परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ - III

September 1998

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८-७-७४ कुम्भ के अवसर पर दिया गया प्रवचन - (जून, १९९८ की तीसरी व अंतिम किश्त)

मित्रो! लोगों की निष्ठाएँ ब्राह्मण के प्रति कम हो गई हैं और जो रही बची है, वह और खत्म हो जाएँगी। लोगों की निष्ठाएँ साधु पर से भी खत्म हो गई हैं और जो रही-सही बची हैं तो और खत्म हो जाएँगी। अबकी बार मुझे कुंभ के मेले में इतनी खुशी हुई कि मेरे बराबर कोई भी नहीं। कुंभ के मेले को देख करके मैं भाव-विभोर हो गया। एक बार मैं इलाहाबाद गया था, तो मैंने क्या देखा था? उसी साल ऐसा हुआ था कि रेलों के नीचे-पाँव के नीचे छह-सात सौ आदमी कुचलकर मर गये थे। उस साल भी मैं कुंभ में था। उसके बाद मैं गया नहीं। अबकी बार मैं यहाँ हूँ। अबकी बार तो मुझे बड़ी भारी प्रसन्नता है कि लोगों ने आने से इंकार कर दिया और यह सही काम किया। इस तरीके से जहाँ लोग इकट्ठे होते थे। सन्त और महात्मा इकट्ठे होते थे। सन्त और महात्मा इकट्ठे होने के बाद सम्मेलन करते थे और सम्मेलन करने के पश्चात वाजपेय यज्ञ करते थे इन मौकों के द्वारा यह किया करते थे कि किस तरह से हमको देश का निर्माण करना चाहिए। समाज की गुत्थियों को हल कैसे करना है और व्यक्ति की नैतिक कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? वे सारी-की-सारी शिक्षाओं को देने के लिए कुंभ में चले आते थे।

परन्तु अब देखा न आपने, क्या - क्या हो रहा है? कहीं रास हो रहा है, क्या हो रहा है? जनता को आकर्षित करने के लिए जैसे कठपुतली वाले तमाशा करने के लिए जो ढोंग किया करते हैं, वे इस तरीके से किया करते हैं। न कोई। सम्मेलन की बात है, इनके पास न कोई ज्ञात है, न कोई दिशा है, न विचार है। लोगों को घृणा होगी और होनी चाहिए। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि लोगों में नफरत होती ची जा रही है और घृणा उत्पन्न होती चली जा रही है और बाबाजी के दर्शन करने से इंकार करता हुआ आदमी दिया जाता है। वे लोग अपने धर में कम्बल पहनकर सोते हैं और लिहाफ ओढ़कर सोते हैं और जब बाज़ार में होकर स्नान करने के लिए निकलते हैं, तो लंगोटी खोलकर निकलते हैं। मुझे बहुत शरम आती है। मुझे बहुत दुःख होता है। ठीक है, आप कपड़ों को उतारने वाले महात्मा हैं, तो आप जंगल में जाइये और वहाँ रहिए। वहाँ रहिए। वहाँ आप झोंपड़ी डालिए और गंगाजी में स्नान कीजिए। गाँव से आप बाहर रहिए। जहाँ हमारी लड़कियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बेटियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बहुएँ घूमती हैं, जहाँ हमारे बच्चे घूमते हैं, वहाँ आप मत जाइए। यदि आप नंगा बाबाजी हैं तो आप दुनिया को क्या संदेश देने चले हैं?

