सरस्वती साधना है - सार्थक संभाषण

September 1998

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मनोभाव सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करते हैं। क्रोध, आवेश भय, शोक, वियोग जैसे अवसरों पर नेत्र, होंठ, कपोल बिना बोले ही मनः स्थिति प्रकट कर देते हैं। भीतर जो कुछ उमड़ - घुमड़ रहा है, उसकी छाया चेहरे पर झाँकती रहती है। क्रोध में आँखें लाल हो जाती है, शरीर काँपता है। इससे स्पष्ट है। आन्तरिक भावनाओं का शरीर काँपता है। इससे स्पष्ट है - आन्तरिक भावनाओं का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। भूख ओर नींद गायब हो जाती हैं। आवेशग्रस्त व्यक्ति का दिल जोरों से धड़कने लगता है, दम फूलता है, सिर चकराता है, गला सूखता है और प्यास बार-बार लगती हैं इससे स्पष्ट है कि मन की स्थिति का प्रभाव सारी देह पर पड़ता है, इस प्रभाव को यदि सूक्ष्म रूप में देखना हो तो उसे वाणी के साथ जुड़े हुए रहस्यमय कम्पनों के साथ आसानी से देखा - समझा जा सकता है।

यों ठग और धूर्त व्यक्ति मीठी बातें बना और प्रलोभन भरे आश्वासन देकर भोले लोगों को ठगने में भी सफल हो जाते हैं, पर वह प्रभाव केवल उन्हीं उथली मनःस्थिति के लोगों पर पड़ता है। जो केवल शब्दों के अर्थ भर को समझते हैं और प्रलोभन में बिना आगा-पीछा सोचे, यथार्थता का विश्लेषण किये बिना ही फिसल पड़ते हैं। ठगी के शिकार आमतौर से ऐसी बालबुद्धि के लोग ही होते हैं। जहाँ थोड़ी भी सतर्कता बरती जाए और यथार्थता ढूँढ़ने के लिए थोड़ा-सा भी तर्क वितर्क किया जाए तो वस्तुस्थिति सामने आ जाती है। और ठगी से बचा जा सकता है। यह व्यावहारिक ज्ञान की बात हुई आगे। चलकर यदि सूक्ष्मबुद्धि और प्रखर आत्मचेतना की कसौटी पर कसने की क्षमता विकसित कर ली जाए, तो किसी की भी वाणी सुनकर उसके साथ जुड़े हुए प्रभाव एवं व्यक्तित्व को आसानी से समझा जा सकता है।

वाणी में जानकारी का ही आदान-प्रदान नहीं होता। व्यक्तित्वों की विशेषताओं का भी परस्पर परिवर्तन होता है। सद्भावना सम्पन्न व्यक्ति भले ही किसी को उपदेश न दें, उनके साधारण शब्दोच्चार में भी जो मिठास, सौजन्य और सदुद्देश्य घुला रहता है, वह ऐसा हृदयस्पर्शी होता है कि सुनने वाले उससे बहुत कुछ प्राप्त करते जाते है। और वह ऐसा होता है, जिससे उद्वेगों के समाधान में भारी योगदान मिल सके। तो उत्कृष्ट स्तर के व्यक्तित्व बिना वाणी के भी अपने समीपवर्ती क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। उनके नेत्रों को ज्योति एवं चेहरे पर बनने वाली भाव-भंगिमा एवं समस्त शरीर से निकलने वाली तेजोवलय ऊष्मा सहज ही अपना काम करती रहती है और सम्बद्ध वातावरण को प्रभावित करती है। इस प्रभावशीलता का अधिक प्रसारण वाणी द्वारा होता है। सद्भाव - सम्पन्न वाणी जिनके लिए बोली गई हैं, उन्हीं पर नहीं वरन् विराट ब्रह्माण्ड में सुविस्तृत होकर अपना प्रभाव जड़-चेतन पर छोड़ती है। इस दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि कोई प्रत्यक्षतः कुछ अधिक काम रखते हुए न दिखाई पड़ने वाले व्यक्ति भी इस संसार में व्यापक क्षेत्र तक अपना प्रभाव छोड़ते हैं और यदि वे सद्भावना सम्पन्न हैं, तो वाणी मात्र से संसार की महती सेवा-सहायता करते हैं। इसके विपरीत दुर्भावनाग्रस्त मन अपनी वाणी रूपी तरकस से प्रहार करते हुए लोकमानस को क्षत-विक्षत करता है और संसार को भारी हानि पहुँचाता है। पानी में फेंका हुआ एक ढेला हजारों लहरें उत्पन्न करता है, इसी प्रकार शब्दोच्चारण के साथ अन्तरिक्ष में प्रवाहित होता हुआ व्यक्तित्व अपनी सुगन्ध दुर्गन्ध से व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करता है।

