सिद्धिदात्री गायत्री महाशक्ति की प्राणाकर्षण साधना

September 1998

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गायत्री महामंत्र का वर्णन करते हुए ऋषियों ने उसे ‘तारक मंत्र’ बताया है और कहा है कि जो उसकी शरण पकड़ेगा, उसे भवबन्धनों से, भवसागर से, नरक से उबारने में देर न लगेगी। यह महाशक्ति उसे डूबने से बचा लगी और पार उतरने का उपक्रम बना देगी। शंख स्मृति में उल्लेख है-

गाय़न्न्या परवं नास्ति दिवेचेह च पावनम्। हस्तत्राणप्रदा देवी पतताँ नरकार्णवे॥

अर्थात् नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली गायत्री के समान पवित्र करने वाली वस्तु इस पृथ्वी तथा स्वर्ग में और कोई नहीं है। आगे भी कहा गया है-

शत्रुतो न भयं तस्य दस्युतो क्वान राजतः। न शस्त्रानल तो यौधा कदाचित्संभविष्यति॥

अर्थात् न उसे शत्रुओं का भय रहता है, न डाकुओं का, न राजा का, न हथियार का, न अग्नि का- वह सब प्रकार के भयों से निर्भय हो जाता है।

वस्तुतः गायत्री को तारक मंत्र इसलिए कहा गया है कि यह मनुष्य में सन्निहित प्राणतत्त्व का अभिवर्द्धन, उन्नयन करता है, जैसा कि गायत्री मंत्र के शब्दार्थ से ही प्रकट है। ‘गय’ अर्थात् प्राण। ‘त्री’ अर्थात् त्राण करने वाली। जो प्राणों का परित्राण, उद्धार, संरक्षण करे- वह गायत्री। मंत्र शब्द का अर्थ है- ‘मनन’ - विद्या, विज्ञान, विचार जिसका करने से ‘त्राण’ हो, प्राणों की रक्षा हो। गायत्री मंत्र अर्थात् प्राणों का संरक्षण-परित्राण करने की विद्या। साधना-ग्रंथों में तारक मंत्र के नाम से इसका उल्लेख इसलिए भी हुआ है कि यह भवसागर से तैराकर पार करा देने वाला है। ‘तारक’ अर्थात् पार करा देने वाला। गहरे जलप्रवाह को पार करके निकल जाने को, डूबते हुए को बचा लेने को तारना कहते हैं। यह भवसागर ऐसा ही है जिसमें अधिकांश लोग डूबते हैं, तैरते तो कोई विरले ही हैं। जिस साधना से तरना संभव हो सके उसे ‘तारक’ कहा जाएगा। गायत्री महामंत्र में यह सामर्थ्य है, उसी से उसे ‘तारक मंत्र’ कहा जाता है।

प्रायः देखा जाता है कि इस संसार में अधिसंख्य व्यक्ति जीवित अवस्था में ही नरक की यातनाएँ सहते हुए ही समय बिताते हैं। आन्तरिक दुर्बलताओं, भौतिक प्रलोभनों के कारण सभी महत्वपूर्ण सफलताओं से वंचित रहते है। नरक क्या है? गयी-गुजरी आध्यात्मिक एवं भौतिक परिस्थितियों, मनःस्थितियों में पड़े रहना - जकड़े रहना, मानव जीवन में मिल सकने वाले उल्लास, आनन्द से वंचित रहना, मनोविकारों और उनकी दुखद प्रतिक्रियाओं के विविध-विधि कष्ट-क्लेश सहते रहना - यही तो नरक है। इस स्थिति से वही व्यक्ति छुटकारा पा सकता है जो प्राणवान होगा। प्राणतत्त्व का सम्पादन-अभिवर्द्धन करना ही इस स्थिति से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही है।