हरिद्वार में गंगा विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई हैं, परन्तु नहीं साहब, हम तो हर की पौड़ी में ही स्नान करेंगे। अरे बाबा, हरिद्वार की हर की पौड़ी भी तो किसी काम की नहीं है। यह तो हमारे लिए किसी ने खोदकर नहर निकाल दी है। यह तो एक नहर है। आप मालूम कर लीजिए हर की पौड़ी एक नहर है, या क्या? हर की पौड़ी तो गंगाजी हैं। गंगाजी तो हैं, पर खोदकर पाई गई हैं। गंगाजी में आपको नहाना है, तो आप वहाँ जाइये - नीलधारा पर नहाइये। यह गंगाजी नहीं है। यह मनुष्यों की बनाई हुई नहर हैं। नहीं साहब, हम तो ब्रह्मकुण्ड में नहायेंगे, हम तो यहीं नहाएँगे। हम तो ये करेंगे और हम तो नंगे होकर नहाएँगे। इस तरह के लोगों से इस कुम्भ में आने से इंकार कर दिया और भगवान से प्रार्थना करूँगा कि अगले वर्ष भी वे यहाँ न आयें। इसमें सफाई कर्मचारियों के अलावा, पुलिस वालों के अलावा और बाबाजियों के अलावा, तीसरा कोई जनता न आवें। तीन आदमी आ जाएँ। बस, काम बन जाएगा। लोग क्यों आने चाहिए और क्यों पैसा खराब करना चाहिए? इनको किस काम के लिए पैसा खराब करना चाहिए? छह तारीख को आप नहाएँगे तो बैकुंठ को जाएँगे। हर की पौड़ी के ब्रह्मकुण्ड में नहाकर के आप बैकुंठ को जाएँगे? यह बहम जिनके दिल के ऊपर सवार है, उनकी तादाद कम होनी चाहिए और उनकी तादाद खत्म होनी चाहिए, जिनको यह बहम हो गया है कि छह तारीख को न नहाने से बैकुंठ नहीं जाएँगे और हर की पौड़ी के कुंड पर नहा लेंगे तो सीधे बैकुंठ को जाएँगे और वहाँ सड़कों पर नहा लेंगे तो नरक को जाएँगे। इस तरह की मनोवृत्ति जितनी लोगों में कम होती चली जाएगी, धर्म की उतनी ही सेवा होती जाएगी।

इसलिए मित्रो क्यों हो गया? लोगों में पंडितों के प्रति, संतों के प्रति, साधुओं के प्रति, हरेक के प्रति अवज्ञा के भाव उत्पन्न हो गये हैं, और वे भाव हमारे पैदा किये हैं। हम पुनः आस्था की स्थापना करेंगे और किसकी? साधु के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे, ब्राह्मण के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे कि साधु और ब्राह्मण अपनी जिन्दगी किस तरीके से खपा देते थे। समाज के लिए समाज को ऊँचा उठाने के लिए और धर्म को ऊँचा उठाने के लिए। ऋषियों की निष्ठा को ऊँचा उठाने के लिए और विश्वासों को ऊँचा उठाने के लिए किस तरह से वे अपने आपके लिए तबाही मोल लेते थे और किस तरीके तरीके से गरीबी मोल लेते थे? किस तरीके से कष्ट उठाते थे? इसे हमको जिन्दा करना है। इसलिए आप पीला कपड़ा जरूर पहनना, जिससे कि लोगों को बहस करने का मौका मिले और आपको गालियाँ आपको खानी चाहिए, मैं तो कहता हूँ कि जिस आदमी को गालियाँ नहीं मिली, वह हमारा चेला नहीं हो सकता। गाँधीजी के शिष्य जितने भी, थे उनको गोलियाँ खानी पड़ी और आचार्य जी के चेलों को गालियाँ खानी पड़ी और आचार्य जी के चेलों को गालियाँ खानी चाहिए। गोलियाँ खाने को तैयार हो जाइये। नहीं साहब, गोली तो हम नहीं खाएँगे। ठीक है, आप गोली मत खाइये। तो क्या गाली खाएँ? गाली खाने से क्या एतराज है आपको? गाली तो खाइए ही।

आप पीले कपड़े पहन लेना और रेलगाड़ी के थर्डक्लास के डिब्बे में बैठ जाना हर आदमी गाली देगा आपको और कहेगा कि देखा बाबाजी बैठा हुआ है। यह देखो फोकट का माल खाने वाला बाबाजी बैठा हुआ है। यह हरामखोर बाबाजी बैठा हुआ, चालाक बाबाजी बैठा हुआ है, यह ढोंगी बाबाजी बैठा हुआ है। उन सबकी गाली आपको नहीं पड़नी चाहिए क्या? गाली आपको पड़नी चाहिए; क्योंकि लोगों ने इस तरीके से हमारे धर्म को, अध्यात्म को और भगवान को, ईश्वर को और सन्तवाद को बदनाम किया है। उसका प्रायश्चित हमें तो करना पड़ेगा ही। आखिर उनके वंश के तो हमीं लोग हैं ना? उनकी परम्परा के अनुयायी हमीं लोग तो हैं ना? उनकी औलाद तो हमीं लोग हैं ना? उनकी जिम्मेदारी हमीं लोग तो उठाने वाले हैं। ऋषियों के गौरव, ऋषियों के यश का लाभ हमीं लोग तो उठा सकते हैं, तो फिर हमारे जो मध्यकाल में ऋषि हुए हैं, उनके बदले की गाली कौन उठाएगा? गाली हमको खानी चाहिए। इसलिए पीला कपड़ा आप उतारना मत। जहाँ कहीं भी जाएँ वहाँ रंग का डिब्बा साथ लेकर जाएँ। यह मत कहना यहाँ तो रंग मिलता नहीं। यह हमारी शान है, यह हमारी इज्जत है। यह हमारी हर तरफ की साधु और ब्राह्मण की परम्परा- का उस समय की निशानी है, कुल की निशानी है। पीले कपड़े पहन करके जहाँ कहीं भी जाएँगे लोगों को मालूम पड़ेगा कि ये कौन है? ये उस मिशन के आदमी हैं, युगनिर्माण योजना के आदमी हैं, गायत्री परिवार के आदमी हैं। युगनिर्माण के आदमी कौन? जो संतों की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर बाँधकर खड़े हो गये, जो ब्राह्मण की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर कसकर खड़े हो गये हैं। जिन्होंने जीवन का यह व्रत लिया है कि हम श्रेष्ठ व्यक्तियों के तरीके से भले मनुष्यों के तरीके से - शरीफ आदमियों के तरीके से और अध्यात्मवादियों के तरीके से जिन्दगी यापन करेंगे। आपके बोलने की शैली, चलने की शैली और काम करने की शैली जब लोग देखेंगे तो समझेंगे कि साधु घृणा करने का पात्र नहीं है। साधु नफरत करने की निशानी नहीं है। साधु हरामखोर का नाम नहीं है। साधु फोकट में मुक्ति माँगने वाले का नाम नहीं है, बल्कि परिश्रम करके और कीमत चुकाकर जीवनयापन करने वाले का नाम है। स्वयं मुक्ति पाने के लिए नहीं, बल्कि बंधनों से सारे समाज को मुक्ति दिलाने वाले का नाम ही साधु है। ये बातें जब लोगों को मालूम पड़ेंगी तो परिभाषाएँ बदल जाएँगी, सोचने का तरीका बदल जाएगा। लोगों की आँखों में जो खून खौल रहा है, लोगों की आँखों में जो गुस्सा छाया हुआ है, वह खून खौलने वाली बात, गुस्सा छाने वाली बात से राहत मिलेगी।

मित्रो, अब ये जड़ें खत्म होने जा रही हैं और अध्यात्म बढ़ता हुआ चला जा रहा है। उसकी नींव मजबूत होने का फायदा फिर आपको मिल सकता है। आपको अपने इन्स्टीट्यूशन को मजबूत करने के लिए और मिशन की जानकारी अधिक-से-अधिक लोगों के कराने के लिए अपने इन पीले वस्त्रों को प्यार करना होगा। जब तक आपको मिशन में जाना है, क्षेत्रों में जाना है, जब तक इन पीले कपड़ों को उतारना मत।

अच्छे काम के लिए, अच्छा काम करने के लिए शरम की जरूरत नहीं है। आपको खराब काम, बुरे काम करने की जरूरत हो तो बात अलग है। अच्छा काम गाँधीजी ने शुरू किया था। तब चरखा को बुरा समझा जाता है। चरखा विधवाओं की निशानी समझा जाता था, लेकिन गाँधीजी ने जब से चरखा चलाना शुरू कर दिया, देशभक्तों की निशानी बन गई और वह काँग्रेस वालों की निशानी बन गई। हमें इस पीले कपड़े को चरखे की तरह समझना चाहिए। हम इसका गौरव बढ़ाएँगे और हम संत और महात्माओं की निष्ठा-आस्था को फिर मजबूत करेंगे, जो घटती चली जा रही है और हवा में गायब होती चली जा रही है। हमारे क्रिया-कलाप और हमारे वस्-दोनों का तालमेल मिला करके जब हम कार्यक्षेत्र में चलने के लिए तैयार होंगे, तो फिर क्यों हम उन परम्पराओं को जाग्रत करने में - जीवित करने में समर्थ न होंगे? जिसको ऋषियों ने हजारों और लाखों के खून से सींचकर के बनाया था, उसको जिन्दा रखा था।

