सच्ची ईश्वर - भक्ति कैसे?

September 1998

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बंगाल के वीरभूमि जिले के अंतर्गत केन्दुबिल्व ग्राम में हरिपद नामक एक समाज सेवी हुआ है। जीविकोपार्जन के उपरान्त जितना समय बच जाता, उसको वह गरीबों और अभावग्रस्तों की सेवा-सहायता में लगाता। लोग अवसर कहते कि समाज-सेवा हरिपद के संस्कार में इस प्रकार घुली-मिली है, मानों वह इसी के लिए पैदा हुआ हो।

वह जैसा सरल था, वैसा ही ईमानदार भी। वह एकनिष्ठ भाव से मनोयोगपूर्वक अपने कार्य में लगा रहता। मालिक से यह बात छुपी न रही। उसके इसी गुण के कारण उदार व्यापारी उसे समय से दो घंटे पूर्व ही छोड़ देता। इसी समय का सदुपयोग वह सेवाकार्य में करता था।

वह जिस रास्ते से होकर आता-जाता उसमें प्रायः एक वृद्धा उसे साग बेचती दिखलाई पड़ जाती। एक दिन वह उधर से ही गुजर रहा था कि एक परिचित वहाँ खड़ा दिखाई पड़ा। वह साग खरीद रहा था। बातचीत के सिलसिले में हरिपद भी वहाँ रुक गया। बुढ़िया के पास एक ही बाट रखा था, वह थी पत्थर की। उसी से वह किसी को सेर भर तौल देती, किसी को पाँच सेर, तो किसी को आधा सेर। हरिपद को यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ। उसने इस संबंध में पूछताछ की, तो ज्ञात हुआ कि उसकी तौल हमेशा खरी उतरती है, आज तक कभी कोई शिकायत नहीं आयी। वह समझ गया कि यह मामूली पत्थर नहीं हो सकता। इसमें ईश्वर की साक्षात उपस्थिति निश्चित है। उसने बाँट को उठाया, सिर से लगाया और श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर घर की ओर चल पड़ा।

वृद्धा हरिपद से परिचित थी और उसकी भक्तिभावना को भी जानती थी। बहुत दिनों से उसके मन में वृन्दावन जाने की ललक थी, पर पैसे का अभाव सदा उसमें अड़चन पैदा करता। उसके सारे स्वजन-संबंधी वहाँ की यात्रा कर चुके थे। एक वही थी, जो अब तक कृष्ण की उस लीलास्थली के दर्शन नहीं कर सकी थी। इससे उसका मन बार-बार कचोटता। वह सोचती, वह कितनी अभागिन है कि वहाँ जाने का सुयोग नहीं बन पा रहा है?

तभी उसे हरिपद की याद आयी। वह उसके बाँट के मूल्य और महत्व को समझता है - इसे वह भली-भाँति जानती थी। अस्तु, एक दिन प्रातः वह उसके घर पहुँची और अपने अद्भुत बाँट के बदले तीन सौ रुपये देने का आग्रह करने लगी। पूछने पर कहा कि अब वह जीवन के शेष दिन वृन्दावन में रहकर बिताना चाहती है।

हरिपद असमंजस में पड़ गया। उसकी स्थिति ‘रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने, जैसी थी। आटा-चावल खरीदने के पश्चात् जो कुछ शेष बचता, उसे वह दरिद्रनारायण की सेवा में लगा देता। संचय की प्रवृत्ति थी नहीं, सो आज वृद्धा के उस प्रस्ताव ने उसे विचलित कर दिया। वह अभी सोच ही रहा था कि कैसे मदद की जाए, तभी पत्नी ने अपने स्वर्णाभूषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि इन्हें बेचकर आवश्यक धन प्राप्त करें।

बुढ़िया अपने बाँट को वहीं छोड़कर चली गई। हरिपद ने उसे अच्छी तरह धोया, उसकी पूजा - आरती की और काम पर चला गया। लौटते हुए वह फिर निर्धनों की उस बस्ती में गया और जितना कुछ बन सकता था, वह सब किया।

