगे हैं।

‘मिस्ट्रीज ऑफ इनर सेल्फ’ नामक पुस्तक में स्टुअर्ट होलरायड ने इस तरह की अनेक घटनाओं का वर्णन किया है, जो पुनर्जन्म की सच्चाई को उजागर करती हैं। उसके अनुसार जर्मनी का मोजार्ट नामक पाँच वर्षीय बालक सर्वाधिक विलक्षण था। केवल पाँच वर्ष की आयु में ही वह अपने पिता वुल्फगौग अमेडीअस और बहिन नानेरी के साथ बहुत ही शानदार संगीत बजा लेता था। इतना ही नहीं, वह स्वयं इतना ही नहीं, वह स्वयं संगीत की रचना भी कर लेता था। ऐसे विलक्षण बच्चों की प्रतिभा का कारण मात्र इस जन्म का उपार्जन नहीं कहा जा सकता है। शरीर, की मृत्यु के साथ संग्रहित संस्कारों का भी अंत हो जाता है, इस पाश्चात्य मान्यता में अवश्य नहीं त्रुटि है, ऐसा अब मूर्धन्य विज्ञजनों व वैज्ञानिकों को भी मानने के लिए बाध्य होना पड़ा रहा है। वे स्वीकारने लगे हैं कि आनुवंशिक गुणों की भाँति ही सूक्ष्म संसार भी व्यक्ति के साथ जन्म - जन्मान्तर तक साथ चलते हैं और अवसर पाकर भले-बुरे रूपों प्रस्फुटित होते हैं।

एक अन्य घटना थोड़े परिवर्तन के साथ इसी तथ्य की ओर इशारा करती है। एक आंग्ल बालिका को बचपन से बार-बार यही स्वप्न आता था कि वह टहलते-टहलते एक चर्च के पास कब्रिस्तान तक पहुँचाती हैं, जहाँ कुछ घोड़े चरते हुए दिखाई देते हैं। किसी एक कब्र की ओर मानों उसे कोई बरबस खींच रहा है। बेबस वह उस तरफ खिंचती चली जाती है और वहाँ जाकर गिर पड़ती है। इस स्वप्न के बाद उसकी नींद खुल जाया करती थी। इस स्वप्न से भयभीत होकर उसने बारह वर्ष की उम्र में प्रख्यात ब्रिटिश लेखक जे. बी. प्रीस्टले को अपने स्वप्न के बारे में विस्तारपूर्वक एक पत्र द्वारा जानकारी दी। उन दिनों प्रीस्टले स्थान और समय का अतिक्रमण करने वाली इसी तरह की घटनाओं की छानबीन कर रहे थे।

इस पत्र - व्यवहार के कुछ महीनों बाद छुट्टियों में वह बालिका अपने एक रिश्तेदार के यहाँ जा रही थी। रास्ते में अचानक तेज आँधी चलने लगी, मेघ गर्जन होने लगा और बारिश होने लगी। वर्षा से बचने हेतु उसने पास के चर्च में शरण ली। वहाँ पहुँचने पर देखा कि जिस चर्च को वह स्वप्न में बार-बार देखती रहती है, यह वही चर्च था। पास में ही कब्रिस्तान था, जहाँ कुछ छुट्टल घोड़े चर था। एक कब्र की ओर जाने का उसका मन हुआ। उसे लगा जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे खींचकर उस कब्र तक पहुँचा दिया हो। अवलोकन करने पर पाया कि उस कब्र पर जो वाक्य खुदा था, उसका तात्पर्य था - मृतक को २१ अप्रैल, १९३४ में दफनाया गया। वस्तुतः इसी तारीख को उस लड़की का जन्म भी हुआ था। कैसा अजीब संयोग था।

