डरावनी घटनाएँ पुस्तकों में पढ़ी जाएँ, तो उसका पाठक पर कोई विशेष असर नहीं पड़ता, पर वही घटनाक्रम सामने साकार हो रहे हों, तो मन मस्तिष्क पर इतना गम्भीर प्रभाव पड़ता हैं कि कई बार प्रत्यक्षदर्शियों की मौत तक हो जाती हैं। यह प्रत्यक्ष का प्रभाव हैं। दृश्य - भेद के हिसाब से यह प्रभाव अच्छा भी हो सकता हैं और बुरा भी।
अब इसी सिद्धान्त के आधार पर चलचित्रों द्वारा रोगियों के उपचार का एक अभिनव तरीका ढूँढ़ा गया हैं। इसे ‘मूवी थेरेपी’ कहते हैं। अमेरिका एक योरोप में इन दिनों इसकी धूम मची हुई हैं।
जिस प्रकार अन्य चिकित्सा पद्धतियों की पढ़ाई की सर्वत्र समुचित व्यवस्था हैं, वैसे ही इसकी पढ़ाई के कई केन्द्र विदेशों में स्थापित किये गए हैं। “ग्लासगो का कॉलेज ऑफ होलिस्टिक मेडिसिन” ऐसा ही एक संस्थान है। इसमें रोगी से संबंधित दो मुख्य बातें बतायी जाती है। प्रथम यह कि रोगी किस स्तर का बीमार है? इसकी पहचान करना तथा दूसरा, उसे कैसी और कितनी गंभीर फिल्में दिखाई जाएँ जो उसके मनः संस्थान पर अनुकूल प्रभाव डाल सके। रंग यदि गहरा हो, तो हलके रंग उसी में घुल-मिल जाते है, मूल वर्ण पर उससे शायद ही कोई अन्तर पड़ता हो। ऐसे ही मरीज यदि लम्बे समय से बीमार चल रहा हो, तो हलकी-फुलकी स्तर की मनोवैज्ञानिक फिल्में उसके मन की गहराई तक नहीं उतर पातीं और एक प्रकार से निष्प्रभावी सिद्ध होती है। इसलिए इस प्रणाली में उपर्युक्त फिल्म का सटीक निर्णय सर्वोपरि है। इसी पर रोगी की स्वस्थता अस्वस्थता टिकी होती है।
मूर्धन्य मनः चिकित्सक डॉ. गैरीसोलेमन ने मूवी-थेरेपी पर पिछले दिनों एक पुस्तक लिखी है, नाम है-ए मोशन पिक्चर प्रिसक्रिप्शन’। इस पुस्तक में लेखक ने करीब २.. फिल्मों को सूचीबद्ध किया है और विस्तारपूर्वक यह बताया है कि किस किस्म के मरीज को इनमें से कौन-सी फिल्म देखने की सलाह दी जाए। डॉ. सोलोमन अपने ८. प्रतिशत मरीजों का इलाज फिल्मों के द्वारा ही करते है। उनका मत है कि उक्त फिल्मों का सर्वाधिक चिकित्सकीय असर तभी होगा, जब व्यक्ति अकेले में निश्चय होकर उसे देखे। चंचल मनः स्थिति एवं सिनेमा हॉलों में उसका प्रभाव नगण्य होता है। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि भीड़-भाड़ की दशा में रोगी अपने ध्यान को फिल्म पर पूरी तरह केन्द्रित नहीं कर पाते। इस प्रकार एकाग्रता के अभाव में उसकी प्रभावोत्पादकता निष्फल हो जाती है।
दृश्यों का मन पर पड़ने वाले प्रभावों से इंकार नहीं किया जा सकता। विश्वयुद्धों में भी इसके मनोवैज्ञानिक असर से काफी लाभ उठाया गया। कहते है कि प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के ताबड़तोड़ हमलों के आगे ब्रिटेन एकदम असहाय अनुभव कर रहा था। सम्पूर्ण राष्ट्र निराश हो चुका था, ब्रिटेन की पराजय सुनिश्चित थी, तभी वहाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री विन्सेण्ट चर्चिल ने एक नारा दिया-वी फॉर विक्ट्री। इस नारे को दृश्य-श्रव्य माध्यमों से खूब प्रचारित किया गया, जिसका जादुई असर तत्काल सामने आया। उसने सम्पूर्ण राष्ट्र के मनोबल और विश्वास को इस कदर बढ़ाया कि एक बार फिर वह तनकर खड़ा हो गया और सम्भावित हार जीत में बदल गईं
पिछले दिनों जापान में एक कार्टून फिल्म शो को देखकर ६.. बच्चे बीमार पड़ गए। इन सभी बच्चों को फिल्म देखने के बाद उलटी और मिर्गी के दौरे पड़ने लगें। हुआ यों कि लोकप्रिय कार्टून फिल्म ‘पाकेट मोन्स्टर’ के एक एपिसोड में एक बालक और एक कम्प्यूटर राक्षस को लड़ते हुए दिखाया गया था। दृश्य का अन्त श्वेत, लाल और नीले रंग की मिश्रित रोशनियों की चमक के साथ हुआ। यद्यपि हर रंग का विस्फोट लगभग एक सेकेण्ड का था, किन्तु लड़ाई का पूरा दृश्य करीब २. मिनट तक चला। इसके बाद ही बच्चे बीमार पड़ गए।
इसके कारणों की खो करने वाले विश्लेषणकर्ता मनःचिकित्सकों का कहना था कि दर्शकों की उम्र की दृष्टि से दृश्य इतना भयावह था कि बालकों का कोमल मन उसको सहजता से न ले सका और वे बीमार पड़ गए।
कहा जाता है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन की ‘बेरुत बंधक कांड’ से निपटने को लेकर जब काफी आलोचना हुई, तो उन्होंने रैम्बो - फर्स्ट ब्लड पार्ट - ११ नामक एक ऐसी फिल्म देखी, जिसने उनके ध्वस्त मनोबल को फिर से दुरुस्त कर दिया, वे आत्मविश्वास से भर उठे। बंधकों की रिहाई के बाद उनने देश के नाम संदेश में कहा - “अब मुझे पता चल गया है कि इस प्रकार के संकट के समय क्या करना चाहिए।”
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि किसी दृश्य का दर्शक पर कितना और कैसा असर पड़ेगा - यह दृश्य और दर्शक की मनःस्थिति पर निर्भर करता है। यदि व्यक्ति वयस्क हो, शरीर से खूब हट्टा - कट्टा हो, किन्तु भावुक एवं डरपोक प्रकृति वाला हो, तो हलके - हलके दृश्य भी उसके मन-मस्तिष्क को झकझोर कर रख देंगे। इसके विपरीत आयु भले ही कम हों। लेकिन मन चट्टान की तरह मजबूत हो, तो दृश्य का उस पर नगण्य जितना ही असर पड़ेगा।
‘मूवी थेरेपी’ यद्यपि सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में सुस्थापित अभी नहीं की जा सकती, फिर भी एक संभावना बताती है कि मानवी मस्तिष्क को प्रभावी व रचनात्मक घटनाक्रमों से आदर्शों व दृढ़ संकल्पों की ओर भी मोड़ा जा सकता है। आज के साँस्कृतिक प्रदूषण से भरे युग में ऐसे चलचित्रों की सर्वाधिक आवश्यकता है।