आखिरी अरदास

September 1998

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गुरु गोविन्द सिंह जंगल में एक ऊँचे टीले पर बैठे थे। तभी जत्थेदार महासिंह ने आकर कहा - गुरुजी! पर गुरुजी तो जैसे आत्मलीन थे। उनकी दृष्टि किसी गहन विचारबिन्दु पर स्थिर हो रही थी। महासिंह के आगमन का आभास भी नहीं हो पाया उन्हें।

लेकिन महासिंह ने ससम्मान फिर से पुकारा गुरु जी!

गुरुजी ने एकबारगी चौंककर कहा - आओ महासिंह!

बोलो महासिंह! संकोच किसलिए? गुरुजी का स्वर शान्त होने के बावजूद उसमें छलकती वेदना मुखर थी। शायद उन्होंने महासिंह के मन का मर्म पा लिया था और उसके कारण वे दुर्निवार वेदना से आकुल हो उठे थे।

सामने खड़ा महासिंह गुरुजी के दृष्टितेज को सहन नहीं कर पाया। उसका मस्तक झुक गया। तभी गुरुजी ने धीमे स्वर में कहना शुरू किया - महासिंह ये दुःख हम लोगों ने स्वयं ही तो आमंत्रित किया है। क्या यह हमें विचलित कर देगा? खालसा, मेरा शिष्य दुःख विपदा से डिगेगा नहीं।

लेकिन गुरुजी! अब हम रह ही कितने गए हैं? एक-एक कर सभी तो चले गए छोड़कर। इसी से विचार आता है कि क्यों न शत्रु से सुलह कर लें? अच्छे दिन आने पर कभी फिर लड़ सकेंगे .....। महासिंह हिम्मत बाँधकर कहता गया।

महासिंह! यह तुम कर रहे हो। विपदा से विचलित हो रहे हो? कल दुनिया हमें क्या कहेगी। सुलह का विचार घातक है। विपत्ति की झंझा में हमें बढ़ना होगा। महासिंह! हमारा ध्येय हमारे सामने है और यह शुक्रतारे की तरह प्रकाशमान है।

लेकिन गुरुजी! हम शेष चालीस लोग अब शत्रु का कर ही क्या सकते हैं? इसलिए सुलह का विचार ही पक्का होता जाता है ................. औरों ने भी आखिरी तौर से तय करके मुझे भेजा है ................. और कहा है कि मैं आपसे अर्ज़ करूँ कि अब दुश्मन से सुलह कर ही लें, ताकि आगे हमें संगठित और सशक्त होने का मौका मिल सके।

महासिंह! इसमें फिर से संगठित होने की बात तो महज बहाना है - सच यह है कि संकटों से भागने की भावना ही इस विचार का आधार बन बैठी है। माना कि आज सिर्फ मैं हूँ और तुम चालीस भी साथ हो। इस स्थिति में तो यह विश्वास करके चलना होगा कि हमारा एक-एक खालसा सवालाख शत्रु सेना से युद्ध करेगा। पलायन का रास्ता नहीं पकड़ेगा।

गुरुजी! अब मेरे कहने का कोई असर उन सभी पर नहीं होने का।

गुरुजी गम्भीर हो गए। एक क्षण मौन रहकर बोले -

ठीक है महासिंह! जाओ हमारी तरफ से तुम्हें छूट है, लेकिन तुम और तुम्हारे उनतालीस साथी आज से अब स्वयं को शिष्य (सिख) नहीं कहेंगे।

महासिंह अपनी सैनिक टुकड़ी का जत्थेदार था। उसने अपने सहित चालीस खालसाओं का बेदावा लिखकर गुरुजी को दे दिया। चलते समय अभिवादन के लिए जब महासिंह ने गुरुजी की तरफ देखा तो उसकी आँखें भर आयी। उनकी गम्भीर मुद्रा बरबस अपनी तरफ महासिंह का हृदय खींचने लगी। महासिंह ने उधर बिना देखे ही अभिवादन किया, साथ ही उसके साथियों ने भी। और वे सब चलने लगे।

उस दिन मकर संक्रान्ति का पर्व था। माई मागों को जब इसकी सूचना मिली तो वे बेचैन हो उठीं। उन्हें याद आया कि आज की ही तरफ जब एक बार गुरुजी माछीपाड़ा के जंगल में जमीन पर एकाकी बैठे थे। कोई संगी-साथी वहाँ मौजूद न था। चारों बच्चे शहीद हो चुके थे। सेना छिन्न-विच्छिन्न हो गयी थी, तो गुरुजी ने किसी को उलाहना, उपालम्भ नहीं दिया था। उस दिन पूरे मन से उन्होंने अपने मित्र को पुकारा था। उस अदृष्ट मित्र को, जो घट-घट का वासी है।