आपको वहाँ जहाँ कहीं भी जाना है, एक आदर्श व्यक्ति की तरह से जाना है। आपको कन्याओं में भी काम करना पड़ेगा, आपको लड़कियों में भी काम करना पड़ेगा और महिलाओं में काम करना पड़ेगा। आप जहाँ कहीं भी जाएँ, दो बातों का ख्याल रखना। जहाँ कहीं भी आपको पैसे चढ़ाने का मौका आए, आरती का मौका आए, पूजा का मौका आए, कोई भी पैसा आता हो, वहाँ आप लेना मत। आप चाहें कि इकट्ठा दस हजार जेब में भरते जाएँ और कहें कि अरे साहब! ये पूजा की आरती में पैसे आये थे। ऐसा मत करना आप। यद्यपि यह सब करने का मौका मिलेगा। आप वहीं के लोगों को बुलाना और देखना कोई पैसे आते हैं, चढ़ावे में आते हैं, सामने रख जाते हैं। कोई चवन्नी चढ़ा जाती है। इस तरह पैसे का हिसाब बढ़ता चला जाएगा। इनको आप उस में रखना, जमा करना। आप पैसे के बारे में हाथ साफ रखना। आपको शाखा जो कुछ भी दें, वह किराये - भाड़े के रूप में कहीं भी जमा रखना। किराया आपको जो कुछ भी लेना हो, अपना खर्च वहीं से लेना। बाहर के लोगों से आप ये शिकायत न करना कि हमें साबुन की जरूरत है, कपड़े की जरूरत है और हमको वो वाली चीज चाहिए, हमको फलानि चीज चाहिए। कोई लाकर दे दे साबुन तो बात अलग है, लेकिन अगर आपको न दे तो आप अपने पैसे से ले लेना। नहीं तो वहीं के आदमी से माँग लेना, लेकिन वहाँ के लोगों को कोई दान-दक्षिणा का पैसा आप मंजूर मत करना।

आपको हमने संत बनाया है, लेकिन दान-दक्षिणा का पैसा वसूल करने का अधिकारी आपको नहीं बनाया है। व्यक्तिगत रूप से दान-दक्षिणा लेने का अधिकार बहुत थोड़े आदमियों को होता है। उन्हीं को होता है, जिनके पास अपनी कोई सम्पत्ति, अपना कोई धन नहीं होता। उस आदमी को भी दान-दक्षिणा लेने का अधिकार है। जिसने सारा जीवन समाज के लिए समर्पित कर दिया है और अपने घर की सम्पदा को पहले खत्म कर दिया है और अपने घर की सम्पदा के नाम पर उनके पास कोई पैसा जमा नहीं है। तब उस आदमी को हक हो जाता है। कि लोगों से अपने शरीर निर्वाह करने के लिए पैसा ले। शरीर के निर्वाह करने के लिए रोटी ले। आपको मालूम होगा - अखण्ड-ज्योति कार्यालय से गायत्री तपोभूमि प्रतिदिन दो बार आना-जाना होता था। भोजन अखण्ड-ज्योति जलाकर ही करते थे। यदि कभी तपोभूमि में देर तक रुकना पड़ता था, तो भोजन अखण्ड-ज्योति संस्थान से मँगा लेते थे और वहाँ बैठकर खाते थे। आपको मालूम है कि नहीं, हमें ज्ञात नहीं। हमारे पास जमीन थी, उस वक्त तक। इसीलिए जमीन जब तक हमारी थी, हमें क्या हक था कि हम अस्सी बीघे जमीन से अपना गुजारा न करें और गायत्री तपोभूमि के पैसे से हम कपड़े पहनें और रोटी लें। लोगों ने हमको धोतियाँ दी, कपड़े हमको दिए और कहा कि गुरुजी के लिए लाए हैं। गुरु-दक्षिणा में लाए हैं। आपके लाने के लिए बहुत धन्यवाद, बहुत एहसान। सारे के सारा बक्से में बन्द करते चले गये। सारे कपड़ों को तपोभूमि में भिजवा दिया। जहाँ कार्यकर्ता रहते थे, दूसरे लोग रहते थे, हरेक को हमने दे दिया। अच्छा भाई लो, किसकी धोती फट गई। हमारी फट गई धोती, इनको देना। इसके पास नहीं है। उसके पास नहीं है। अच्छा खोल दो बक्सा मेरा; क्योंकि वे अपना घर छोड़ करके आ गये थे। उनके पास जीविका नहीं थी। इसीलिए उन्हें खाने का अधिकार था। हमारा नहीं था अधिकार, हमने नहीं खाया। जब तक हम गायत्री तपोभूमि में रह हमने रोटी नहीं खाई, लेकिन जब हम अपनी अस्सी बीघे जमीन दे करके और भी हमारे पास जो कुछ था, दे करके खाली हाथ को करके आ गये, हम अपना केवल शरीर और वजन ले करके आ गये, तो हमने यह मंजूर कर लिया है और हम यहाँ शान्तिकुञ्ज के चौके में रोटी खाते हैं और कपड़े पहनते हैं।