गायत्री महामंत्र में इसी प्रक्रिया का समस्त तत्त्वज्ञान सम्मिलित है। जो विधिवत उसका आश्रय ग्रहण करता है, उसे तत्काल अपने में समग्र जीवनीशक्ति का अभिवर्द्धन होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। जितना ही प्रकाश बढ़ता है, उतना ही अन्धकार दूर होता है। इसी प्रकार आन्तरिक समर्थता बढ़ने के साथ-साथ जीवन को दुख-दारिद्र्य का घर और संसार को भवसागर के रूप में दिखाने वाले नारकीय वातावरण का भी अन्त होने लगता है।

गायत्री को तारक मंत्र इसीलिए कहा गया है कि वह साधक को नरक से उबार सकता है। कष्टकर और खेदजनक परिस्थितियों से पार कर सकता है। जिनको आन्तरिक दुर्बलताओं ने घेर रखा है, उनके लिए पग-पग पर दुख-दारिद्रय भरा नरक ही प्रस्तुत रहता है। विश्व में उन्हें कुछ भी आकर्षक एवं आनन्द दिखाई नहीं पड़ता। अपनी ही तृष्णाएँ, अपनी वासनाएँ बन्धन बनकर रोम-रोम को जकड़े रहती हैं और बन्दी जीवन की यातनाएँ सहन करते रहने को बाध्य करती है। चूँकि यह परिस्थितियाँ हमारी अपनी विनिर्मित की हुई होती हैं। दुर्बलताओं का प्रतिरोध न करके हमने स्वयं ही उन्हें अपने ऊपर शासन करने के लिए आमंत्रित किया होता है। अतः इस विधान का- स्थिति का उत्तरदायित्व भी अपने ही ऊपर है। जब हम मानवोचित पुरुषार्थ अपनाकर प्राण-प्रतिष्ठा के लिए तत्पर होते हैं, गायत्री उपासना का आश्रय लेते हैं, तो इन विपत्तियों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। डूबने वाली स्थिति बदल जाती है और हम तैरकर पार होने लगते हैं।

गायत्री उपासना का माहात्म्य बताते हुए शास्त्र कहते हैं - जपता जुह्नता चैव विनिपाते न विद्यते।” अर्थात् गायत्री जप और हवन करते रहने वाले का कभी पतन नहीं होता।

“सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाँ भवति मुक्तये।”

अर्थात् वे भगवती गायत्री प्रसन्न होकर मनुष्यों को संसार सागर से मुक्त कर देती हैं।

दैनिक साधना, नित्य संध्याकर्म आदि में गायत्री मंत्र जप का साधारण विधान है। विशेष प्रयोजनों के लिए सकाम-निष्काम सजीव-निर्जीव अनुष्ठान एवं पुरश्चरण किये जाते हैं। यह सामान्य क्रम कहलाता है। इससे ऊँचे स्तर की साधना दो भागों में विभक्त है। एक को कहते हैं - ध्यान-धारणा और दूसरे भाग को कहते हैं- प्राण-प्रक्रिया इन्हीं दोनों का अवलम्बन कर साधक उच्च आध्यात्मिक भूमिका में विकसित होता है।

ध्यान-धारणा में भावना का प्राधान्य है। चित को एकाग्र, तन्मय एवं प्रेम-भावना से परिपूर्ण करके इष्टदेव के साथ एकात्मभाव, अद्वैत, विलय की स्थिति उत्पन्न करने में अन्तःकरण का-आत्मभाव का विकास होता है। लघुता - विभुता में परिणत होती है। पुरुष पुरुषोत्तम बनता है और नर से नारायण बनने का अवसर आ जाता है। आत्मसाक्षात्कार और ईश्वरदर्शन इसी स्थिति में होता है। सीमितता जब असीम में परिणत हो जाती है, छोटी सीमा में केन्द्रित ममत्व जब ‘वसुधैव कुटुम्बकम् का रूप धारण कर लेता है, तब अहंता मिटती है और निरहकृत व्यापकता में, पूर्णता में परिणत होने लगती है। इसी मार्ग पर चलते हुए जीव ब्रह्म बन जाता है। जब सब अपने लगने लगते हैं, तभी से समान प्रेम होता है, तो परमेश्वर का जड़-चेतन में सर्वत्र अपनी ही विशुद्ध आत्मा का परमात्मा का दर्शन होता हे। इसी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने पर जीवनोद्देश्य पूर्ण हो जाता है। उसी भूमिका को आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्मनिर्वाण, सच्चिदानन्द सुख, निर्विकल्प समाधि कहते हैं। इसी में जीव सब बंधनों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक परमपद का मोक्ष का अधिकार बनता है।