कटु - कर्कश शब्दों के साथ जुड़ी हुई दुर्भावना सबसे पहली हानि वक्ता की ही करती है। उग्र मनःस्थिति का का सारा ढाँचा लड़खड़ाकर रख देती है। वाणी के साथ जब वह भूकम्प विस्फोट की तरह बाहर निकलती है, तो उससे बाहरी क्षेत्र ही धूल-धूम युक्त नहीं होता, वरन् वह विस्फोट स्थल भी क्षत-विक्षत होता है। क्रोधी ईर्ष्यालु, निन्दक, छिद्रान्वेषों, निराश पलायनवादी प्रकृति के मनुष्य दूसरों को भी चोट पहुँचाते हैं और खिन्न-उद्विग्न करते हैं, पर सबसे अधिक हानि वे अपनी ही करते हैं। दुर्भावग्रस्त मनःस्थिति वाले व्यक्ति को देर-सवेर में शारीरिक और मानसिक रोगों का शिकार बनना ही पड़ता है। कहना न होगा कि व्यक्ति अपने और अपने समीपवर्ती लोगों के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता है।

पिछड़े वर्गों की उनकी अपनी त्रुटियों में गन्दगी और व्यसन ग्रस्तता को मुख्य माना जाता है, पर यदि गहराई से विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि गाली-गलौज कलह-तिरस्कार असभ्य और अस्त-व्यस्त शब्दोच्चारण भी उन्हें गई-गुजरी स्थिति में डाले रहने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। बालकों के पर यह पारिवारिक वार्तालाप असाधारण प्रभाव डालता है और उन परिवारों की पीढ़ियाँ उसी स्तर की ढलती चली जाती हैं। दूरदर्शी लोगों व्यक्ति के विकास की विधि बताते हुए प्रथम चरण वाणी के परिष्कार को बताते हैं। सभ्यता और संस्कृति का प्रथम सोपान शिष्ट, सौम्य, संतुलित ओर सद्भाव संपन्न वाणी। के उच्चारण से ही आरम्भ होता है। असम्बद्ध और असंतुलित वचन बोलते वाले कभी सम्मानास्पद नहीं बन सकते, उन्हें ओछा, पिछड़ा और अनुत्तरदायी ही माना जाता रहेगा।

मनःस्थिति का चुम्बकत्व वाणी द्वारा अपना प्रभाव बाहरी क्षेत्र पर छोड़ता है और अपने स्तर के व्यक्ति तथा वातावरण को समेट कर सहज ही इर्द-गिर्द जमा करता रहता है। कुभाषी की आन्तरिक दक्षता कभी भी उसे सरस और उल्लास भरे जीवन आ आनन्द न लेने देगी। दुर्भावनाओं की प्रतिक्रिया विरोध, विग्रह, निन्दा, असहयोग, अविश्वास आदि के रूप में ही सामने आ सकती है और उनके कारण प्रगति - पथ में पग-पग पर अवरोध उत्पन्न हो सकते हैं।

उपनिषद् के ऋषि ने परब्रह्म के सम्मुख अपनी अतिमहत्त्वपूर्ण आकांक्षा व्यक्त करते हुए कहा है- ‘जिह्वा में मधुरता' मेरी वाणी मिठास से भरी हुई हो। सचमुच यदि कोई मधुर वचन बोलने का अभ्यास कर ले तो प्रगति पथ के अनेक अवरोधों का सहज ही समाधान हो सकता है। प्रशंसापरक और उत्साहवर्धक शब्द बोलकर यदि किसी में नवजीवन संचार किया जा सके, तो निस्संदेह यह सहायता बड़े-से-बड़े धन-सहयोग की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान सिद्ध हो सकती है। खोये हुए आत्मविश्वास को यदि जगाया, जमाया और बढ़ाया जा सके तो इससे बढ़कर और कोई उपलब्धि नहीं सकती। सद्भाव सम्पन्न व्यक्ति अपने स्तर के अनुरूप ऐसे ही परामर्श देते हैं, जिन्हें यदि आँशिक रूप से भी समझा अपनाया जा सके, तो उत्कर्ष की दिशा में तेजी से बढ़ा जा सकता है।

ऋग्वेद में एक आर्षवचन आता है, जिसमें कहा गया है कि जहाँ वाणी छानकर बोली जाती हैं, वहाँ विभूतियाँ दौड़ती हुई चली आती हैं। जहाँ शहद रहता हैं, वहाँ मक्खियाँ सहज की खिंचती चली आती हैं। वाणी का यह प्रभाव होना चाहिए कि उच्चारणकर्ता के समीप सफलताओं का पर्वत इकट्ठा होता चला जाए। छानकर वाणी बोलने का अर्थ है - सोच समझ कर प्रभाव-परिणाम पर विचार करते हुए विवेक पूर्वक सदुद्देश्य युक्त बोलना। वस्तुतः ऐसा बोलना ही सार्थक है। कटु और विशेष युक्त भाषण से तो मौन रहा अथवा मूक होना अधिक उपयुक्त है।