मित्रो! दान-दक्षिणी की रोटी खाने का और कपड़े पहनने का अधिकार सिर्फ उस आदमी को है, जिसने अपनी व्यक्तिगत सम्पदा को समाप्त नहीं कर लेता। कहीं गया है ठीक है, मेहमान की तरह से रोटी खा ले बस। आपके पास पैसा आता है तो आप संस्था में जमा करना। पैसे के मामले में कहीं आप यह करके मत आना कि लोग आपके बारे में ये कहने लगें कि गुरुजी के चेले आपके पैसे के बारे में चोरी का भाव लेकर आते हैं, शिक्षा माँगने का भाव लेकर आते हैं। यह ख्याल ले करके मत आना। यह बदनामी है आपकी, हमारी और हमारे मिशन की।

एक और बात अपना करना मत। क्या मत करना? आपको हमने महिलाओं में, लड़कियों में मिला दिया है। हमने हवन-कुण्डों पर हवन करने के लिए लड़कियों को, स्त्रियों को शामिल करने की जिम्मेदारी उठा ली है। हमने एक बड़ा काम कर डाला। बड़ा दुस्साहस का काम कर डाला। आप समझते नहीं कितनी बड़ी जिम्मेदारी हमने उठा ली है। उस जिम्मेदारी की शरम रखना आपके जिम्मे हैं। लड़कियाँ आई है। सम्मान के साथ काम करेंगी। अमुक काम करेगी। लड़कियाँ आई हैं - अपने अपने कंधों पर सिर पर कलश के घड़े ले करके चलेंगी। आपके पास आएँगी और परिक्रमा लगायेंगी और जय बोलेंगी। कोई आपके लिए क्या कहेंगी और कोई हवन करने के लिए कहेंगी। आप हमेशा दो बातों का ध्यान रखना कि अकेले किसी लड़की से बात मत करना। जब कभी कोई अकेली लड़की, अकेली महिला आती हो तो चुप हो जाना और आवाज देकर दूसरों को बुला लेना। किसी मर्द को बुला लेना या किसी महिला को बुला लेना। अकेले बात मत करना कभी। कभी कोई अकेली स्त्री आये और आपसे कोई बात करना चाहती हो या अकेली बात करती हो तो आप कहना बहिन जी आप अपने बाप को, बहिन को लिवा लाइए और अपने भाई को लिवा लाइए। वह यहाँ आ करके बैठक जाएँ या फिर हम अपने बाबाजी को बुला लेते हैं। अकेली स्त्री से कभी भी बात मत करना। आप पर मैं यह प्रतिबन्ध लगाता हूँ। अकेले मत बात करना। किसी मर्द के बिना बात मत करना। यह प्रतिबन्ध नम्बर एक हुआ।