इस स्थिति को प्राप्त करने से पूर्व साधक को गायत्री की प्राण-प्रक्रिया की भूमिका से होकर गुजरना पड़ता है। सामान्य दैनिक साधना एवं सकाम पुरश्चरणों से आगे बढ़कर ध्यान-धारणा की उच्च भूमिका में प्रवेश करने से पूर्व एक मध्यवर्ती साधन के रूप में इस प्राण-प्रक्रिया का अपनाना भी अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है। आत्मिक भूमिका में प्रवेश करना शत्रुओं के चक्रव्यूह - किले को भेदने की तरह कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर रूपी षडरिपु इस कल्याण मार्ग को रोके बैठे रहते हैं। वासना और तृष्णा की दो पिशाचिनियाँ मनुष्य को दुराचारिणी वेश्या की तरह प्रलोभन-आकर्षण के सारे साज-सामान जुटाये बैठी रहती है। इस जंजाल में ही जीवात्मा को जन्म से मृत्यु तक बन्धनबद्ध होकर तड़पना पड़ता है। नरक के यह आठ दूत सामान्य स्तर के मनुष्य को - जीवात्मा को अपने चंगुल में ही दबोचे बैठे रहते हैं। वासना और तृष्णा रूप जादूगरनियाँ उस नट-मर्कट की तरह नचाती रहती है। षडरिपु-मनोविकार मित्र, बनकर, सगे-सम्बन्धी बनकर साथ-साथ छद्मवेश में रहते हैं और हर घड़ी शत्रुओं की करतूत करके जीव का लोक-परलोक बिगाड़ते रहते हैं। काम क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर की अंगुलियों के इशारे पर जीव नाचता रहता है। वे जो चाहते हैं सो कराते हैं, जिधर इच्छा होती है उधर भगाते हैं।

इस विडम्बना में फँसा हुआ असहाय मनुष्य आत्मकल्याण की बात ध्यान में आने पर भी कुछ कर नहीं पाता। श्रेय-साधन के लिए उसे न एक मिनट की फुरसत मिलती है और न एक पाई-पैसा खर्च करने की लोभ आज्ञा देता है। आत्मा को अपनी इच्छा-आकांक्षा दबाते -कुचलते, रोते - कलपते दिन बिताने पड़ते हैं। और एक-ढक करके यह बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट - भ्रष्ट समाप्त हो जाता है। तब अन्तकाल तक केवल दुर्गति और पश्चाताप का उत्पीड़न सहने, नारकीय कष्ट भोगने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रह जाता है।

मनुष्यों में से अधिकांश को इसी स्तर का जीवन काटना पड़ता है। इससे उबरने के लिए अन्धी दुनिया की भेड़चाल से प्रतिकूल दिशा में चलना पड़ता है। इसके लिए आवश्यक साहस चाहिए। दुनिया अपने को मूर्ख बताये तो उसकी समझ को उपहास मानकर अपना पथ आप निर्धारित करने की क्षमता और दृढ़ता किसी विरले में ही होती है। यह मनस्विता और तेजस्विता, लगन और श्रद्धा जब तक अपने में न हो तब तक आत्मकल्याण के मार्ग पर देर तक और दूत तक नहीं चला जा सकता। श्रेयपथ पर किसी आवेश, उत्साह में थोड़ी दूर तक चले भी तो आलस्य, प्रमाद उसे अस्त-व्यस्त कर देते हैं। छोटी-मोटी कठिनाइयों के अवरोध समाने आ खड़े होते हैं। तथाकथित मित्र-परिजनों के स्वार्थ में राई-रत्ती कमी आती है तो वे भी लाल-पीले होते हैं। कई तो मूर्ख-सनकी पागल बताते और उपहास करते हैं। इन अड़चनों से मन ढीला पड़ जाता है और जो कुछ छोड़ा-सा साधनाक्रम का शुभारम्भ किया था, वह संकल्पशक्ति की दुर्बलता मानसिक शिथिलता के कारण थोड़े ही दिन में समाप्त हो जाता है।

