अंतःकरण की शांति (Kahani)

September 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मिथिला नगरी के महानन्द परिव्राजक ने जीवन के तीन पहर कठिन तपश्चर्या में बिताये। जप, तप, आसन, प्राणायाम, स्वाध्याय, यज्ञ, कीर्तन, मार्जन, तर्पण करते-करते असंख्य सिद्धियाँ करतलगत कर लीं। असाधारण क्षमता वाले मुनि महानन्द की ख्याति चन्द्रमा के प्रकाश की तरह विकसित होने लगीं। सैकड़ों व्यक्ति उनकी सिद्धियों का लाभ उठाने लगे। किंतु मुनि का अन्तः कारण स्थिर न था। सिद्धियों ने उनकी तृष्णा तो बढ़ा दी, पर वह शान्ति, वह स्थिरता न मिली जिसके लिए मुनि ने घर-वार और स्नेहियों, संबंधियों का साथ छोड़ा था।

एक दिन महानन्द इसी दुःख से भरे अपनी कुटिया से निकले। एक गाँव की ओर चल पड़े। वे गाँव में पहुँचे ही थे कि किसी के कराहने का स्वर सुनाई दिया। कोई बीमार था, देखने वाला कोई न था, बड़ी पीड़ा बढ़ गई थी, उस व्यक्ति की दर्द भरी कराह मुनि के हृदय में उतर गई, उन्होंने बीमार की रात-भर सेवा की। दवा दी, पाँव दाबे, बिस्तर बदले, टट्टी और पेशाब धोया। चौथे पहर जब उसे नींद आई, मुनि आश्रम लौटे।

आज न उन्होंने संध्या की, न प्राणायाम और निदिध्यासन भी नहीं किया किंतु, तो भी उनके अन्तःकरण में अपूर्ण शान्ति, स्थिर उत्फुल्लता, अबाध सुख निर्झर की भाँति झर रहे थे। महानन्द को बोध हुआ कि तप-साधना द्वारा अर्जित क्षमता का सही उपयोग न हो पाने से मन अशान्त था और अपनी साधना का अगला चरण इसी को मानकर अविरल शान्ति पायी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles