संयोगों ने की आश्चर्यजनक आविष्कारों की सृष्टि

September 1998

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संयोग एक अद्भुत शब्द है, जिसमें विलक्षण भाव छुपे हुए हैं। जीवन में ऐसे संयोग अकस्मात् एवं अनायास आ जाते हैं कि उनके प्रभाव से समूची दिशाधारा ही बदल जाती है, परिस्थितियों में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है। कई बार संयोग कुछ इस तरह आ खड़े होते हैं कि उनकी परिणति आश्चर्यजनक एवं अद्भुत आविष्कार के रूप में होती है। विज्ञान जगत में भी ऐसे अनेकों घटनाक्रम सामने आए हैं जब संयोगों ने अद्भुत सृष्टि की है। वैज्ञानिकों का संसार आज अपने जिन आविष्कारों पर गर्व से फूला नहीं समाता, उनमें से अनेकों ऐसे हैं, जो सतत् किए जाने वाले शोध-अनुसंधान की देन न होकर संयोग का उपहार है।

पेनीसिलीन के जन्म की कहानी कुछ ऐसी ही है। फ्लेमिंग १९२८ में किसी विशेष अनुसंधान के लिए स्टेफिलोकोकाई नाम के जीवाणुओं की बस्तियाँ ऐसी तश्तरियों में बना रहे थे, जिनमें पोषक ऐगार नाम का जिलेटिन जैसा एक पदार्थ था। सामान्यतया ये तश्तरियाँ ढ़की रहती थीं। एक दिन प्रयोगशाला की खिड़कियाँ खुली रह गयीं, साथ ही एक तश्तरी का ढक्कन भी खुला रह गया। धूल के साथ वनस्पति प्रकृति का एक कण उड़कर इसके भीतर आ गया। कुछ दिनों के बाद फ्लेमिंग ने देखा कि एक तश्तरी में नीला-हरा फफूँद उग रहा है। सामान्यतया फफूँद लगे पदार्थ को खराब मानकर फेंक दिया जाता है। परन्तु फ्लेमिंग ने किसी कारणवश ऐसा नहीं किया। संयोग से उन्हें इस पर कुछ अधिक जानने का विचार मन में आया। वे यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि फफूँद के चारों ओर का क्षेत्र स्वच्छ था और स्टेफिलोकोकाई बस्तियों की तरह पीला नहीं था। फफूँद का कोई विशेष गुण जीवाणुओं को विघटित करता जा रहा था और फफूँद के चारों ओर काफी दूर तक स्टेफिलोकोकाई की बस्तियाँ नष्ट हो रही थीं। उक्त फफूँद- फफूँदों के पेनी-सिलियम के परिवार की थी। यह फफूँद रस ही पेनीसिलीन का आविष्कार था, जिसके गुण व चमत्कारिक रोग-निवारक क्षमता से प्रायः सभी परिचित हैं।

एक्स-रे किरणों का आविष्कार भी एक संयोग के अंतर्गत हुआ। राण्टजन क्रूक्स नली के साथ प्रयोग कर रहे थे। क्रूक्स नली के दोनों सिरों पर दो धातु की पट्टिकाएँ एक ऋणाग्र और दूसरी धनाग्र लगी होती है, जिसका संबंध एक विद्युत परिपथ से होता है। इसमें विद्युत प्रवाहित करने पर नली में विभिन्न प्रकार की दीप्तियाँ भर जाती थीं। चूँकि दीप्तियाँ ऋणाग्र से आती प्रतीत होती थीं इसलिए उन्हें कैथोड किरणें कहा जाता था।

एक महत्वपूर्ण प्रयोग में रान्टजन ने नली पर काला गत्ता लपेट दिया, ताकि किरणें बगल से निकल न सकें। फिर उन्होंने प्रयोगशाला की बत्तियों को बुझाया और गत्ते के आवरण की जाँच के लिए विद्युत को प्रवाहित किया। ऋणाग्र किरणें एक अंश से दूर नहीं जा सकती थीं, अतः किसी किरण के दिखने की आशा रान्टजन को नहीं थी। लेकिन वे आश्चर्य से भर गए जब उन्होंने यह देखा कि नली से लगभग एक गज की दूरी पर स्थित उनकी मेज पर हरे रंग की तरंगें झिलमिला रही हैं। रान्टजन ने पर्दे को दीप्त करने वाली चीज के बारे में अधिक जानकारी के लिए कार्य प्रारम्भ किया। पर्दे और नली के बीच उन्होंने भिन्न-भिन्न पदार्थ रखे। लकड़ी और एल्युमिनियम से चमक कुछ धीमी पड़ गयी, परन्तु सीसे के टुकड़े ने चमक बिलकुल बन्द कर दी। एक दिन उन्होंने अनायास ही अपने हाथ को नली और प्रदीप्त पर्दे के बीच रख दिया। उन्हें पर्दे पर विचित्र छाया दिखी। ध्यान से देखने पर हाथ का नमूना उभरा। जिस किरण का आविष्कार हुआ था, वह हड्डियों एवं माँस की क्रमशः गहरी व हल्की छाया डाल रही थी। उन्होंने संयोग से हुए इस आविष्कार का नाम एक्स-किरणें रखा।