इस परिस्थिति से निपटे बिना बाज तक कोई श्रेयार्थी आत्मोत्कर्ष के मार्ग पर आगे बढ़ नहीं सका। इसलिए इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह आन्तरिक साहस, आत्मबल एकत्रित करना ही पड़ता है। जो इन समस्त विघ्न-बाधाओं को परास्त करता हुआ, अंगद के पैर की तरह अपने निश्चय पर दृढ़ बने रहने में सहायता कर सके। यह आत्मबल-यह आन्तरिक साहस। प्राणशक्ति पर आधारित है। इसलिए साधक को ‘प्राण प्रक्रिया’ द्वारा अभीष्ट मनोबल, आन्तरिक दृढ़ता एवं अविच्छिन्न श्रद्धा का सम्पादन - संवर्धन करना पड़ता है। इसके लिए आवश्यक प्रयत्न करने का नाम ही ‘प्राण प्रक्रिया’ है।

आत्मोत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ने वाले साधक को अपने सामने आने वाली कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आहार-विहार राजसी न हरने से शरीर में भी कुछ दुर्बलता आती है। उसकी पूर्ति प्राणबल से ही करनी पड़ती है। अभावग्रस्त, एकाकी, कष्टसाध्य, दूसरों से अपेक्षित जीवन खलता है और मन में उद्विग्नता उत्पन्न होती है। इसके समाधान के लिए भी प्राणबल चाहिए। फिर श्रेयार्थी का हृदय बड़ा कोमल हो जाता है। दूसरों का कष्ट देखकर मक्खन की तरह सहज ही पिघल जाता है। दया और करुणा से द्रवीभूत अन्तःकरण पीड़ित व्यक्ति की कुछ सहायता करना ही चाहता है।

भौतिक दृष्टि से दूसरों की सहायता धनी लोग कर सकते हैं, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से किसी की सहायता कर सकना प्राणधन से सम्पन्न लोगों के लिए, सिद्धपुरुषों के लिए आत्मिक शक्ति से सुसम्पन्न व्यक्ति के लिए ही संभव होता है। यह पूँजी केवल प्राणबल के आधार पर ही संग्रह की जा सकती है।

गायत्री की प्राण-प्रक्रिया वह वैज्ञानिक पद्धति है, जो साधक ही उपर्युक्त कठिनाइयों का हल और आवश्यकता की पूर्ति का साधन प्रस्तुत करती है। समर्थ साधक ही अपनी आन्तरिक क्षमता के द्वारा इस कठिन मार्ग पर देर तक अन्त तक चलता रह सकता है। इसलिए एक आवश्यक साधन को माध्यम समझते हुए श्रेयार्थी की प्राणशक्ति सम्पादित करने की साधना-पद्धति को अपनाना पड़ता है। इसी विधि-व्यवस्था का नाम प्राण-प्रक्रिया है।

इस अनन्त विश्व - ब्रह्माण्ड में समुद्र में भरी हुई अगाध जलराशि की तरह सूक्ष्म रूप में वह अपेक्षित प्राणशक्ति भरी पड़ी है। आकाश में वायु, ईथर, प्लाज्मा, विद्युत, परमाणु जैसी भौतिक शक्तियाँ भरी पड़ी है, जिसकी पुष्टि आधुनिक अनुसंधानकर्ता भौतिक-विज्ञानियों ने भली प्रकार कर दी है। इसी प्रकार अध्यात्म विद्या के ज्ञाताओं, तत्त्वदर्शियों को यह पता है कि इस निखिल ब्रह्माण्ड में एक प्रचण्ड प्राणशक्ति व्याप्त है, जिसे अध्यात्म की भाषा में ‘ब्रह्म ऊष्मा’ और विज्ञान की भाषा में ‘लेटेन्ट हीट’ कहते हैं। इसी के प्रभाव और प्रकाश से संसार की विविध प्रकार की हलचलें और गतिविधियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। परमाणु के इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन जैसे सूक्ष्म भाग इसी ऊष्मा से अपनी धुरी और कक्ष पर द्रुतगति से घूमते हैं। ग्रह-गोलकों की गतिशीलता का यही कारण है। वृक्ष - वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुओं में सजीवता इसी प्रभाव से परिलक्षित होती है।

