अपनों से अपनी बात - 1 - संधिकाल की अंतिम घड़ी सा पहुँची, साधना के महत्व को समझें

September 1998

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धर्मशीलों की संकल्पशक्ति का एकत्रीकरण एवं उसका सामयिक समस्याओं के समाधान के निमित्त सुनियोजन-यही है वह महत्वपूर्ण आधार, जिसके बलबूते परमपूज्य गुरुदेव ने अपेक्षा की कि युगसंधि महापुरश्चरण की समाप्ति का समय जब आएगा, तो विपन्नताओं से उबरने में मदद मिलेगी। आज की जो भी परिस्थितियाँ हमें दिखाई देती हैं, उनके मूल में परोक्ष जगत में हो रही हलचलों को देखा जाना चाहिए एवं उसी स्तर के प्रयासों में हमें एकजुट हो प्रयास करना चाहिए। दृश्यमान भली-बुरी परिस्थितियों का जब भी हम आकलन करते हैं, हम मात्र वहीं देखते हैं जो हमें सामने घटता दिखाई दे रहा हैं। हमें परोक्ष को प्रत्यक्ष से कम महत्वपूर्ण न मानकर उसे उतना ही महत्व देना चाहिए। युगपरिवर्तन जैसे व्यापक और विशद प्रयोजनों में तो प्रत्यक्ष से अधिक परोक्ष का योगदान माना गया है।

जड़ बनी रहें, किन्तु टहनी कटती रहें तो कुछ काम बनता नहीं। नयी कोपलें पुनः आ जाती हैं क्योंकि जड़ें विद्यमान है। असुरता की, अनास्था की जड़ें मिटाए बिना, अदृश्य का परिशोधन किए बिना नवयुग की आधारशिला रखी नहीं जा सकती। रामायण में हम जब रामचरित्र पढ़ते हैं, तो लगता है लंका का महायुद्ध जिसमें लंकादहन से लेकर में भयंकर रक्तपात हुआ था - अन्ततः श्रीराम को विजय का श्रेय मिला था - सीता वापस लौटी और राज्याभिषेक का उत्सव हुआ - सही सब रामायण में लिख है। इतने भर से ही परिस्थितियाँ जो तत्कालीन समाज की थी, ठीक हो गयी होंगी। किन्तु बात यहीं तक नहीं है। सभी तत्त्वदर्शियों - ऋषियों ने मिलकर तब निष्कर्ष निकाला था कि अदृश्य में संव्याप्त विषाक्तता ने लंका से लेकर चित्रकूट - पंचवटी तक अगणित असुरों को उपजाया व आतंक बढ़ाया था। उसका अदृश्य घटाटोप लंकाविजय के उपरान्त भी वैसा ही बना हुआ था। कुछ ही समय के बाद उसी दुखद घटनाक्रम की पुनरावृत्ति हो - कुछ के मर जाने पर रक्तबीज की तरह नये असुर उत्पन्न होने व उपद्रव खड़े करने की संभावनाएँ व्यक्त की गयी। अतः रामविजय को यहीं तक पर्याप्त न मानकर अदृश्य का परिशोधन भी सोचा गया। दस अश्वमेध यज्ञों की योजना बनी-साधना-पुरुषार्थ बड़े व्यापक स्तर पर सम्पन्न हुआ एवं माध्यम से परोक्ष का अनुकूलन साधा गया। तब जाकर रामराज्य की स्थापना संभव हो सकी। हमें भी आज की परिस्थितियों को इसी परिप्रेक्ष्य में समझकर तदनुसार युगसंधि महापुरश्चरण की भूमिका को - पूर्णाहुति के स्वरूप को आत्मसात् करना होगा।

