परोक्ष जगत की एक घटना जिससे एक योगी जन्मा

September 1998

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वाराणसी जाने की तीव्र ललक उसे उद्वेलित किए थी। आध्यात्मिक जिज्ञासाएँ, साधु-सन्तों का संग और ऐसी ही न जाने कितनी कल्पना तरंगों का ज्वार उसके किशोर मन में हलचल मचाए था। उसने सकुचाते हुए अपने पिता बाबू भगवती चरण घोष से वाराणसी जाने की अनुमति माँगी। भगवती बाबू रेलवे में उच्च पदाधिकारी थे। इस कारण उनके पारिवारिक जनों के लिए प्रथम श्रेणी के पास पर यात्रा करना अति सुलभ था। शायद यही कारण था कि घोष महाशय अपने बच्चों के परिभ्रमण में प्रायः बाधा नहीं डालते थे।

आज भी अनुरोध स्वीकृत हो गया। उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर बनारस तक आने-जाने का एक रेलवे पास, कुछ रुपये के नोट और दो पत्र देते हुए कहा- मुझे वाराणसी के अपने एक मित्र केदारनाथ बाबू को एक कार्य के विषय में प्रस्ताव भेजना है। दुर्भाग्यवश मैं उनका पता भूल गया हूँ। परन्तु मुझे विश्वास है कि हम दोनों के मित्र स्वामी प्रणवानन्द की सहायता से तुम यह पत्र उन तक पहुँचा सकोगे। स्वामीजी मेरे गुरुभाई हैं और उन्होंने एक अति उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त कर जी है। उनके सत्संग से तुम्हारी जिज्ञासाओं का भी समुचित समाधान हो जाएगा। यह दूसरी चिट्ठी तुम्हारे लिए परिचय पत्र का काम करेगी।

अपने पिताजी की अनुमति के साथ ही किशोरवय के मुकुन्द की प्रसन्नता का पारावार न रहा। वह उत्साह के साथ अपनी यात्रा के लिए निकल पड़ा। बनारस पहुँचते ही उसके कदम स्वामी प्रणवानन्द के घर की ओर बढ़ चले। सामने का द्वार खुला हुआ था। वह तो तल्ले पर स्थित एक लम्बे हॉल सदृश कमरे में जा पहुँचा। कुछ स्थूलकाय कोपीन धारण किए हुए स्वामीजी एक ऊँची चौकी पर पद्मासन पर बैठे हुए थे। उनका सिर एवं झुर्रियों रहित चेहरा मुंडाया हुआ चिकना था और होठों पर मोहक मुसकान खेल रही थी। मुकुन्द के अनधिकार प्रवेश का संकोच दूर करने के लिए एक चिर-परिचित मित्र की भाँति उसका सत्कार करते हुए वे बोल उठे, कहो बाबा, सब आनन्द तो है। स्वागत के उनके ये शब्द बाल-सुलभ हार्दिक स्नेह से निःसृत थे। मुकुन्द ने झुककर उनका चरणस्पर्श किया।

क्या आप ही स्वामी प्रणवानन्द जी हैं? उन्होंने सिर हिलाकर ‘हाँ’ कहा। और जब तक मुकुन्द अपनी जेब से अपने पिताजी की चिट्ठी निकाले, इसके पहले ही उन्होंने प्रतिप्रश्न किया, क्या तुम भगवती बाबू के पुत्र हो? आश्चर्यचकित होते हुए मुकुन्द ने उनको अपना परिचयपत्र दिया, हालाँकि अब उसकी आवश्यकता नहीं रह गयी थी।

स्वामीजी ने एक बार फिर अपनी अतीन्द्रिय दृष्टिशक्ति से मुकुन्द को आश्चर्यचकित करते हुए कहा- मैं तुम्हारे लिए केदारनाथ बाबू को अवश्य ही ढूँढ़ निकालूँगा। तत्पश्चात उन्होंने पत्र पर एक नजर डाली और मुकुन्द के पिताजी के प्रति कई प्रेम भरे उद्गार व्यक्त करते हुए वे बोल उठे- देखो मुझे दो पेन्शन मिलती है। एक तो तुम्हारी पिताजी की सिफारिश से मिलती है, जिनके अधीन मैं कभी रेलवे ऑफिस में काम करता था। दूसरी पेन्शन परमपिता परमेश्वर के अनुग्रह से मिलती है, जिसके लिए शुद्ध अन्तःकरण से मैंने जीवन में सांसारिक कर्तव्यों को समाप्त कर दिया है।

उनकी यह टिप्पणी मुकुन्द के लिए अत्यन्त दुर्बोध थी। उसने थोड़ी हैरानी व्यक्त करते हुए पूछा - स्वामीजी, आपको परमपिता से कौन-सी पेन्शन मिलती है? क्या वे आपकी गोद में धन गिराते हैं?

वे हँस पड़े, पेन्शन से मेरा अभिप्राय है - अगाध शान्ति, मेरे अनेक वर्षों की गम्भीर ध्यान-धारणा का पुरस्कार, मुझे अब धन की कोई लालसा नहीं। मेरी थोड़ी-सी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति समुचित रूप से हो जाती है। इस दूसरी पेन्शन का महत्व तुम बाद में समझ जाओगे।

हठात् वार्तालाप बन्द कर स्वामी जी गम्भीर और निश्चल हो गए। किसी रहस्यमय भाव ने उन्हें आवृत कर लिया। प्रारम्भ में तो उनकी आँखें अत्यन्त चमक उठी। जैसे वे किसी आकर्षक वस्तु को देख रह हों। परन्तु बाद में वे मन्द हो गयीं। मुकुन्द उनके इस अचानक मौन से कुछ व्याकुल-सा हो उठा। उन्होंने अभी तक उसे यह नहीं बताया था कि आखिर वह अपने पिताजी के मित्र से कैसे मिल सकेगा। तनिक बेचैन होकर उनसे शून्य कमरे में चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। परन्तु वहाँ तो उन दोनों के अतिरिक्त और कोई न था। उसकी निरुद्देश्य दृष्टि चौकी के नीचे रखी स्वामीजी की लकड़ी की खड़ाऊँ पर पड़ी।

तभी स्वामीजी एक मधुर-मन्द स्मिथ के साथ कहने लगे-छोटे महाशय, चिन्ता मत करो। जिन केदारबाबू से तुम्हें मिलना है, वे आधे घण्टे में यहाँ तुम्हारे पास पहुँच जाएँगे। लगता है योगिवर उसके मन का अध्ययन कर रहे थे। यह असाधारण कार्य उनके लिए कुछ कठिन न था।

उन्होंने पुनः गहन मौन धारण कर लिया। जब अपनी कलाई घड़ी से मुकुन्द को पता चला कि तीस मिनट बीत चुके हैं। तब स्वामीजी स्वयं जाग गए।

उन्होंने कहा - ऐसा लगता है कि केदारबाबू दरवाजे के निकट पहुँच गए हैं। तभी मुकुन्द ने सीढ़ी के ऊपर किसी के आने की आहट सुनी। अचानक मुकुन्द के मन में अविश्वास का एक अद्भुत भाव उदित हो उठा। वह विस्मित-सा सोचने लगा कि कोई सन्देश भेजे बिना ही मेरे पिताजी के मित्र यहाँ बिना किसी दूत की सहायता के बुला लेना कैसे सम्भव हुआ? मेरे यहाँ आने के बाद तो स्वामीजी ने मेरे अतिरिक्त अन्य किसी से बात तक नहीं की थी।

अपनी इन बातों की उधेड़ - बुन में वह अनौपचारिक ढंग से कमरे से निकलकर सीढ़ियाँ उतरा। आधे रास्ते में ही एक क्षीणकाय, गौरवर्ण और माध्यम कद के व्यक्ति से उसकी भेंट हुई। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आगंतुक सज्जन बहुत शीघ्रता में थे।

उत्कण्ठा भरे स्वर में उसने पूछा- क्या आप ही केदारबाबू हैं?

हाँ, भगवती बाबू के पुत्र तुम ही हो ना, जो मुझसे मिलने के लिए यहाँ प्रतीक्षा कर रहे रहो? वे मित्रतापूर्ण ढंग से मुस्कुराए।

उसने निवेदन किया- जी हाँ, परन्तु महाशय मुझे एक बात तो बताइए, आप यहाँ आए कैसे? उनकी अबोध्य उपस्थिति से उसे विस्मय हो रहा था।

वह कहने लगे- आज सब कुछ अद्भुत ही दिखाई दे रहा है। लगभग एक घण्टा पहले में गंगास्नान कर ही चुका था कि स्वामी प्रणवानन्द मेरे पास पहुँचे। मैं नहीं बता सकता कि उस समय मेरे गंगातट पर होने का पता उन्हें कैसे चला? प्रणवानन्द जी ने बताया कि भगवती का लड़का मेरे कमरे में आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। कृपया आप मेरे साथ चलेंगे? मैंने खुशी से स्वीकृति दे दी। हम लोग हाथ में हाथ डालकर चलने लगे, किंतु खड़ाऊँ पहने होने पर भी स्वामीजी आश्चर्यजनक ढंग से मुझे पीछे छोड़कर आगे निकल गए, हालाँकि मैं मजबूत जूते पहने हुए था।

प्रणवानन्द जी ने अकस्मात् रुककर मुझसे पूछा - मेेेरे घर पहुँचने में आपको कितना समय लगेगा?