बन्धन नम्बर दो। कन्याओं से और लड़कियों से बात करते हुए आपको ईसाई मिशन वाली बात याद रखनी चाहिए। ‘नन’ जो होती हैं, ईसाई मिशन काम काम करती हैं। उनको ऐसी शिक्षा दे दी जाती है कि वे महिला में, महिला समाज में काम करती हैं मुर्दों में काम करती हैं, मुर्दों में काम करती हैं। उनको आपने देखा होगा। नर्सों के रूप में जो काम करती हैं, महिलाओं में काम करती हैं, उनको नर्स कहते हैं जो पादरी होती हैं, उनको नन कहते हैं। ननें टोपा-सा पहने रहती हैं। शायद कभी आपने देखा हो। ननों को शिक्षा दी जाती है। एक खास शिक्षा दी जाती हैं उनको कि कभी भी मर्दों से आँख से आँख मिलाकर बात नहीं करनी चाहिए। मर्दों के सामने बात करें तो काम की बात करें। समझाइए ये बात कीजिए, वो बात कीजिए पर आँख से आँख मत मिलाइये। आँखें नीची रख करके महिलाओं से आप भी बातें करें आपको भी यही शिक्षा दी जाती है। आपको भी ये शिक्षा दी जाती है कि महिला समाज में जहाँ कहीं भी आपको रहना पड़े आँख से आँख मिलाइए मत, आँखें नीची करके बात कीजिए। नीचे आँख करके बात करेंगे, तो आपका गौरव, आपका सम्मान, आपकी इज्जत बराबर बनी रहेगी। गम्भीर हो करके आप कीजिए बात। जोरों से कीजिए बात। दोस्तों से विशिष्ट बात मत कीजिए। जो भी कह रहे हैं, उसे जोर से कहिए। ऐसे कहिए मानों दूसरों को कम सुनाई पड़ता है। कम सुनने वाला आदमी कैसे बोलता है? सोचता है इन सबको कम सुनाई पड़ता है। धोती माँग दीजिए। अरे हमारे तो कान अच्छे हैं। आप ये समझ रहे हैं, महिला समाज में जब आपको काम करना पड़े तो आप क्या कहेंगे। आप यह समझाना कि हमारे कान बहरे हो गये हैं। जोर से कह लड़की क्या कहती है। जो कहना हो वह भी जोर-जोर से कहना। आप इन बातों को ध्यान रखना। ये बातें काम की हैं है तो राई की नोक की बराबर, लेकिन आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, शालीन आदमी हो करके जाएँगे, श्रेष्ठ आदमी हो करके जाएँगे। आप अपनी संस्था के गौरव को अक्षुण्ण रखे में समर्थ हो सकेंगे।

अब मैं आपको यहाँ से भेजता हूँ। कहाँ भेजता हूँ? आपने अपनी कन्या के हाथ पीले कर दिए। मैंने किसके पीले हाथ कर दिए? आप लोगों के पीले हाथ किए हैं कपड़े मैंने पहना दिये हैं, पीले हाथ कर दिये हैं, अब आपकी जिम्मेदारी है अब आपका इम्तहान लिख जाने वाला है और आपकी यह परख होने वाली है कि ये जो बहू आई है, कैसी हैं और बहू को क्या-क्या बनाना आता है। रोटी बनानी आती है बहू को नहीं। बहू को पकौड़ी बनानी आती है कि नहीं। बहु को पकौड़ी बनानी आती है कि नहीं। उसके सास, ससुर बैठे हैं। अरे ये बहू आई है, बहू के हाथ से पूड़ी तो बनवाकर कर खिलवाओ, बहू के हाथ से कचौड़ी तो बनवाकर खिलवाओ। सब बैठे हुए हैं, सारा घर बैठा हुआ है और देखिए बहू की असली इज्जत को रखना आप अपनी ससुराल में।

याद रखिए आप वह नाम कमा करके आना कि लोग हमसे बार-बार यहीं कहे कि पिछली बार जिन मोहनलाल जी को आपने भेजा था, इस बार भी आप उन्हीं को भेजना गुरुजी। अबकी बार फिर हमने सम्मेलन किया है और हमारे लिए तो मोहनलाल जी को ही भेज दीजिए। बेटा, मोहनलाल जी की नहीं अबकी बार तो मक्खनलाल जी को भेजेंगे। पिछली बार तो मक्खनलाल जी को भेजा था। मोहनलाल जी से इक्कीस ही भेज रहे हैं। उन्नीस नहीं है। अरे गुरुजी, उन्हीं को भेज देते तो अच्छा रहता। लोग याद करें आपको, ऐसी आप निशानियाँ छोड़ करके आना। अपने स्वभाव की, अपने कर्म को, अपने गौरव की और अपनी विशेषताओं की। गौरव की बात छोड़ करके आये तो मित्रों, धन्य हो जाएगा आपका वानप्रस्थ, धन्य हो जाएगा हमारा ये शिविर। धन्य हो जाएँगे आपके वे क्रिया−कलाप, जिनके लिए सारे भारत वर्ष में भ्रमण करने के लिए, लोगों में भावना पैदा करने के लिए लोगों भावना पैदा करने के लिए, लोगों में भगवान के प्रति निष्ठा जगाने के लिए, अध्यात्मवाद की स्थापना करने के लिए, आत्मा का विकास करने के लिए, आत्मा का विकास करने के लिए और धार्मिकता की स्थापना करने के लिए आपको भेजते हैं। आपको इन्हीं तीन उद्देश्यों के लिए भेजते हैं। आप साधना करके आना और हमारी लाज रख के आना। आज की बात समाप्त हुई।

!! ओम् शान्ति!!


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