स्वस्थ शरीर के लिए मानसिक संतुलन अनिवार्य

September 1998

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कोलम्बिया विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी डॉ. एच. सिक्स ने अपने अनुसंधानों से यह निष्कर्ष निकाला है कि यदि शरीर को रासायनिक दोषों से और जटिल व्याधियों से मुक्त रखा जा सके तो मनुष्य आसानी से आठ सौ वर्ष जी सकता है। वे कहते हैं अधिक सक्रियता, दौड़-धूप उत्तेजना और गर्मी शरीर को संतप्त करके उसकी जीवनी-शक्ति के भण्डार को बेतरह खर्च करती है। यदि भीतरी अवयवों पर अतिरिक्त दबाव न पड़े और उन्हें स्वाभाविक - सरल रीति से काम करने दिया जाय तो वे इतने समर्थ रह सकते हैं कि क्षतिपूर्ति का क्रम आसानी से चलता रहे। नशेबाजी से लेकर वासना, क्रोध, चिन्ता आदि से आवेशों तक कितने ही ऐसे कारण है जो जितने अनावश्यक उससे ज्यादा हानिकारक हैं। शान्त, सरल, सन्तुष्ट और प्रसन्न जीवन जीने से निरर्थक उत्तेजना से बचा जा सकता है और जीवनी - शक्ति के क्षरण को बचाकर लम्बा जीवन जिया जा सकता है।

उत्तेजित आहार और उद्विग्न चिंतन स्नायु संस्थान को संतप्त करके मनुष्य को दुर्बल बनाता है और पूरी आयु भोगने से वंचित रखता है।

मानव शरीर का तापमान प्रायः १८.६ अंश फारेनहाइट होता है। इसे कम करके आधा अर्थात् ४१ किया जा सके, तो आयुष्य में आशातीत वृद्धि हो सकती है। और लगभग दो हजार वर्ष जिया जा सकता है। डॉक्टर लूवे की नई खोज यह है कि शरीर के जीवकोषों की क्षतिपूर्ति १८ तापमान रहने पर जिस क्रम से होती है - तापमान आधा होने हो सकती है। उससे आयुष्य का बढ़ना सुनिश्चित है। मृत्यु - जीवकोषों के समूचे क्षय को ही तो कहते हैं। जीवकोष पुराने मरते और नये जन्मते रहते हैं यह क्षति - पूर्ति जब तक होती रहेगी, मृत्यु की आशंका न रहेगी। दीर्घ-जीवन का मूल आधार यही हो सकता है कि जीव-कोषों में दुर्बलता न आने पाये, उनकी क्षति स्वल्प हो और नवीन कोषों के उत्पन्न होने के क्रम में शिथिलता न आने पाये। यह व्यवस्था बाह्य ताप और आन्तरिक सन्ताप को घटाकर की जा सकती है। और अबकी अपेक्षा कई गुनी अवधि तक जिया जा सकना सम्भव हो सकता है।

अमेरिका के रॉकफेलर इन्स्टीट्यूट के जीव-विज्ञान विभाग में पिछले लम्बे समय से जीवाणुओं की जीवनचर्या जानने का प्रयास चल रहा है। अमीबा और पैरामीशियम जीवाणुओं को उनका आहार तो पहुँचाया जाता रहा, पर दबाव पड़ने और नष्ट होने का अवसर न आने दिया गया। फलतः एक कोष ९.. पीढ़ियाँ जन्म दे चुका, पर उसका जीवन अक्षुण्ण बना रहा है। यदि आवश्यक सुविधाएँ मिल सकें, तो यह कोष और भी अधिक समय तक बिना क्षतिग्रस्त हुए जीवित रखे जा सकते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य अति दीर्घकालीन आयुष्य प्राप्त कर सकता है और लगभग अमरता की स्थिति तक पहुँच सकता है।

भारतीय योगशास्त्र इस तथ्य को सदा से स्वीकार करता रहा है। सिद्ध पुरुष निराहार रहकर भी दीर्घजीवन प्राप्त करते रहे हैं - शास्त्रों का मत है कि “शीतकाल में मेढ़क कुछ भी नहीं खाते, साँप वायुसेवन करके रह जाते हैं। कछुए अंग छिपाये पड़े रहते हैं। योगी भी ऐसा कर सकते हैं।”

रीछ बर्फीले तूफानों के दिनों में अपनी माँद में जा छिपता और ऋतु - परिवर्तन होने पर ही आहार की तलाश में बाहर आता है। ऐसे ही उदाहरण अजगर आदि के भी है। इतना तो निश्चित है कि शीत की प्रधानता और विश्राम की बहुलता होने पर जीवकोषों का क्षय बन्द हो जाता है और उनकी क्षति-पूर्ति के लिए भूख आदि भी नहीं लगती।