मैंने उन्हें बताया - लगभग आधे घण्टे में मैं वहाँ पहुँचा जाऊँगा।

एक रहस्यमय दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए स्वामीजी ने मुझसे कहा - इस क्षण मुझे कुछ और काम है। मैं आपको पीछे छोड़ जा रहा हूँ। आप मेरे घर पहुँचिए, जहाँ भगवती बाबू का पुत्र और मैं दोनों ही आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।

मैं उनसे कुछ कह सकूँ, इसके पहले ही तेजी से मेरे पास से निकल गए और भीड़ में अदृश्य हो गए। जितनी तेजी से बन पड़ा, उतनी तेजी से चलकर मैं यहाँ पहुँचा हूँ।

केदारबाबू के इस कथन से वह और भी हतबुद्धि हो गया। उसने उनसे पूछा कि वे स्वामीजी को कितने समय से जानते हैं।

उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष कई बार भेंट हुई थी, पर इधर हाल में कभी भेंट नहीं हुई। आज स्नानघाट पर पुनः उन्हें देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।

मुकुन्द ने उनसे कहा, मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ। क्या मेरा सिर फिर गया है? आपने उनको दिव्यदर्शन में देखा था या प्रत्यक्ष देखा था? क्या आपने सचमुच ही उनके हाथों का स्पर्श किया था और उनकी पगध्वनि सुनी थी। इस बार केदारबाबू जरा क्रोधित से होकर बोले - मैं नहीं जानता, तुम क्या कहना चाहते हो। मैं तुमसे झूठ नहीं बोल रहा हूँ। क्या यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आती कि केवल स्वामीजी के द्वारा ही मुझे यह पता लग सकता था कि तुम यहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो।

लगभग एक घण्टा पहले जब मैं यहाँ पहुँचा तब से अब तक एक पल के लिए भी स्वामी प्रणवानन्द जी न कहीं गए और न मेरी आँखों से ओझल हुए। मुकुन्द ने केदारबाबू को सारी कथा बता दी।

उनकी आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गयीं। उनके मुख से ये शब्द फूट पड़े - क्या हम लोग इस भौतिक युग में निवास कर रहे हैं या स्वप्न देख रहे हैं? मैंने तो अपने जीवन में ऐसी अलौकिक घटना देख पाने की कभी आशा तक नहीं की थी। मैं तो यही समझता था कि स्वामीजी एकदम सामान्य व्यक्ति हैं, परन्तु अब देख रहा हूँ कि वे एक अन्य शरीर भी धारण कर सकते हैं और उसके द्वार काम भी कर सकते हैं। इसी बातचीत के साथ उन दोनों के एक साथ ही स्वामीजी के कमरे में प्रवेश किया। केदारबाबू ने चौकी के नीचे पड़ी खड़ाऊँ की ओर इंगित किया - देखा, घाट पर स्वामीजी यही खड़ाऊँ पहने हुए थे। उन्होंने फुसफुसाकर कहा - जैसा कि अभी मैं देख रहा हूँ, ये वही कोपीन भी धारण किए हुए थे।

जैसे ही केदारबाबू ने स्वामीजी के पास जाकर उनके चरणों में शीश नवाया, स्वामीजी ने उनकी ओर देखते हुए विनोदपूर्ण हास्य के साथ कहा-इतने स्तम्भित क्यों हो? प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत के बीच सूक्ष्म एकता का सम्बन्ध सच्चे योगियों से छिपा नहीं। मैं यहीं से क्षमतामात्र में सुदूर किसी स्थान में जाकर लोगों से मिलकर उनसे वार्तालाप करके वापस लौट सकता हूँ। इसमें स्थूल परिस्थितियाँ तनिक भी बाधक नहीं हो सकतीं।

स्वामीजी के इस कथन पर मुकुन्द का जिज्ञासु मन और अधिक तीव्रता से उत्सुक हो उठा। स्वामीजी ने इसी की ओर आत्मजाग्रति दृष्टि से देखते हुए कहा - गुरुकृपा से सब सम्भव है। गुरु नर-देह में साक्षात ईश्वर होते हैं। मैंने अध्यात्म विद्या के रहस्यों का ज्ञान अपने गुरुदेव श्री लाहिड़ी महाशय की कृपा से ही प्राप्त किया है।

स्वामी प्रणवानन्द आगे बोले - तुमने जो अनुभव किया, वह अध्यात्म विद्या की एक छोटी-सी झलक भर थी। गुरुकृपा से और भी बहुत कुछ मुझे सुलभ है। स्वामीजी की इन बातों से किशोरवय के मुकुन्द के मन में अध्यात्म का अंकुरित बीज पल्लवित हो उठा। यही बालक मुकुन्द भविष्य में स्वामी योगानन्द के नाम से विश्वविख्यात हुए। उन्होंने ‘योगा द् सत्संग सोसाइटी' की स्थापना की, जिसके द्वारा आज अनेकानेक आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का समाधान हो रहा है, जिनकी लिखी ‘आटोबायोग्राफी ऑफ योगी’ चिर प्रचलित हैं।


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