यह विश्वव्यापी प्राणशक्ति जहाँ जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती है, वहाँ उतनी ही सजीवता दिखाई देने लगती है। मनुष्य में इस प्राणतत्त्व का बाहुल्य ही उसे अन्य प्राणियों से अधिक विचारवान, बुद्धिमान, गुणवान, सामर्थ्यवान एवं सुसभ्य-सुसंस्कृत बना सका है। इस महान शक्तिपुञ्ज का प्रकृति - प्रदत्त उपयोग करने तक ही सीमित रहा जाए, तो केवल शरीरयात्रा ही संभव हो सकती है और अधिकांश नरपशुओं की तरह केवल सामान्य जीवन ही जिया जा सकता है। पर यदि उसे प्राण-प्रक्रिया के माध्यम से अधिक मात्रा में बढ़ाया जा सके तो गयी - गुजरी स्थिति से ऊँचे उठकर उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँच सकना संभव हो सकता है।

गायत्री शब्द के अक्षरों का अर्थ-प्राण की संरक्षक अभिवर्धनी शक्ति है। यह महामंत्र उस महत्त्व प्राण की मात्रा साधक में बढ़ाता चलता है। जिस प्राणी में जितना आध्यात्मिक चुम्बकत्व है, वह उतनी ही अधिक मात्रा में इस महाप्राण को अपनी ओर आकर्षित कर उसे संग्रह कर सकता है। इस चुम्बकत्व का अभीष्ट मात्रा में उत्पादन गायत्री महाशक्ति की उपासना से होता है। गायत्री का सविता देवता उस प्राण का प्रचण्ड पुँज अपने में धारण किये हुए है। जिन्होंने इस महाशक्ति का आश्रय-सान्निध्य लाभ किया है, उनमें प्राणशक्ति की मात्रा दिन-दिन बढ़ती चली गयी है और वे इतना आत्मबल सम्पादित कर सके हैं। जिसके आधार पर बाह्य और आन्तरिक जीवन की समस्त आवश्यकताओं का समाधान किया जा सके।

प्राण-प्रक्रिया के साधना - विधानों को प्राणायाम कहते हैं। यों साधारणतया साँस को गहराई तक खींचने का ‘पूरक’ रोके रहने का ‘अंतः कुंभक पूरी तरह साँस बाहर निकालने को ‘रेचक’ और कुछ देर बिना श्वास के रहने का बाह्य कुंभक कहते हैं। इन चार स्तरों में बँटी हुई श्वासोच्छवास प्रक्रिया प्रक्रिया को प्राणायाम कहा जाता है। दैनिक साधन-उपासना के नित्य-कर्मों में इसी पद्धति का प्रयोग होता है, पर इतने मात्र से ही प्राणायाम को सीमाबद्ध नहीं मान लेना चाहिए। उसके प्रख्यात चौरासी प्रकार हैं। इसके अतिरिक्त भी अन्य ऐसे प्राण विधान हैं, जिनके माध्यम से शरीर के सूक्ष्म प्राणसंस्थानों, षट्चक्रों का जागरण होता है, वे विश्वव्यापी प्राणशक्ति के साथ जोड़ने और उस संपर्क से अपने को अत्याधिक दिव्यसामर्थ्य सम्पन्न बनाने में समर्थ होते हैं।