उसी परम्परा को ऋषि - मुनियों ने स्थायी रूप देते हुए विशेष पर्वों- तीर्थों में धर्मानुष्ठान की तीन-तीन वर्ष के अन्तराल पर चार स्थानों पर महाकुम्भों के आयोजन की धर्मधारणा के विस्तार की व्यवस्था बनाई थी। बड़े और केन्द्रीय वाजपेय स्तर के यज्ञों को ऋषियों ने छोटे क्षेत्रीय और स्थानीय धर्म-समारोहों के रूप में बाँट दिया, ताकि समीपवर्ती धर्मप्रेमी उनके पहुँचकर अपनी आस्थाओं को सशक्त कर सकें। उसी परम्परा का जीर्णोद्धार परमपूज्य गुरुदेव के द्वारा आरम्भ किये गए छोटे-छोटे गायत्री महायज्ञ एवं उसके बाद स्थान-स्थान पर सम्पन्न ज्ञानयज्ञों - युगनिर्माण सम्मेलनों के रूप में किया गया। परमपूज्य गुरुदेव ने धर्मायोजनों को भावनात्मक, आध्यात्मिक, अदृश्य को प्रभावित करने वाले, प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने वाले धर्मानुष्ठान का रूप देकर साधना को सार्वभौम बना दिया। यही प्रज्ञा अभियान, युगनिर्माण योजना की अब तक की सफलताओं की मूल धुरी समझी जानी चाहिए। जनमानस का परिष्कार और अदृश्य जगत के अनुकूलन में जो योगदान दें, वह युगसाधना व धर्मशीलों का संगतिकरण सार्थक हैं - यही इस मिशन में चिन्तन का भावी निर्धारणों का मूल आधार बना। १९९. में परमपूज्य गुरुदेव के सूक्ष्म में विलीन हो विराट रूप लेने के बाद संपन्न २७ अश्वमेध महायज्ञ, प्रथम पूर्णाहुति आँवलखेड़ा एवं अभी-अभी न्यूजर्सी (यू. एस. ए.) में सम्पन्न वाजपेय यज्ञ की सफलता के मूल में उसी शक्ति को देखा जा सकता है, जिनसे लाखों - करोड़ों की मनःशक्ति का एकीकरण कर इस ब्रह्माण्ड में एक विलक्षण प्रयोग का बीजारोपण १९२६ में अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलन के माध्यम से किया था। समूह चेतना का जागरण इसी आधार पर संभव हो पाया है। एवं अब १९९८ का अंतिम उत्तरार्द्ध का भाग आते - आते हम सबकी महाकाल की युग - प्रत्यावर्तन प्रक्रिया का स्वरूप स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है।

१९८९ की वसंत के आरम्भ बारह वर्षीय महापुरश्चरण का यह दसवाँ वर्ष है। मात्र दो वर्ष बाकी हैं। परमपूज्य गुरुदेव एवं शक्तिस्वरूपा माताजी के निर्देशानुसार की वसंत पर्व १९९९ से साधनावर्ष की शुरुआत होगी। यह एक वर्ष तक पूरे भारत व विश्व में सघन स्तर पर चलती रहेगी। वसंत पर्व २.. से महापूर्णाहुति का शुभारम्भ होना है। स्वरूप क्रमशः स्पष्ट होता चला जा रहा है। हमें अपने अंदर के साधक को जगाकर निखारने के लिए मात्र पंद्रह माह का समय मिला है। लक्ष्य समीप आते ही उत्साह चौगुना होने लगता है - गति तेज हो जाती है एवं लगता है कि साथियों की संख्या की क्रमशः बढ़ती जा रही हैं, क्योंकि प्रामाणिकता के साथ सफलता का अर्जन भी यह कार्य करता चलता है। गायत्री परिवार का विराट विस्तार कुछ इसी रूप में इस नाजुक मोड़ पर आकर खड़ा है। अपनी तैयारी हमें प्रस्तुत शारदेय नवरात्र (२१ से २९ सितम्बर) से इसी स्तर की करनी चाहिए कि हम एक श्रेष्ठ साधक बन गुरुसत्ता के इस महाअभियान के विराट महायज्ञ के एक अंग बन सकें।