भगवान ने कान दो दिये हैं। और जीभ एक। इसका अर्थ है - हम सुने अधिक बोले कम। भावार्थ यह है कि चिन्तन, मनन, स्वाध्याय और सत्संग के आधार पर सद्भावनाओं का समुचित संग्रह अपने भीतर जमा करें और उसमें से साररूप में सर्वोत्कृष्ट प्रतीत हो उसी को जिह्वा पर आने दें। जीभ में अमृत भी है और विष भी। विषपान करने वाले मुख के रास्ते ही उसे भीतर ले जाते हैं। दुर्भावग्रस्त, संस्कार रहित वाणी को भी विष ही कहा गया है। वह प्रथम अनर्थ वक्ता का ही करती है। उसकी गरिमा का हनन करती है और दूसरों की दृष्टि से उसका सम्मान गिरा देती है। किंतु यदि अमृत-वचन बोले जाएँ तो उसमें वक्ता को अपने आप में उल्लास का उभार दीखता है और समीपवर्ती लोग उसका रसास्वादन करके तृप्त होते हैं। विवेक, तथ्य और दूरदृष्टि एवं सदुद्देश्य के सम्मिश्रण के साथ किये गये शब्दों को सरस्वती कहा गया है। जिह्वा पर सरस्वती के आवर्तन का अलंकार यह संकेत करता हैं कि सज्जनता का बहुत कुछ परिचय उनकी मधुमयी वाणी से प्राप्त होता है।

कामकाजी बातों के अतिरिक्त जहाँ भावोत्तेजक एवं विचार-परिष्कार की दृष्टि से जो भी वार्तालाप किया जाता है, वह वस्तुतः जप का ही एक प्रकार है। जप का उद्देश्य है - अमुक शब्दावली को बारबार कहते रहने के फलस्वरूप मन्त्र में सन्निहित विचारधारा को हृदयंगम करना - परिपक्व बनाना। धर्मग्रन्थों का पाठ, भक्तिगीतों का गायन इसी दृष्टि से किया जाता है। वह प्रयोजन समय-समय पर विचार-विनिमय अथवा परामर्शपरक आदान-प्रदान से भी सम्भव हो सकता है। अपने और दूसरों की सद्भावनाओं को उभारने वाला, सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने वाला शब्दोच्चार करने वाला व्यक्ति मौन-साधन एवं जप - उपासना का फल प्राप्त करता है। ऐसे अभिवचन उच्चारणकर्ता का भी कल्याण करते हैं, लोकमंगल का प्रयोजन भी उनसे बड़ी मात्रा में पूरा होता है।

सन्त विनोबा ने पंढ़रपुर सर्वोदय सम्मेलन के एक प्रवचन में वाणी की उपासना पर प्रकाश डालते हुए कहा था ................ मेरा बोलना जप के लिए है, प्रचार के लिए नहीं। जिन विचारों को बोलता हूँ, वे दृढ़ होते चले जाते हैं। .............जो किया है आप लोगों ने किया हैं, मैंने तो जप किया है। भूदान का जय किया तो भूदान मिला। सम्पत्ति दान का जप किया तो सम्पत्ति दान मिला। न तो मैं यज्ञ करता हूँ, न दान करता हूँ, न तप करता हूँ, मैं तो केवल जप ही करता हूँ और जप में मेरे सारे काम बन जाते हैं।

यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्धर्षणच्देनततापताड़नैः॥

तथा चतुर्भिःपुरुषःपरीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा॥ चाणक्यनीति ५/२

घिसना, काटना, तपाना, पीटना, इन चार विधियों से जैसे सुवर्ण की परीक्षा होती है, उसी प्रकार दान, शील गुण और कर्म (आचरण) - इन चारों से पुरुष की परीक्षा होती है।

शतपथ ब्राह्मण की उक्ति है कि जनसमाज का मैल धोने वाला शब्द-प्रवाह की सारस्वत मंत्र है। सरस्वती के अनुग्रह से अनेकों सिद्धियाँ मिलती हैं, अष्टसिद्धि और नवऋद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के उपासनात्मक कर्म-काण्डों का अपना महत्व हैं, पर सर्वजनीन सारस्वत मन्त्र वह शब्दोच्चार है, जिसे सत्प्रयोजन के लिए सद्भावना विवेकशीलता और मधुरता सम्मिश्रित करके बोला गया हो। इस स्तर का भाषण चाहे वह स्वल्प शब्दों का ही क्यों न हो, सबके कल्याण की परम श्रेयस्कर प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है।


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