इसी तरह वस्त्र उद्योग में क्रान्ति लाने वाले कृत्रिम रंग की खोज भी अनायास संयोग से ही हुई। १८५६ से पहले वस्त्रों की रँगाई में पौधों और अन्य प्राकृतिक पदार्थों से प्राप्त रंगों को प्रयोग में लाया जाता था। उन दिनों ब्रिटेन के रॉयल कॉलेज और केमिस्ट्री का १८ वर्षीय छात्र विलियम हेनरी वर्किन कोलतार से सिंथेटिक कुनैन बनाने की दिशा में प्रयोगरत था। इस प्रयोग के तहत उसे गाढ़े रंग का पदार्थ प्राप्त हुआ। कुनैन तो एक रंगहीन, रवेदार पदार्थ होता है, फिर यह कौन-सा अजीबो-गरीब रसायन उसे प्राप्त हो गया? वर्किन हैरान था। अनायास ही उसे इसके कपड़ों का अद्भुत तीव्रता से रँगने के प्रधान गुण का पता चला और इस गाढ़े रंग के पदार्थ से उसने बैंगनी रंग के रवे बनाने में सफलता प्राप्त की। यही ‘एनिलीन पर्पल’ नाम का प्रथम रासायनिक रंग था, जिससे कि वस्त्रों की रँगाई शुरू हुई।

डी. डी. टी. की खोज आस्ट्रियन रसायनशास्त्री आयेमा जैडलर द्वारा १९७४ में अनायास हुई थी। लेकिन उस समय इसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि इसका विशेष उपयोग समझ में नहीं आ रहा था। इसके कीटनाशक गुणों पर संयोग से स्विट्जरलैंड के वैज्ञानिक पाल मूलर का ध्यान गया। इसके बाद तो कुछ ही वर्षों में डाईक्लोरो फिनाइल ट्राईक्लोरो ईथेन (डी. डी. टी.) विश्व की सर्वाधिक प्रचलित कीटाणुनाशक दवा बन गयी।

ड्राईक्लीनिंग की खोज की कहानी भी एक संयोग से जुड़ी हुई है। पेरिस के जीन वेप्टिस जॉली द्वारा जल्दबाजी में कैम्फीन नाम का ईंधन कपड़े में गिर गया। इसे भय था कि वस्त्र बर्बाद हो जाएगा। लेकिन वह देखकर हैरान था कि कपड़ा एकदम साफ हो गया था। बाद में १८५५ में जॉली ने विश्व की प्रथम ड्राईक्लीनिंग कम्पनी की स्थापना की।

विद्युत करेंट की खोज भी एक ऐसी ही घटना का परिणाम है। इटली के वैज्ञानिक लूगी गाल्वनी १८ वीं सदी में अपनी वोलोग्वा स्थित प्रयोगशाला में शोधकार्य कर रहे थे। जब उन्होंने संयोग से एक स्टील की छुरी से एक मेढ़क के पैर को छुआ, जो एक जस्ते की प्लेट पर बैठा था, तो मेढक के पैर ने झटका मारा। गाल्वनी ने सोचा कि उसने पशु विद्युत खोज ली है। परन्तु बाद में देश के अन्य वैज्ञानिक काउन्ट वोल्टा ने सिद्ध किया कि विद्युत का उत्पादन दो धातुओं से हो रहा था और यहीं से बैटरी के सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ।

सन् १७९६ में जॉन नेपामक ने माँ के धुलाई घर की सूची को एक मोम की पेंसिल से एक चुने के पत्थर पर उतार दिया। संयोग से इस पर पानी गिर गया, परन्तु आश्चर्य यह हुआ कि मोम वाला भाग गीला नहीं हुआ। इस पर उसे बोध हुआ कि इसी सिद्धान्त के आधार पर स्याही को कागज या कपड़े पर चयनात्मक रीति से स्थानान्तरित किया जा सकता है। यही प्रक्रिया विकसित होकर लिथोग्राफिक प्रिंटिंग में बदल गयी। प्रिंटिंग इतिहास में यह एक बड़ी घटना थी।