उस वक्त घोर विपिन में इक्का दुक्का जंगली हिंस्र पशु भी गुरुजी के इर्द-गिर्द घूम रहे थे। गुरुजी पवन को सम्बोधित कर कह उठे थे - मित्र प्यारे नूँ हाल मुरीदा दाँ कैना ........।

अर्थात् हे पवन! तेरी गति सर्वत्र है। अतः मेरे उस महामित्र से, परमसखा से, प्रभु से उसके शिष्यों का सब समाचार कह देना....।

सोचते-सोचते माई माँगों अचानक किसी प्रबल शक्ति से प्रेरित हो उठ खड़ी हुई। कमर से रोज की तरह अपनी पैनी लघु खड्ग बाँधी और हाथ में दीर्घ यष्टिका लेकर बाहर चल दीं।

माई मागों तेज चाल से महासिंह के घर पहुँची। वह उस वक्त स्त्री बच्चे के बीच निश्चिन्त बैठा था - मानों अब उसे कुछ करना नहीं है। माई मागों एक क्षण उसे तीव्र आँखों से खड़ी घूरती रहीं। महासिंह उनकी इस दृष्टि से घबरा गया। पास आकर ‘मत्था टेका’ कहा और आदर अभिव्यक्ति में व्यस्त हो उठा। माई मागों फिर भी मौन रहीं।

माई का क्या हुक्म है? महासिंह पूछ रहा था।

माई मागों असीम उत्तेजना से चीत्कार कर उठीं - महासिंह! ओए जत्थेदार। तुसी .....तुसी, चूड़ियाँ पालो और कर (घर) बैठ। असी लड़ागियाँ .........। (अरे ओ जत्थेदार! तू चूड़ियाँ पहन ले और घर बैठ।) मैं लड़ने जाती हूँ। माई की मुखमुद्रा पर कुछ ऐसा तेज आ विराजा कि महासिंह हतबुद्धि अवाक् टुकुर-टुकुर खड़ा देखता रहा-फिर वह भी उत्तेजित हो उठा। उसे लगा कि कोई कह रहा है - महासिंह! जल्दी चल। गुरुजी पर मुसीबत आने वाली हैं। घर से निकल महासिंह, शस्त्र लेकर, साथी लेकर दौड़ चल उस दिशा में, जहाँ गुरुजी अकेले, बिना साथी-सहायक के घोर विपदा के बीच अडिग खड़े हैं .......।

इसी बीच महासिंह के कानों में माई मागों के शब्द पड़ें - महासिंह! तुम ने गुरुजी से दीक्षा ली। गुरुदीक्षा का यही अर्थ है - गुरु के काम के लिए मर मिटना। स्वयं को गुरु पर न्योछावर कर देना। अपने सर्वस्व को गुरु के चरणों पर बलिदान कर देना।

महासिंह की आँखों के समाने गुरुदीक्षा का दृश्य घूम रहा था। शर्मिन्दा होते हुए उसने कहा - नहीं माई! महासिंह कायर नहीं है - मैं भी चलता हूँ। और सच ही महासिंह अपनी लम्बी खड्ग, सुतीक्ष्ण भाला होकर - शिरस्त्राण तथा सैनिक परिवेश पहन कर फुर्ती से तैयार हो गया - बल्कि उसकी स्त्री ने, बहिन ने, माता ने इस तैयारी में दौड़ - दौड़ कर मदद की।

मकर संक्रान्ति की संध्या। खरदाना के ऊँचे टीले पर अकेले मोर्चेबन्दी करके गुरु गोविन्दसिंह शत्रुओं पर बाण वर्षा कर रहे थे। एक तरफ वे अकेले - दूसरी तरफ सैकड़ों मुगल सैनिक। मुगलों के तीर आ-आकर टीले की छाती में बेध रहे थे। और यह ऊँचा टीला मानों गुरुजी की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध था। किन्तु यह भी आशंका कम न थी कि थोड़ी ही देर में शत्रु सैनिक टीले को घेर लेंगे। अभी तक शत्रुओं को शायद ठीक से पता नहीं चल पाया था कि कितने सैनिक टीले पर मोर्चा बाँधे हुए हैं।

सहसा अघटन-घटना घटी इसी के अनुसार एक दूसरा ही दृश्य उपस्थित हो गया। टीले की ओर बढ़ रहे शत्रु-दल पर पीछे से किसी अन्य दल ने सवेग धावा कर दिया और गुरुजी ने आश्चर्यचकित होते हुए देखा कि दल प्राणों का भय त्यागकर विद्युत वेग से लड़ रहा है। तालाब तट पर एक-एक सैनिक अनेक शत्रुओं का संहार कर रहा है।

कौन हैं ये लोग? गुरुजी अनुमान नहीं लगा सके। कुछ तो टीले की ऊँचाई - कुछ पेड़ों का झुरमुट और दूरी भी थी। आगत दल के चेहरे स्पष्ट नहीं दिखाई दे रहे थे।