रात हुई। सब भाजन कर सो गये। हरिपद ने एक अद्भुत स्वप्न देखा। सामने एक दिव्य पुरुष खड़े हैं। उनका सम्पूर्ण शरीर तेजोद्दीप्त है और चेहरे पर मन्द-मन्द मुसकान। वे कह रहे थे - हरिपद तुम्हारी समाज-सेवा से हम बहुत खुश है। वास्तव में यह समाज और संसार हमारा ही विराट शरीर है। इसके लोग हमारे अंग-अवयव हैं। जो इनकी सेवा-सहायता करते हैं, वे प्रकारान्तर से हमारी ही सेवा करते हैं। वे प्रसन्न हो गये, तो समझ लेना हमारा आशीर्वाद-वरदान मिल गया और काया की छाया की तरह संग-संरक्षण भी। जो इसमें कृपणता बरतते और केवल पूजा - उपासना द्वारा ही हमारी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं, वे यथार्थ में समयक्षेप करते और खाली हाथ रहते हैं। भोजन-भोजन रटते रहने से पेट थोड़े ही भर जाता है। उसके साथ प्रयास और पुरुषार्थ भी जुड़े होने चाहिए। वास्तविक परिणाम तभी सामने आता है। जो सचमुच हमारी अनुकम्पा के आकांक्षी हैं, उन्हें इस विश्व वाटिका को सुन्दर, समुन्नत और सुव्यवस्थित बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि यह भगवान का कार्य है, इसे वे ही सम्पन्न करें। यह भी सच है कि हमारे दृष्टिनिक्षेप मात्र से पलभर में कुछ-का-कुछ हो सकता है। पर इस परिवर्तन का श्रेय हम अपने पुत्रों को देना चाहते हैं, स्वयं नेपथ्य में रहकर आगे उन्हें लाना चाहते हैं। प्रत्यक्ष भूमिका उनकी होगी, परोक्ष शक्ति हमारी, दृश्य प्रयास वे करेंगे, अदृश्य मार्गदर्शन हम देंगे श्रेय - सम्मान पाकर बड़भागी कहला सकें।

तुम लोकमंगल के काय में जुटे रहो। तुम्हारे लिए अदृश्य का यही निर्धारण है। वह ‘पत्थर’ साग वाली वृद्धा को वापस लौटा दो। यही बताने के लिए विशेष रूप से हम उपस्थित हुए हैं। इसे विस्मृत न करना।

आँखें खुली, तो प्रातः हो चुका था। हरिपद उठ बैठ और स्वप्न पर विचार करने लगा। उसके मानस-पटल पर वह दृश्य अभी भी वैसा ही जीवन्त बना हुआ था। कानों में एक-एक शब्द अब भी गूँज रहे थे। वह किंकर्तव्यविमूढ़ था। तभी पत्नी उधर आई। पति को गहन विचार - मंथन में डूबा देखकर कारण जानना चाहा। उसने सपने का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया। उसे सुनकर पत्नी ने सलाह दी कि भगवान का जैसा आदेश है, वही करना चाहिए, इसी में हम सब का कल्याण है।

वास्तव में हरिपद को उस पत्थर से इतना गहन लगाव हो गया था कि वह उसे लौटाना नहीं चाहता था। इसी कारण असमंजस में था। पत्नी ने उसे बाहर निकाला। अब उसने निश्चय कर लिया कि बुढ़िया को उसे वापस कर देगा।

प्रातः स्नान एवं उपासनादि से निवृत्त होकर हरिपद वह बाँट लेकर वृद्धा के घर गया। वहाँ ज्ञात हुआ कि वह एक दिन पूर्व ही वृन्दावन के लिए प्रस्थान कर चुकी हैं। हार कर उसने उसे वहाँ से मीलों दूर बह रही गंगा में प्रवाहित कर दिया। विसर्जित करते समय भी उसका मन कचोट रहा था।

जब घर लौटा, तो उसकी बड़ी विचित्र दशा थी। वह उन्मना-सा आत्मलीन प्रतीत हो रहा था। पत्नी समझी कि शायद थकान के कारण तबियत खराब हो गई है, अतः’ कार्य पर जाने से रोक दिया।

दूसरे दिन कुछ स्वस्थ मालूम पड़ रहा था। वह कार्य पर गया और मालिक से कहकर नौकरी छोड़ दी। सहकर्मियों और मालिक ने बहुत मना किया पर उसने एक ही उत्तर दिया कि ईश्वर का ऐसा ही आदेश है। अब लोकसेवा ही हमारा एकमात्र लक्ष्य होगा। इतना कहकर वह वापस लौट गया। मालिक अत्यन्त सहृदय था। उसने सोचा अब इसकी गृहस्थी की गाड़ी किस प्रकार खिंचेगी? जमीन-जायदाद है नहीं। सो उसने सौ रुपया मासिक वेतन तय कर दिया। प्रतिमाह यह उसके घर पहुँचा दिया जाता। उक्त पैसे को हरिपद अपने परिवार में उतना ही खर्च करता, जितने से दो जून का रूखा-सूखा भोजन जुट जाए। शेष पैसों में से कुछ तो वह गरीबों को दैनिक आवश्यकताओं के निमित्त दे देता और बाकी जो बचता, उस यत्नपूर्वक जमा करता जाता। कुछ महीनों के उपरान्त जब काफी पैसे इकट्ठे हो गये, तो उसने उससे तीन चर्खे खरीदे और गाँव में जो सबसे दरिद्र थे, उन्हें दे दिये। रुई की भी व्यवस्था कर दी। अब दिनभर वे उससे सूत कातते और शाम को जुलाहे के यहाँ बेच आते। इससे उनकी उदरपूर्ति किसी प्रकार होने लगीं।