ट्रकों और भारी वाहनों में लगने वाले टायर का आविष्कार भी चार्ल्स गुड ईयर द्वारा यूँ ही संयोगवश ही हुआ था। गुड ईयर बहुत सालों से टायर के लिए प्रयुक्त होने वाली रबड़ की खोज की दिशा में प्रयत्नशील थे। लेकिन उन्हें बार-बार असफलता मिल रही थी। अन्ततः कई वर्षों के अथक श्रम के बाद रबड़ बनाने में सफलता तो मिली, किन्तु यह बहुत ही निम्न कोटी की रबड़ थी, इसमें कई कमियाँ थीं, गर्मी में यह गलकर नरम और चिपचिपा हो जाता था और सर्दी में सख्त एवं भंगुर। रबड़ की इन कमियों को दूर करने के लिए गुड ईयर दिन-रात एक कर रहा था।

१८३९ की एक रात को गुड ईयर ने रबड़ के घोल को गन्धक के साथ मिलाया। थके और उनींदे होने के कारण जल्दी में ही थोड़ी देर पहले बुझाए स्टोव के ऊपर रबड़ और गन्धक के मिश्रण को रखकर वह अपने घर सोने चला गया। प्रातः प्रयोगशाला में आकर जब उसने मिश्रण को देखा तो उसके पाँवों के नीचे धरती खिसक गयी। मिश्रण ने एक ठोस पिण्ड का रूप धारण कर लिया था। गुड ईयर को इससे बहुत सदमा पहुँचा। अपनी सारी मेहनत पर उसे पानी फिरता नजर आ रहा था। हताशा और क्रोध में भरकर उसने उस पिण्ड को उठाकर जमीन पर दे पटका। लेकिन यह क्या? पिण्ड जमीन से टकराकर ऊपर को उछला। खुशी के मारे गुड ईयर ने वहीं फर्श पर नाचना-कूदना शुरू कर दिया। उसके इतने वर्षों की मेहनत रंग लायी थी, क्योंकि उक्त पिण्ड टायरों में लगने वाला उन्नत किस्म के रबड़ में बदल चुका था।

ऐसी ही एक घटना १९१९ की है। डेनमार्क के प्रख्यात भौतिक विज्ञानी एच. सी. ओरस्टेड अपनी भौतिकी की कक्षा में छात्रों को विद्युतधारा सम्बन्धी कुछ प्रयोग करके दिखा रहे थे। धातु की एक तार में ओरस्टेड ने विद्युतधारा प्रवाहित की। कुछ दूरी पर ही प्रयोगशाला की मेज पर एक दिशासूचक यंत्र पड़ा था। धारा के तार में बहते ही कम्पास की सुई अचानक हिल उठी और इसके साथ ही ओरस्टेड के मस्तिष्कीय तन्तु भी झनझना उठे। संयोग से घटी इस घटना के साथ ही ओरस्टेड के मस्तिष्क में एक वैज्ञानिक सिद्धान्त का जन्म हुआ। धारा के चुम्बकीय प्रभाव के इस सिद्धान्त का भौतिक विज्ञान में बहुत महत्व है।

इसी तरह माइकल फैराडे भी कुछ प्रयोग कर रहे थे। ओरस्टेड विद्युत धारा प्रवाहित कर चुम्बकत्व का निर्माण करने में सफल हो चुके थे। लेकिन फैराडे इसके विपरीत चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा विद्युतधारा के निर्माण की सम्भावना को लेकर प्रयोग कर रहे थे। एक खोखले विद्युत कुचालक से बने बेलन के चारों ओर फैराडे ने एक गैल्वेनोमीटर को जोड़ा। फिर एक छड़ चुम्बक को परिपथ से कुछ दूरी पर रखकर फैराडे यह देखने का प्रयास करने लगे कि गैल्वेनोमीटर की सुई में कोई हलचल होती है या नहीं। मगर फैराडे को निराशा ही हाथ लगी। खीज़ से भरकर फैराडे ने चुम्बक को बेलन की तरफ जोर से उछाल दिया और तभी चमत्कार हो गया। गैल्वेनोमीटर की सुई अचानक हरकत कर उठी। इसी तरह विद्युत चुम्बकीय प्रेषण के सिद्धान्त की खोज हुई।