मोटे तौर पर प्राणायाम श्वास - उच्छ्वास की एक व्यायाम पद्धति है, जिससे फेफड़े मजबूत होते, रक्त संचार की व्यवस्था सुधारने होते, रक्त संचार की व्यवस्था सुधारने से समग्र आरोग्य एवं दीर्घजीवन का लाभ मिलता है। शरीरविज्ञान के अनुसार हमारे दोनों फेफड़े श्वास को अपने भीतर भरने के लिए यंत्र हैं, जिनमें भरी हुई वायु समस्त शरीर में पहुँचकर आक्सीजन प्रदान करती है और विभिन्न अवयवों से उत्पन्न हुई निकाल बाहर करती है। यह क्रिया ठीक तरह से होते रहने से फेफड़े मजबूत बनते हैं और रक्तशुद्धि का क्रम ठीक तरह चलता रहता है। पर देखा गया है कि लोग गहरी साँस न लेकर उथली, आधी-अधूरी श्वास-प्रश्वास से ही काम चलाते हैं, जिससे फेफड़ों का लगभग एक चौथाई भाग की काम करता है, शेष तीन-चौथाई भाग की काम करता है, शेष तीन - चौथाई भाग लगभग निष्क्रिय पड़ा रहता है। शहद की मक्खी के छत्ते की तरह फेफड़ों में प्रायः सात करोड़ तीस लाख स्पंज जैसी एल्व्योलाई - कोष्ठक होते हैं। साधारण हल्की साँस लेने पर उनमें से लगभग दो करोड़ में ही प्राणवायु पहुँचती है। शेष साढ़े पाँच करोड़ कोष्ठकों का कोई उपयोग न होने के कारण वे निष्क्रिय पड़े रहते हैं। इस निष्क्रिय पड़े हुए भाग में जड़ता और गंदगी जमने लगती है, परिणामस्वरूप टी. बी. ब्रोंकाइटिस, खाँसी, प्लूरिसी जैसी घातक बीमारियों के विषाणु अपना अड्डा जमा लेते हैं। फेफड़ों की कार्य पद्धति का अधूरापन रक्त-शुद्धि पर प्रभाव डालता है, जिससे हृदय कमजोर पड़ता है और अकाल मृत्यु का कोई न कोई बहाना सामने आ खड़ा होता है। आँकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष हजारों लोग प्रायः फेफड़े और हृदय की बीमारी के कारण ही मरते हैं। इसका प्रमुख कारण पूरी और गहरी साँस का न लेना ही है।

गहरी श्वास-प्रश्वास लेने की साधारण प्राणायाम प्रक्रिया को फेफड़ों का अच्छा व्यायाम कहा जा सकता है। उससे स्वास्थ्य - सुधार और दीर्घजीवन की संभावना निश्चित रूप से बढ़ती है। विभिन्न रोगों का निवारण केवल विशेष प्रकार के प्राणायामों द्वारा किया जा सकता है। प्राण पद्धति अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण आरोग्य संवर्द्धन एवं रोग निवारण की समग्र पद्धति है। किन्तु स्वास्थ्य-संवर्द्धन ही तो प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य नहीं है। यह तो एक छोटा-सा प्रारम्भिक लाभ मात्र है। उसका वास्तविक लाभ तो मानसिक एवं आध्यात्मिक होता तो मानसिक एवं आध्यात्मिक होता है। कामुकता, क्रोध, चिन्ता, निराशा, भय, उद्वेग, आवेश जैसे मनोविकारों का शमन निर्धारित प्राणायामों द्वारा आसानी से किया जा सकता है। मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाने, स्मरणशक्ति, कुशाग्रता, सूझ-बूझ दूरदर्शिता, सूक्ष्म निरीक्षण, धारणा प्रज्ञा, मेधा आदि मानसिक क्षमताओं - विशेषताओं का अभिवर्द्धन प्राणायाम द्वारा किया जा सकता है। चंचल मन का निरोध एवं एकाग्रता-सम्पादन में भी इस प्रक्रिया की बढ़ी-चढ़ी भूमिका है। आन्तरिक मलीनता-कुसंस्कारों को धोने, शुद्ध करने में और अन्तःकरण में सतोगुणी सत्प्रवृत्तियों में अभिवर्द्धन का आध्यात्मिक प्रयोजन भी प्राणायाम से सिद्ध होता है। षट्चक्र बेधन, कुण्डलिनी जागरण एवं शरीर तथा मन में प्रसुप्त पड़े हुए अनेक सूक्ष्म शक्ति-संस्थानों का उन्नयन प्राण की प्रयोग प्रक्रियाओं पर ही निर्भर है। इनका विज्ञान तथा विधान अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण शास्त्र है। प्राचीनकाल के तत्त्ववेत्ता ऋषि-मनीषी इस विधा को भली-भाँति जानते थे और विश्वव्यापी प्राणतत्त्व को अपने अन्दर अभीष्ट मात्रा में धारण कर उन विभूतियों को प्राप्त करते थे, जो ऋद्धि - सिद्धियों के नाम से विख्यात हैं।

यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि गहरी श्वास को खींचना और छोड़ना तो मात्र ‘डीप ब्रीदिंग’ भर है। यह तो आरम्भिक प्रक्रिया भर है। आगे चलकर उसके अनेक प्रयोग और प्रकार बन जाते हैं। चौरासी प्रकार के प्राणायामों के विधान एक से एक विलक्षण प्रकार के हैं। फिर कितने ही उनमें से मानसिक और आध्यात्मिक ही हैं जिनमें साँस खींचने और छोड़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। उनमें प्राणशक्ति का आकर्षण और विकर्षण ही प्रधान रहता है। प्राण का संचय होने से समाधि लगती है। और मनुष्य काल को वश में करके मनचाही अवधि तक जीवित रह सकता है। वह चाहे तब सरलता से प्राण त्याग कर सकता है और महाभारत के भीष्म पितामह की तरह इच्छामृत्यु का वरण कर सकता है। शरीर और मन प्राण की शक्ति से चलते हैं। प्राण पर नियंत्रण करने की विधि जानने वाला अपने शरीर और मन की प्रत्येक क्रिया पर नियंत्रण रख सकने की क्षमता से सुसम्पन्न हो जाता है। इस प्रकार के सभी विधिविधान प्राणायाम विद्या के अंतर्गत आते हैं। साँस खींचने - छोड़ने वाला रेचक - पूरक कुंभक विधान तो उस महाप्राण विद्या का सबसे आरम्भ का एक हल्का-फुल्का शुभारम्भ मात्र है।

गायत्री प्राण विद्या है। प्राण के साधन से हम शरीर, मन और आत्मा की दृष्टि से परिपुष्ट और समुन्नत बनते हैं। यह विकासक्रम हमारी अपूर्णताओं को क्रमशः दूर करते हुए पूर्णताओं से लाभान्वित करता है और हम अपनी सम्पूर्ण अपूर्णताओं से छुटकारा पाकर पूर्णता प्राप्ति का जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकने में सफल हो जाते हैं

गायत्री उपासना का मध्यवर्ती मार्ग है - प्राणशक्ति का संरक्षण - संवर्द्धन। इससे वह समर्थता आती है, जिसके बल पर ध्यान-धारणा में सफलता प्राप्त की जा सके। प्राणशक्ति के मूल्य पर ही संसार की विभिन्न भौतिक सम्पदाएँ देव आध्यात्मिक विभूतियाँ प्राप्त की जा सकती है। इसी के द्वारा आत्मकल्याण का, आत्मोत्कर्ष का जीवनोद्देश्य प्राप्त होता है। उसी के द्वारा बन्धन से मुक्ति का मोक्ष का परम पुरुषार्थ सफलतापूर्वक सम्पन्न होता है। समग्र सफलता के लिए समग्र बलिष्ठता सम्पादित करनी पड़ती है और यह प्रयोजन गायत्री की प्राणमय कोष की समर्थता संपादन करने वाली साधन के द्वारा ही पूरा होता है। साधना के उच्च सोपानों पर आगे बढ़ने के इच्छुक हर साधक को इस प्रक्रिया को जानना व अपनाना ही चाहिए।


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