इसी प्रकार पैसे एकत्रित कर-करके हरिपद ने आस-पास के पूरे क्षेत्र में लोगों को चर्खे खरीद-खरीद कर दिये। इससे कंगालों को कुछ राहत मिली। हरिपद को वे भगवान की तरह मानते थे और हरिपद भी उनसे खूब स्नेह करता।

धीरे-धीरे उसकी आयु ढलने लगी। शरीर काफी दुर्बल हो गया। अब उससे पहले जितनी भागदौड़ करते नहीं बनती। फिर भी सामर्थ्य भर वह करता। कमजोर काया इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी। एक दिन वह बीमार पड़ गया। आस-पास के सारे लोग इकट्ठे हो गये और उसकी सेवा - सुश्रूषा में जुट पड़ें, पर उसका अन्तिम समय उपस्थित हो गया था। इसका शायद उसे पूर्वाभास भी हो चुका था। उसने इसका संकेत देते हुए अपने अभिन्नजनों से कहा कि अब हमारी महायात्रा की वेला आ पहुँची है। कदाचित कल के बाद हम लोग न मिल सकें।

इतना कहकर वह मौन हो गया। आँखें बन्द कर ली। सभी के नेत्र अश्रुपूरित हो चले थे। कई फूट-फूटकर रोने लगें।

शाम हो गई थी, अतः दो लोगों को छोड़ शेष अपने-अपने घरों को चले गये। मई का महीना था। अस्तु, बिस्तर आँगन में लगाया गया। वहीं खाट पर सो रहे। जल्द ही उन्हें नींद आ गई।

वृद्धावस्था के कारण लगभग चार घंटे की निद्रा के बाद हरिपद की नींद टूट गई। आज न जाने क्या उसे फिर उस पाषाण पिण्ड की याद हो आई। भाव-विह्वलता के अतिरेक में आँखों से आँसू बहने लगे। यह खुशी और संतोष के अश्रु थे।

रात्रि का तीसरा प्रहर अपने अन्तिम चरण में था। हरिपद की विह्वलता ज्यों की त्यों बनी हुई थी, नेत्र बरस रहे थे और आँखें बन्द। उसे बाहर कुछ प्रकाश-सा प्रतीत हुआ। नयन खुले, तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। समाने स्वयं योगेश्वर कृष्ण खड़े मुस्करा रहे है। उनके एक हाथ में वही पत्थर था। उसे देते हुए उनने कहा - यह लो तुम्हारी प्रिय वस्तु मैं ले आया हूँ, पर अब अधिक समय तक इसे न रख सकोगे। आज हम दोनों का महामिलन होगा।

इतना कहकर वे अन्तर्धान हो गये। प्रातः छह बजे के करीब हरिपद की साँसें उखड़ने-सी लगीं। उसने आँखें खोली, अपने चारों ओर खड़े लोगों को निहारा और फिर मूँद लीं, तो मुँदी की मुँदी ही रह गईं।

उसकी इहलीला समाप्त हो चुकी थी। आश्चर्य की बात कि जब उसने अपनी अन्तिम साँस ली, तभी खाट पर रखा वह पाषाण पिण्ड दो टुकड़ों में विभक्त हो गया। उससे एक दिव्य-ज्योति निकलकर कमरे में विलीन हो गई। भगवान का कथन सत्य निकला। दो सत्ताएँ परस्पर घुल-मिल गईं। हरिपद का वह भग्न मकान आज भी इसका साक्षी है।

उपासना की सार्थकता सेवा में है। उपासक यदि लोकसेवी न हुआ तो उसकी उपासना चिन्ह - पूजा मात्र बनकर रह जाती है कदाचित ही फलीभूत होती हो। उपासना और सेवा का समन्वित स्वरूप साधना से ही सार्थक है। जो इन्हें ठीक-ठीक अपनाते, वे इसी जन्म में स्वर्ग-मुक्ति का आनन्द-लाभ करते और परमपद पाते हैं।


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