बेगम! अल्लाह का शुक्र है, हज की तैयारी पूरी हो चुकी है, बहुत कम इंसानों को हज शरीफ करने का मौका मिलता है। पठान युसूफ ने अपनी पत्नी से कहा।
दरअसल हम लोग बड़ी किस्मत वाले हैं, जो हज के लिए जा रहे हैं। क्या घर का सारा समान अच्छी तरह बाँध लिया है तुमने? देखो हमें हज में आठ महीने से भी ज्यादा वक्त लग सकता है। अपने इस शहर में गुंडे - चोर-गिरहकट भी बहुतेरे हैं।
पत्नी फातिमा बोली - मेरी एक उलझन है। समझ में नहीं आ रहा कि कैसे हल करूँ?
जिन्दगी भी किफायत से रहते-रहते मैंने मुसीबत के वक्त काम आने के लिए एक सौ अशर्फियाँ इकट्ठा कर ली हैं। सोच रही हूँ कि हज के लिए जाने से पहले उन्हें कैसे हिफाजत से रखा जाय?
यह तो बड़ा आसान है। युसूफ ने लगभग तनावमुक्त होकर कहा, लाओ ये अशर्फियाँ हम यहीं किसी साहूकार के यहाँ पूरी हिफाजत रहेगी। उनकी साख है। और लोग भी अपनी रकम उन्हीं के पास जमा कराते हैं।
मुझे इन साहूकारों पर यकीन नहीं है। फातिमा ने प्रतिवाद किया। इन लालची लोगों का क्या विश्वास? हम ठहरे सीधे-सीधे अल्लाह के बन्दे। साहूकारों के छंद–फंद से वाकिफ नहीं हैं।
मैं चाहती हूँ ये सौ अशर्फियाँ आप अपने पूरे इलाके में मशहूर ऊँचे सन्त तुकाराम जी के पास धरोहर के रूप में जमा करा आवें। उन पर मुझे पूरा यकीन है। उनके पास पूरी सुरक्षा होगी।
पठान व्यापारी ने यह सुझाव सुना तो चकित रह गया। क्या कहती है यह नासमझ औरत! भला किसी फकीर के पास भी रकम जमा की जाती हैं। ठीक है तुकाराम जी अल्लाह के नेक बन्दे हैं। वैरागी हैं। गृहस्थ होते हुए भी वह कभी के दुनिया के जंजाल, माया, मोह, ममता, लोभ-लालच वगैरह छोड़ चुके हैं। सन्त-महात्माओं और फकीरों को रुपये - पैसे की चौकीदारी से क्या वास्ता? उनके पास तो तन ढँकने तक को पूरे कपड़े तक नहीं। ठंड से बेचने के लिए लिहाज और कम्बल भी नहीं। पास एक पैसा नहीं, फिर भला वे सम्पत्ति की रक्षा करना क्या जानें? उस पठान व्यापारी ने अपनी पत्नी को तरह-तरह के तर्क पेश किए। फकीरों में धोखा लगने की बात कहीं, पर पत्नी ने एक न मानी। वह किसी साहूकार के पास सौ अशर्फियाँ रखने को राजी न हुई। लगातार सन्त तुकाराम के पास ही रकम रखने को कहती रही।
यही नहीं उसने तर्क पेश किया-से साहूकार तो लोभ-लालच के पुतले हैं। सारे दिन माया-मोह में लिपटे रहते हैं। ब्याज कमाते हैं, कितनों की ही रकम हड़प लेते हैं। पैसा लेकर मुकर जाते हैं या मुकदमेबाजी में फँसा लेते हैं। मैंने बहुतों को रोते-कलपते देखा है। मुझे इन ठग-साहूकारों पर कतई भरोसा नहीं।
फिर किसके पास इस रकम को रखना चाहती हो?
मैं नेक और पाक गरीब को इन अमीर साहूकारों से बेहतर समझती हूँ।
वह तो ठीक है, पर रुपया-पैसा लोभ-लालच में फँसा देता है।
पाक इन्सान को नहीं। वे तो तमाम दुनियादारी के लालच से मुक्त रहते हैं।
तुम्हारे सामने तो हम लाचार हैं बेगम! लिहाजा अब तुम्हीं तय करो कि किसके पास इन सौ अशर्फियों को रखा जाय।
सन्त तुकाराम जी अल्लाह के सच्चे बन्दे हैं। एक नेक और पाक इन्सान हैं। तमाम लालच-माया-मोह से परे हैं। ऐसे इन्सान के पास ही मैं अपनी सम्पत्ति रखना पसन्द करूँगी।
लेकिन उनसे पास तिजोरी तो क्या, कोई टूटा-फूटा सन्दूक भी नहीं है - फिर भला कैसे सम्पत्ति की रक्षा होगी? परन्तु पत्नी मानी नहीं। मैं तो सन्त तुकाराम के पास ही रकम रखना पसन्द करूँगी - यही जिद करती रही। विवश होकर पठान व्यापारी सन्त तुकाराम के झोंपड़े पर रकम जमा कराने पहुँचे ........।’
मेरा एक प्रार्थना है, सन्त जी?