स्वस्थ, परिपुष्ट और आयुष्यवान जीवन जीने के लिए आहार तालिकाओं को ढूँढ़ते रहना, पौष्टिक भोजन का ताना-बाना बुनते रहना और डॉक्टरों - कैमिस्टों के परामर्श को वेदवाक्य मानकर चलना ही काफी नहीं हैं, वरन् इसके लिए कुछ और अधिक गहराई में जाने की जरूरत पड़ेगी और उस मर्म को समझना पड़ेगा। जिससे ऊपर निरोग जीवन की आधार-शिला रखी हुई है।

यदि मात्र आहार और दवाओं पर स्वास्थ्य निर्भर रहा होता, तो कोई भी अमीर आदमी न तो कमजोर दिखाई पड़ता, न बीमार और न वह अधूरी आयु में ही काल-कवलित होता। उनके पास धन के प्रचुर साधन मौजूद हैं। कितनी ही कीमती चीजें कितनी ही अधिक मात्रा में उपलब्ध करने और खाने की उन्हें पूरी सुविधा है। वे चाहें तो सोना भी खाते रह सकते हैं। यदि आहार पर स्वास्थ्य निर्भर रहा होता तो ये साधन - सम्पन्न लोग बहुमूल्य डॉक्टरों द्वारा अनुमोदित, बढ़िया चीजें खाकर प्रचुर शरीर-सुख भोगते और निर्धन लोग जिनके लिए रूखा-सूखा खाकर भी पेट भरना कठिन पड़ता है, वे रुग्ण - दुर्बल दीखते। पर होता ठीक उल्टा है। टॉनिक, विटामिन, मिनरल, संतुलित आहार, पुष्टाई बेचने वाले दूसरों को बलवान, पहलवान बनाने का दावा करने वाले, औषधि विक्रेता और चिकित्सक ही नहीं, उन तथाकथित संजीवनी बूटियों को बनाने वाले तो अवश्य ही निरोग रहे होते, पर यदि इन्हीं लोगों को जाँचा जाए, तो डॉक्टर लोग तथा उनका परिवार अन्य मरीजों की अपेक्षा अच्छी स्थिति में नहीं मिलेंगे वरन् और भी अधिक दुर्दशाग्रस्त हो रहे होंगे।

यहाँ न पौष्टिक सन्तुलित आहार की निन्दा की जा रही हैं, न दवादारू को निरर्थक बताया जा रहा है। समय पर एक सीमा तक उनकी भी उपयोगिता हो सकती है, पर यह तथ्य हमें समझ ही लेना चाहिए कि स्वास्थ्य का आधार इतना उथला नहीं है। उसे बनाये रखने और बढ़ाने के लिए उन बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जो अन्तरंग जीवन से संबंधित हैं। वस्तुतः जो कुछ हम बाहर देखते है। वह अन्तःस्थिति की प्रतिक्रिया मात्र होती है।

अन्तःचेतना का जो स्तर होता है उसी के अनुरूप मन, मस्तिष्क, नाड़ी - संस्थान एवं अवयवों के क्रिया−कलाप का ढाँचा विनिर्मित होता है। और ढर्रा चलता है। आन्तरिक उद्वेग की ऊष्मा सारे ढाँचे को प्रभावित करती है और इतना ताप पैदा कर देती है, जिससे जीवन-तत्व भाड़ में भुनने वाले चने की तरह अपनी कोमलता और सरसता से वंचित होते रहें। मनोविकार एक प्रकार की ऐसी आग भीतर-ही-भीतर जलाये रखते हैं, जिससे स्वास्थ्य के लिए उत्तरदायी तत्व स्वतः ही विनष्ट होते चले जाएँ। इन्द्रिय भोगों की ललक और संग्रह स्वामित्व की ललक, इन्हें वासना और तृष्णा कहा जाता है, यह न बुझने वाली अग्निशिखाएँ जिनके भीतर जल रही होंगी, वे अपनी शान्ति और समस्वरता निरन्तर खोते चले जाएँगे।

जिन्हें चिन्ता, भय, क्रोध, असन्तोष, सवार रहते हैं, जो निराश और अवसादग्रस्त बैठे रहते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, कपट और मत्सर की दुष्प्रवृत्तियाँ जिन पर सवार रहती हैं, उनका अन्तःकरण निरन्तर उद्विग्न रहता है। मन में तनिक भी सन्तोष - समाधान नहीं होता। यह उद्विग्नता सारी अन्तःस्थिति में ज्वार−भाटा उठाती और उसे बेतरह मथती रहती है, तो इस विषम स्थिति में ग्रस्त किसी भी व्यक्ति का स्वास्थ्य संतुलित नहीं रह सकता।