साधनावर्ष की तैयारी के संबंध में इसीलिए अभी से सभी को कटिबद्ध होने का कहा जा रहा है। साधना का स्तर बढ़ाए बिना - प्रखरता का उपार्जन किए बिना उस महासमर की तैयारी नहीं हो सकती, जिसमें आगामी तीन - चार वर्षों में हम सभी को भागीदारी करनी है। साधना का अर्थ है - समर्पण जितना समग्र होगा, गुरुसत्ता की चेतना - सिद्धियों, शक्तियों को हम उतना ही व्यापक परिमाण में धारण भी कर सकेंगे - जीवन उतना तेजी से परिवर्तित भी होने लगेगा। परमपूज्य गुरुदेव इतिहास में ऐसे एक शीर्षपुरुष के रूप में स्वयं को स्थापित कर गए, जिनके माध्यम में जन-सामान्य को यह लगा कि साधारण जीवन जीने वाला भी एक श्रेष्ठ साधक - समष्टिगत चेतना के महाआंदोलन एक अंग बन सकता है। परमपूज्य गुरुदेव ने मानव इतिहास में पहली बार जीवन और साधना को एक रूप करके दिखा दिया। साधना को ‘जीवन जीने की कला’ नाम देकर उनने सार्वजनीन बनाया एवं लाखों हीरों को तराशकर उनके जीवन-स्तर को उठा दिया।

परमपूज्य गुरुदेव के अस्सी वर्षीय जीवन का निचोड़ देखे तो हमें उनके जीवन को साधूमानव बनाकर जीने वाले एक गृहस्थ के रूप में पाते हैं, जो लाखों लोगों के हृदयों पर अधिकार कर उनके आध्यात्मिक अभिभावक बनते चले गए। न वे कभी रामकृष्ण परमहंस की तरह बार-बार भावसमाधि में गए, न श्री अरविन्द की तरह एकांतप्रेमी योगी बने, न चैतन्य महाप्रभु की तरह उन पर कभी आवेश आया। परन्तु उनने जो प्रचण्ड साधनात्मक से दिखने वाले व्यक्तियों से जीवनसाधना संपन्न कराके दिखा दिया। वह अतुलनीय है। उनकी जीवन-साधना के विषय में उन्हीं ने अपनी आत्मकथा में लिखा है - “हमारी तपश्चर्या का प्रयोजन संसार के हर देश में, जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनेकानेक भागीदारों का सृजन करना है।” इसी पुस्तक में वे लिखते हैं - “नवनिर्माण के उदीयमान नेतृत्व के लिए पर्दे के पीछे हम आवश्यक शक्ति तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे।” आगे भी वे लिखते हैं “हम जिस अग्नि में अगले दिनों तपेंगे, उसकी गर्मी असंख्यों जाग्रत आत्माएँ अनुभव करेंगे। लोकसेवियों की एक ऐसी उत्कृष्ट चतुरंगिणी खड़ी कर देना, जो असंभव को संभव बना दे, नरक को स्वर्ग में परिणत कर दें, यह हमारे ज्वलन्त जीवन क्रम का अंतिम चमत्कार होगा।”

ऊपर के वाक्यों से जो आग निकली दिखाई देती है, उसकी तपन सभी अनुभव कर सकते हैं। हम सभी को यदि स्वयं को अनेक शिष्य होने की जाग्रत आत्मा के रूप में अनुभूति होती है, तो हमें भी स्वयं को उस चतुरंगिणी का एक अंग मानकर अपनी साधक के रूप में तैयारी प्रस्तुत नवरात्रि से और उत्कृष्ट स्तर की आरम्भ कर देना चाहिए। यह कैसे हो, कैसे बहुगुणित हो जन-जन तक साधना द्वारा आत्मशक्ति के उपार्जन का संदेश पहुँचे - इसका मार्गदर्शन अगले कुछ अंकों में परिजन पाठक पढ़ सकेंगे, किन्तु विस्तार से इसे दिसम्बर १९९८ एवं जनवरी १९९९ के साधना विशेषांकों में फलश्रुति के साथ पाएँगे। नवम्बर १९९८ से भारत के प्रायः चौबीस केन्द्रों से आरम्भ होने वाली साधना - प्रशिक्षण प्रक्रिया के संबंध में अलग अंक में तथा “प्रज्ञा अभियान पाक्षिक’ एवं ‘युगनिर्माण योजना’ मासिक में पाठक पढ़ सकेंगे।

हम सभी को समय की विषमता - संधिकाल की प्रसवपीड़ा का समय समीप आने की गम्भीरता एवं सामूहिक साधना के माध्यम से समष्टि मन के जागरण एवं अदृश्य जगत के अनुकूलन की प्रक्रिया को समझना एवं तदनुसार ही अपने जीवन की रीति-नीति का निर्धारण करना चाहिए। इसी में समझदारी हैं।


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