जे. बी. प्रीस्टले ने इस घटना का उल्लेख करते हुए अपनी पुस्तक में आगे लिखा है कि अपने जन्म के दिन ही पूर्व में उसकी मृत्यु हुई थी, उसी का स्वप्न बार-बार आता रहता है, इस बात की जानकारी होने के बाद उस लड़की को स्वप्न आना बंद हो गया। वस्तुतः छोटी आयु के बालक - बालिकाओं को आने वाले स्वप्न या स्मृतियाँ भूतकाल के संकेत होते हैं। जन्मजात विलक्षण क्षमताएँ अधिकतर बाल्यावस्था में ही दृष्टिगोचर होती है। यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए उनने लिखा है कि अधिकतर घटनाओं में आयुवृद्धि के साथ ही पूर्व जन्म की स्मृतियाँ विलुप्त हो जाती हैं और अचेतन मस्तिष्क के किसी एक कोने में जाकर जम जाती हैं विख्यात अमेरिकी परामनोविज्ञानी डॉ. विलियम पेनफील्ड ने इस संदर्भ में गहन खोजें की हैं और पाया है कि अचेतन मस्तिष्क ही पूर्व जन्म की स्मृतियों एवं भले-बुरे संस्कारों का भाण्डागार है। यदि किसी प्रकार इस परत को उधेड़ा या जाग्रत किया जा सके तो न केवल जन्म - जन्मान्तरों के रहस्यों को जाना जा सकता है, वरन् बुरे कुसंस्कारों से पिण्ड छुड़ाया और सुसंस्कारों को उभारा जा सकता है और सुसंस्कारों को उभारा जा सकता है और अतीन्द्रिय क्षमताओं का स्वामी बना जा सकता है।

सुप्रसिद्ध लेखक गोय प्लेफेर ने अपनी कृति ‘दी फलाइंग कार्ड’ में टिना नामक एक लड़की के पुनर्जन्म की घटना का वर्णन किया है। टिना साओपोलो पास के अशराकारा नामक गाँव में जन्मी थी। उसे बचपन से ही अपने पूर्व जन्म की बात याद थी। आजकल यह महिला जनहित के कार्य करने वाली एक कम्पनी में वकील है। बह बताती है कि पिछले जन्म में वह फ्राँस में अंजाला एवं जीन पेरीस नामक माता-पिता के यहाँ जन्मी थी, तब उसका नाम रखा गया था - एलेक्स अमादादो बरलोफ, उसके माता-पिता विची नामक नगर में निवास करते थे। जब वह ढाई वर्ष की थी तक उसके पिता उसे लेहार्व बन्दरगाह पर ले गये थे। जहाँ उसने कई बड़े-बड़े जहाज देखे थे, वहीं पर उसने तेजी से फ्रेंच भाषा सीख ली थी, लेकिन जर्मन भाषा के प्रति उसके मन में नफरत थी और आज भी है। इसका कारण बताते हुए वह कहती है कि दूसरे विश्वयुद्ध के समय एक जर्मन सैनिक द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी थी। इसके प्रमाण में वह अपने शरीर पर बने दो काले धब्बों को दिखाती है, जो जन्मजात हैं। ये धब्बे प्रदर्शित करते हैं मानो उसके हृदय के आर-पार कोई बन्दूक की गोली निकल गयी हो।

पूर्व जन्म का स्मरण किन लोगों को रहता है। इस सम्बन्ध में ‘आत्मा की खोज’ विषय को लेकर विश्वभ्रमण करने और पुनर्जन्म सम्बन्धी ६.. से अधिक घटनाएँ एकत्रित करने वाले अमेरिका केक सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता डॉ. स्टीवेंसन का कहना है कि प्रायः नवोदित कोमल मस्तिष्क पर ही पूर्व जन्म की छाया अधिक स्पष्ट रहती है। यही कारण है कि तीन से पाँच वर्ष की आयु तक बच्चों द्वारा बताये गये पूर्व जन्म के घटनाक्रम अधिक प्रामाणिक सिद्ध होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, वर्तमान जन्म की जानकारियाँ व संस्कार इतने अधिक मन−मस्तिष्क पर लद जाते हैं कि उस दबाव से पिछले जन्म के स्मरण विस्मृति के गर्त में गिरते चले जाते हैं और प्रयत्न करने पर भी हम उन्हें मानस - पटल पर उभार नहीं पाते। इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट समझाते हुए गीता ४/५ में कहा गया है-

बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेतथ परंतप॥

अर्थात् “हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म बीत गये हैं। ईश्वर होकर मैं उन सबको जानता हूँ, परन्तु हे तरंतप! तू उसे नहीं जान सकता।”


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