गुरुजी ने सरोवर की तरफ थोड़ा बढ़कर देखा, युद्ध खत्म हो गया था। शत्रुदल का संहार कर वह आगत अज्ञात टुकड़ी भी शहीद हो गयी, लेकिन उसके शहीद होते - होते शत्रु-दल भी भाग खड़ा हुआ।

सरोवर की जलराशि से छूता हुआ एक उच्छिन्न मस्तक पड़ा था। गुरुजी ने वह कटा हुआ सिर उठा ला। सिर रक्त और धूल से सन गया था। गुरुजी ने सरोवरजल से उसे स्वच्छ किया। वह चेहरा साफ-साफ दिखाई देने लगा। उन्हें एक साथ आश्चर्य, दुःख एवं आनन्द की अनुभूति हो आयी। यह सिर उन्हीं चालीस शिष्यों में से एक का था, जो बेदावा लिखकर दे गए थे।

गुरुगोविन्द सिंह ने एक-एक लाश का सिर जाँच कर रखकर उसके रक्तारक्त मुख को यों दुलराने, आलिंगन करने और चूमने लगे, मानों बहुत दिनों के बिछुड़े बेटों को पिता कलेजे से लगा रहा हो। आह! कितने प्यारे लग रहे थे वे सभी चेहरे, जो आज निहाल हो गए, देश की मिट्टी में मिल गए थे - हमेशा के लिए।

अरे! यह तो माई मागों है। आखिर उस बहादुर माँ की लाश भी गुरुजी जी के पहचान में आ ही गई। कई शत्रु सैनिक उसके इर्द-गिर्द कटे पड़ें थे। तो माई मागों भी लड़ने आयी थी? और अमित गौरव से, उद्दाम प्रेरणा से, प्रबल उत्साह एवं दुर्दम्य भावना से गुरुजी का रोम-रोम आप्यायित हो उठा।

गु...रु...जी.... सरोवर तट के लाशों के ढेर से एक टूटता स्वर सुनाई दिया।

माई मागों का रक्त से सना मस्तक अपने हाथों से धीरे से नीचे रखकर गुरुजी उधर ही बढ़ें। अरे यह तो जत्थेदार महासिंह लगता है। अभी प्राण शेष हैं। गुरुजी ने आश्चर्य और प्यार के अतिरेक में कहा, जत्थेदार महासिंह! आखिर तुम भी आ गए। मेरे प्यारे खालसा। गुरुजी ने उद्दामा से उसको आलिंगन में ले लिया।

महासिंह उठ नहीं सकता था, वह निढाल पड़ा रहा। तीर-तलवार और भाले के अगणित बार उस पर हो चुके थे। स्वयं उसके हाथों कटी पड़ी हुई अनेकों लाशों उसके पास ढेर थीं।

गुरुजी सरोवर तट से अपना कमरबन्द भिगोकर लाए। महासिंह के मुँह पर उसका जल बूँद-बूँद टपकाते रहें। क्षण भर के लिए शायद अन्तिम बार उस महावीर का मुख्य दिव्य तेज से उद्भासित हो उठा। सोच रहा था जत्थेदार महासिंह - क्या गुरुजी ने उसको क्षमा कर दिया है? बेदावा लिखकर गुरुजी को अकेला छोड़ जाने का जघन्य अपराध इस मृत्युबेला में भी उसका हृदय कचोट रहा था।

गु..............रु...................जी! महासिंह कुछ कहना चाहता था।

महासिंह! मेरे प्यारे सपूत। बोलो। महासिंह की आँखें भरी आयीं। गुरुजी ने उसका सिर थपथपाया, आँसू पोंछे। गुरुजी! हम लोग अपना प्रायश्चित करने आए थे। प्रभु वह बेदावा फाड़ दीजिए। यही मेरी आखिरी अरदास है।

हर शिष्य के लिए स्पृहणीय बन गयी, महासिंह की अन्तिम इच्छा। गुरुजी ने अपने अंगरखे से बेदावा का कागज निकाला और फाड़कर उसके छोटे-छोटे टुकड़ों को सरोवर-जल में फेंक दिया। महासिंह को लगा कि उसकी आत्मा का घाव भर गया। गुरुजी की गोद में ही उसने अनन्त पथ की यात्रा के लिए आँखें बन्द कर लीं।

शिष्यों के इस अनूठे प्रायश्चित ने गुरुजी को भाव-विह्वल कर दिया। उन्होंने उस दिन कहा - यह स्थान ४१ बलिदानियों के रक्त से पवित्र हो चुका है। यहाँ जो आएगा, जो इस सरोवर में स्नान करेगा, वह भी मुक्तिपथ का भागी होगा। उन्होंने मुक्त-सर के नाम से उस सरोवर को सम्बोधित किया। तब से आज तक जब-जब मकर संक्रान्ति आती है, मुक्त-सर में उन ४१ शहीदों की याद में मेला लगता है।


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