ट्रांसफर प्रिंटिंग की खोज भी कुछ इसी भाँति हुई है। लीवरपूल का नक्काश जॉन सेडलर खराब नक्काशियों को उसी अवस्था में अपने बच्चों को दे देता, जबकि कागज स्याही से अभी गीला ही होता था। बच्चे इस छाप को कागज से टूटे हुए मिट्टी के बर्तनों में हस्तांतरित कर मनबहलाव करते थे। संयोग से सेडलर की नजर बच्चों के इस काम पर गयी और उसने बहुत सारे प्रयोग किए। अन्ततः प्रिंटिंग को मिट्टी के बर्तनों में स्थानान्तरण की तकनीक को पूर्णता तक अंजाम दिया, जिसने मिट्टी के बर्तनों के डिजाइन में क्रान्ति ला दी।

फास्फोरस की खोज भी एक संयोगवश ही हुई। उन दिनों किमीयागर वास्तव में पारस पत्थर की खोज में थे, जिसके स्पर्श मात्र से ही लोहा सोना बन जाय। जर्मनी का एक व्यापारी हैंनिंगब्रॉड एक ऐसी चमत्कारी वस्तु की खोज में था, जो उसे रातोंरात अमीर बना दे। कई रसायनों को मिलाकर तरह-तरह के घोल उसने बनाए। इन्हीं प्रयोगों के तहत अनायास ही उसे एक बर्फ की तरह सफेद पदार्थ बनाने में सफलता मिली, जो तेजी से जलने वाला था और अंधेरे में चमकता था। यही फास्फोरस था।

अलबर्टहॉफमैन रसायनशास्त्र के क्षेत्र का एक जाना-पहचाना नाम है। संयोगवश हुए एक आविष्कार से ही स्वीडन के इस रसायनविद् को इतनी प्रसिद्धि मिली। १९३३ की गर्मियों का दिन था। हॉफमैन अपनी प्रयोगशाला में शोधकार्य में व्यस्त थे। एक तो भयंकर गर्मी और ऊपर से घोर परिश्रम। उसके माथे एवं चेहरे पर पसीना छलछला रहा था। जल्दी में हाथ से ही वह पसीने को बीच-बीच में पोंछ लेता। ऐसे में अनजाने में ही जिस रसायन के साथ हॉफमैन प्रयोगरत था, उसके कुछ रवे उसके होठों से चिपक गए। थकावट से चूर हॉफमैन थोड़ा विश्राम करने के लिए प्रयोगशाला में ही लगे अपने बिस्तर पर जा लेटे। लेटते ही उन्हें गहरी नींद आ गयी। नींद में अद्भुत एवं रंगीन किस्म के सपने कल्पना की दुनिया में हॉफमैन को सैर करा रहे थे। यह एल. एल. डी. का आविष्कार था। जो अत्यधिक नशीला पदार्थ होने के कारण कई जीवनरक्षक अमूल्य औषधियों में भी प्रयोग किया जाता है।

कई बार अनुसंधान-कार्य में अत्यधिक व्यस्त होने के कारण वैज्ञानिक लोग हाथ तक धोना भूल जाते हैं। ऐसा ही एक संयोग एक आविष्कार का कारण बना। फालबर्ग नाम का एक युवा रसायनविज्ञानी जॉन हॉकिन्स विश्वविद्यालय में कोलतार से निकले टॉलुइन नामक कार्बनिक यौगिक पर परीक्षण कर रहा था। लेकिन बार-बार प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता नहीं मिल पा रही थी। एक दिन प्रयोग करते-करते थकान और निराशा में भरकर वह प्रयोगशाला छोड़कर घर लौट आया। उसने अपनी पत्नी को खाना लाने के लिए कहा। पत्नी खाना लाई तो भूख से व्याकुल फालबर्ग ने बिना हाथ धोए ही खाना शुरू कर दिया। लेकिन यह क्या? फालबर्ग जिस भी चीज को मुँह में डालता, वही असाधारण रूप से मीठी लगती। उसे वैसे ही मीठी चीजों से चिढ़ थी। वह अपनी पत्नी पर बहुत नाराज हुआ। लेकिन उसकी पत्नी ने कसम खाकर कहा कि उसने भोजन में मीठा बिलकुल नहीं डाला। फालबर्ग सोच में पड़ गया। अचानक कोई विचार आने पर उसने अपनी उँगली चाटकर देखी। उँगली में उसे वही असाधारण मीठा स्वाद लगा। कुछ सोचकर वह उसी क्षण उल्टे पाँव प्रयोगशाला की ओर दौड़ा। प्रयोगशाला में रखे सभी रासायनिक पदार्थों का उसने बारी-बारी से निरीक्षण किया और अंत में उसे चीनी से भी ज्यादा मिठास का स्वाद उसे मिला। यही सैकरीन था, जो संयोग से फालबर्ग की खोज का विषय था।