कहो खान! क्या चाहते हो? कोई आध्यात्मिक समस्या हो तो जरूर मदद करूँगा। तुकाराम जी बोले।
नहीं, एक मामूली सांसारिक बात है। मेरी पत्नी ने ये सौ अशर्फियाँ हज जाने की वजह से आपके पास धरोहर के तौर पर सुरक्षित रखने के लिए भेजी हैं। वह किसी सेठ-साहूकार पर यकीन नहीं करती। उसे आप पर ही पूरा भरोसा है। आपसे मेरी प्रार्थना है कि यह रकम अमानत के तौर पर हमारे हज से लौट आने तक अपने पास रख लें।
तुकाराम आश्चर्य में पड़ गए। बड़ी विचित्र उलझन थी। पहली बार किसी ने अपनी जमा - पूँजी उनके पास सुरक्षित रखने के लिए दी थी। रख लें या इंकार कर दें? उनके मन में द्वन्द्व उत्पन्न हो गया।
वह असमंजस भरे स्वर में कहने लगे, मेरे पास न कोई बड़ी तिजोरी है, न ही कोई चौकीदार। न इस तरह की कोई कीमती रकम या सामान रखने के लिए सन्दूक या खास इन्तजाम! जिन्दगी में खुद अपने पास ही पैसे नहीं रखे, दूसरों की क्या हिफाजत करूँगा? आप कहीं और यह रकम रखें।
लेकिन पठान व्यापारी ने अशर्फियों की थैली उनके सामने रख दी। कहा, अब यह थैली आपको समर्पित है। मेरी बेगम को आपकी हिफाजत पर पूरा यकीन है। पुरजोर शब्दों में उसने इस थैली को आपके पास रख आने को कहा है। मैं बेबस हूँ। आप जो चाहे करें, मैं तो चला। यह पड़ी है।
अच्छा ठहरो! जब मेरे पास रखनी ही है तो एक काम करो खान साहब! वह सामने वाला एक ताल खाली पड़ा है। अल्लाह पर भरोसा रखकर उसके एक कोने में आप यह थैली रख दीजिए। जब आप आठ - नौ महीने में हज से वापस लौटेंगे तब आपको यह थैली यहीं ऐसे ही पड़ी मिल जायगी।
लिहाजा पठान व्यापारी ने अशर्फियों की थैली ताक में रख दी और वापस लौट आए।
वे अपनी पत्नी के साथ हज करने मक्का-मदीना की तरफ पानी के जहाज से रवाना हुए। उस जमाने में हज में नौ-दस महीने लग जाते थे। रास्ते में बड़ी-बड़ी तकलीफें भुगतनी पड़ती थीं। इसी बीच न जाने कितने ही हज यात्री असमय ही बीमार हो जन्नत पहुँच जाते थे। हज से सकुशल वापसी का कोई भरोसा नहीं था।
खुदा के बन्दे खान साहब अल्लाह को याद करते-करते सकुशल वापस लौटे। अब फिर से सांसारिक दाल-रोटी की फिक्र पड़ी। हज में काफी रकम खर्च हो चुकी थी। हाथ में कुछ न था।
वे सन्त तुकाराम की झोंपड़ी पर रकम लेने पहुँचे। दरवाजा खट-खटाया और उनसे प्रार्थना की, भगत जी नौ - दस महीने पहले मैं एक थैली आपके पास अमानत के तौर पर रख गया था। उसकी जरूरत हैं।
तुकाराम जी ने कहा - मुझे तो याद नहीं पड़ता। भगवान के नाम से ही फुरसत नहीं मिली। जहाँ तुमने अपनी थैली रखी हो, वहीं तलाश कर लो।
पठान युसूफ खान उसी आले की ओर गए। वहाँ धूल-ही-धूल भरी हुई थी और ऐसा प्रतीत होता था जैसे नौ-दस महीने से उसे किसी ने स्पर्श तक न किया हो। खान साहब ने धूल झाड़-पोंछ कर उसे साफ किया और बिना गिने ही अशर्फियों की थैली लेकर अपने घर वापस लौट आए।
घर का दरवाजा बन्द कर उन्होंने रकम को गिना। उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि गिनने के बाद उसमें पाँच अशर्फियाँ कम निकलीं। अब तो खान क्रोध से आग-बबूला हो गया। भाँति - भाँति के भ्रामक विचार उसके मन में उठने लगे। किसने चुराई ये अशर्फियाँ? कहाँ गयी? तुकाराम पर तो मेरी बेगम को बड़ा यकीन था। वे तो बड़े छुपे रुस्तम निकले।