अत्यधिक श्रम, निरन्तर की उछल-कूद शक्तिकोशों का अनावश्यक क्षरण करती रहती है। आदमी दिन-दिन खोखला होता जाता है। अनियमित और अव्यवस्थित दिनचर्या का भी ऐसा ही कुप्रभाव पड़ता है। शरीर की स्थिरता रखने वाली अन्तरंग प्रणाली जब एक ढर्रे को अपना लेती हैं, तो सब कुछ ठीक से चलने लगता है। पर यदि हर दिन नई-नई दिनचर्या, क्रम-व्यवस्था और रीति -नीति बदलें तो उस स्थिति में भीतर भी कोई प्रणाली निर्धारित नहीं हो पाती और उस अव्यवस्था से पाचन प्रणाली से लेकर स्नायु संस्थान तक सभी में अनिश्चितता छाई रहती है। स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए नियमित और निर्धारित दिनचर्या आवश्यक है।

अनावश्यक ताप पैदा करने वाले मनोविकार, विक्षोभ एवं उद्देश्यों से बचने और शान्त - सन्तुलित, सन्तुष्ट और हँसी - खुशी का नियमित जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए। आहार सीमित और समय पर हो। सादा और अनुत्तेजक साथ ही भूख से कम मात्रा में। ऐसी सावधानी बरतने से पेट में वह ताप उत्पन्न नहीं होता, जिसके कारण तीन-चौथाई मनुष्यों को अपनी जीवनीशक्ति से बुरी तरह हाथ धोना पड़ता है।

अन्तरंग में बढ़ी उत्तेजना श्वास-प्रश्वास की गति को तीव्र करती है। क्रोध की स्थिति में नाड़ी की, हृदय की गति बहुत बढ़ जाती है। कामसेवन के समय भी यह चाल बहुत तेज हो जाती है। बढ़े हुए श्वास आमतौर से जीव की शक्ति का क्षरण ही करते है। प्राणायाम-व्यायाम के द्वारा फेफड़ों की कसरत करके उन्हें परिपुष्ट रखने की प्रक्रिया उत्तम है, पर यह सीमित प्रयोजन के लिए, सीमित समय तक ही होना चाहिए। यदि अधिक समय शरीर को उत्तेजित स्थिति में रखा जाएगा और श्वास की गति बढ़ी रहे तो उसमें अनावश्यक ताप उत्पन्न होगा और उसका परिणाम अस्वस्थता बनकर सामने आएगा। मन की ही नहीं हमारे शरीर की स्थिति भी अधिकतर सन्तुलित ही रहनी चाहिए। स्वास्थ्य की स्थिरता के लिए इसका ध्यान रखा जाना भी आवश्यक है।

श्वास-प्रश्वास क्रिया के तीव्र और मन्द रहने का भी आयुष्य से संबन्ध है। जो जीव हाँफते रहते हैं, जिनके श्वास तेज चलते हैं, वे अधिक समय नहीं जीते। उनकी आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त जिनकी साँस मन्द चलता है, वे अधिक दिन जीवित रहते हैं। इस संदर्भ में कुछ प्राणियों की श्वास-प्रक्रिया की दर और आयुष्य की तालिका इस प्रकार है -

जीवन श्वास प्रतिमिनट आयु

कछुआ ५ १५.

साँप ७ १७.

हाथी १२ १..

मनुष्य १२ १..

घोड़ा १७ ७.

बिल्ली २४ १२

बकरी २४ १२

कुत्ता २६ १३

कबूतर ३६ ९

खरगोश ३२ ८

कितने ही सिद्धपुरुष अभी भी दीर्घजीवी पाये जाते हैं और उनकी आयु कई सौ वर्षों की प्रमाणित होती है। इसका एक ही कारण है, उनका शान्ति प्रदेश में निवास, मनःसंस्थान में शान्ति-सन्तुलन अनावश्यक श्रम संताप से बचत। वे अपना रहन-सहन ढाँचे में ढालते हैं और प्राणायाम विद्या द्वारा श्वास-प्रणाली पर नियन्त्रण स्थापित करके उसकी गति उतनी बना लेते हैं, जिससे जीवित रहने भर का काम तो चल जाए, पर अनावश्यक शक्ति क्षय की तनिक भी गुंजाइश न रहे।

सशक्त और दीर्घजीवी शारीरिक स्थिति बनाये रखने के लिए आहार - विहार के सन्तुलन का ध्यान रखने के अतिरिक्त इस तथ्य को भी स्मरण रखना चाहिए कि आन्तरिक शान्ति और समस्वरता का आरोग्य के साथ अविच्छिन्न संबंध है। मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने पर ही शारीरिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा जा सकता है।


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