नाइट्रोसैलुलोज नामक विस्फोटक पदार्थ की खोज भी एक संयोग के गर्म से ही हुई। घटना १९४५ की है। जर्मनी का रसायनविद् सी. एफ. सनवेइन अम्लों के साथ विभिन्न परीक्षण कर रहा था। अधिकांश समय सनवेइन घर पर ही काम करता था। उसकी पत्नी इस आदत से परेशान थी, क्योंकि वह उसकी रसोई को भी नहीं बख्शता था। वक्त-बेवक्त वहाँ भी घुसकर अपने प्रयोग शुरू कर देता। इस पर मजबूर होकर पत्नी ने सनवेइन के रसोई में घुसने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। लेकिन आदत से मजबूर सनवेइन मानने वाला कहाँ था। पत्नी के हाट-बाज़ार जाने पर मौका तलाश कर रसोई में घुस ही जाता।

एक दिन इसी तरह अपनी पत्नी की अनुपस्थिति में रसोईघर में घुसकर वह अपने प्रयोग-परीक्षण कर रहा था। काम के जल्दी-जल्दी निपटाने की हड़बड़ाहट में रसोई के खूँटे से टँगे पत्नी के गाउन के ऊपर रसायन की कुछ बूँदें जा गिरीं। यह देखकर सनवेइन घबरा गया व पास में ही जल रहे स्टोव की आँच में गाउन सुखाने लगा। गाउन तो खैर सूख गया, लेकिन उसके साथ-साथ गाउन के उस हिस्से का नामोनिशान मिट गया, जिस पर रसायन गिरा था। यह उसकी वैज्ञानिक बुद्धि के लिए सोच का विषय था। विचार करने पर उसके मस्तिष्क में वह रासायनिक क्रिया स्पष्ट हो गयी, जिसके तहत इस गाउन का हिस्सा गायब हो गया था। गाउन के सेलुलोज के साथ इस रासायनिक द्रव्य (नाइट्रिक एसिड) ने क्रिया कर नाइट्रोज सेलुलोज नामक एक विस्फोटक पदार्थ को जन्म दिया था। उस समय तक गनपाउडर नामक विस्फोटक का ही उपयोग किया जाता है। इसके बाद नाइट्रोसेलुलोज को एक विस्फोटक के रूप में उपयोग किया जाने लगा।

च्विंगम की खोज भी ऐसे ही संयोग से जुड़ी है। १९७. के पूर्वार्ध में अमेरिका का थामस व उसका स्कूली छात्र होरेतियो मेक्सिकन जंगल के चिकलवृक्ष के सूखे रस पर प्रयोग कर रहे थे, उद्देश्य था रबड़ का निर्माण। किन्तु जब वे दीर्घकालीन प्रयास के बाद भी असफल रहे तो एक दिन थके-हारे आलस में चिकल के टुकड़े को चबाने लगे। चबाते-चबाते वे इसके अद्भुत गुण से परिचित हुए। शीघ्र ही उन्होंने इससे चबाए जाने वाले च्विंगम का निर्माण किया। पहले अमेरिका में कई तरह के वृक्षों की गोंद व सुगंधित पैरािन मोम का उपयोग होता था। किन्तु २. वीं सदी के मध्य से चिकल गम ने इनका स्थान ले लिया।

संयोगवश हुई खोज का ही एक और उदाहरण है नॉनस्टिक कुकवेयर। इन बर्तनों में पकाने पर चीज उनके पेंदे से नहीं चिपकती। अमेरिकी कम्पनी ‘ह्यूपॉट से जुड़े रसायनज्ञ फ्लोरोकार्बन गैसों पर प्रयोग कर रहे थे। एक प्रयोग के दौरान प्लेंकेट को एक बेलननुमा उपकरण, जिसके अन्दर टेट्राफ्लोरो इथाइलीन गैस रखी थी उसमें एक मोम जैसे पदार्थ पाॅलीटेट्राफ्लोरो इथाइल निकला, यह टेपलाॅन नाम से जाना गया। जिसे न-चिपकने वाले बर्तनों को बनाने में प्रयुक्त किया जाता है।

संयोगों द्वारा की गयी आविष्कारों की अद्भुत सृष्टि की कथा रोचक होने के साथ यह भी बताती है कि संयोग का उपयोग भी वे कर पाते हैं, जिनके मन-मस्तिष्क जाग्रत होते हैं, जिनका पुरुषार्थ सक्रिय रहता है। अपने जीवन काल में यदि हम सतत्-सक्रिय सचेष्ट व जाग्रत रह सके, तो कोई-न-कोई संयोग आकर अवश्य ही हमारे अपने जीवन में भी अकल्पनीय उपलब्धि की सृष्टि कर सकता है।


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