बाहर से कैसे भोले-भाले भक्त लगते हैं। अपने चेलों की संख्या भी खूब बढ़ा-चढ़ा रखी है। कहते हैं हम फकीर है, भगवान के परमभक्त हैं। हमें रुपये - पैसे का लोभ- लालच नहीं है। लानत है ऐसे फकीरों पर, जो दूसरों को धोखा देते हैं। अपनी इन्हीं भावनाओं में बहकर क्रोधावेश में वह उनकी झोंपड़ी के सामने जा पहुँचे। सारे रास्ते भर उन्हें कोसते और गालियाँ देते आए थे।
पहले तो किसी को उसकी बातों पर विश्वास ही नहीं हुआ। लेकिन उसको रोता-पीटता-चिल्लाता देखकर धीरे-धीरे लोगों को सन्देह हो चला कि शायद वह सही ही हो। अचानक बीस-पच्चीस लोग क्रोध में भरे गालियाँ देते हुए झोंपड़ी के सामने पहुँचे। गालियों का गुबार निकलता रहा। विरोधियों को मौका मिला था। उन्होंने जी भर अपने मन का मैल उड़ेला। सन्त तुकाराम शान्तिपूर्वक सब गालियाँ पत्थर पर बरसती बूँदों की तरह सहते रहे।
उन्हें इस तरफ सहते देखकर लोगों का सन्देह विश्वास में बदल गया कि तुकाराम ने जरूर चोरी की है, तभी तो इस तरह सुन रहे हैं अन्यथा कुछ न कुछ प्रतिवाद अवश्य करते। सबने और जी भी गालियाँ दीं। खड़े होकर उन्हें कोसते रहे - भक्ति के नाम पर ढोंग किया है। लोगों की आँखों में धूल झोंकते हैं।
इधर पठान साहब जब घर लौटे तो उनकी पत्नी में उन्हें बड़ा लापरवाह और गैरजिम्मेदार बताते हुए कहा कि आप कमरे में अशर्फियों की थैली-खुली छोड़कर बिना कुछ कहे-सुने कहाँ चले गए? इस पर पठान व्यापारी ने पाँच अशर्फियाँ कम निकलने वाला सारा किस्सा पत्नी को कह सुनाया।
आश्चर्य! वहाँ पर अजीब नजारा छा गया। पत्नी उल्टे अपने पति पर बरस पड़ी -
आप बड़े जल्दबाज हैं। जज़बात में बिना सोचे - विचारे कुछ का कुछ कर बैठते हैं। भावुकता और क्रोध में अन्धे हो जाते हैं। भला मुझसे क्यों नहीं पूछा?
अरे हुआ क्या, साफ - साफ कहो?
सन्त तुकाराम नेक इन्सान और अत्यन्त पाक, खुदा के बन्दे हैं। वे अल्लाह के सच्चे नुमाइन्दे हैं।
तभी पाँच अशर्फियाँ चुराकर उन्होंने अपनी ईमानदारी नष्ट कर ली।
कतई नहीं।
वह कैसे? कुछ साफ करोगी या पहेलियाँ ही बुझाती रहोगी? पत्नी बोली, जब हम हज करने गए थे, तो मैंने पाँच अशर्फियाँ आड़े वक्त के लिए निकाल कर अपने पास रख ली थी और पिचानबे अशर्फियों को ही धरोहर के रूप में सन्त के पास रखा था। उन्होंने थैली में से कुछ नहीं निकाला है। ऐसे पाक इन्सान को बुरा-भला कहकर बड़ा पाप किया है। खुदा इसकी सजा आपको जरूर देगा।
अब क्या करूँ? गलती तो कर बैठा हूँ।
जल्दी जाओ और तुकाराम जी से माफी माँगो। वे सच्चे भक्त हैं। तुम्हें जरूर माफ कर देंगे। पाप को स्वीकार कर भविष्य में वैसा न करने का निश्चय ही प्रायश्चित है।
जब पठान युसूफ खान ने क्षमा याचना की तो सन्त तुकाराम ने उसे हृदय से लगा लिया और हँसते हुए बोले-क्या निन्दा, क्या स्तुति? सब कुछ तो सारे परमप्रिय प्रभु का ही प्रसाद है। सन्त तुकाराम ही इन बातों में उपस्थितजनों को भगवद्गीता के स्थितप्रज्ञ दर्शन की अनुभूति हो रही थी।