कम से कम विज्ञान तो रूढ़िवादी न बने

September 1998

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संसार में विज्ञान के विकास की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या इसके मूल में सिर्फ विश्व की भौतिक उन्नति ही कारणभूत है या कुछ और भी? अक्सर इस प्रकार के प्रश्न जिज्ञासुओं के मस्तिष्क को ज्वार-भाटे की तरह मथते रहते हैं, पर समाधान न मिल पाने के कारण उनकी उधेड़बुन ज्यों-की-त्यों बनी हुई है और वे यह निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि आस्थाओं, मान्यताओं, रूढ़ियों के परिवर्तन-परिष्कार में भी इसकी कोई भूमिका है क्या?

अन्तिम प्रश्न पर विचार करने से पूर्व तनिक इस विषय पर चिन्तन करना पड़ेगा कि वास्तव में विज्ञान है क्या? परिभाषा की दृष्टि से सोचें, तो किसी भी वस्तु के क्रमबद्ध और विवेकसम्मत ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। इसे इसकी समग्र और पूर्ण परिभाषा कही जा सकती है, कारण कि इसमें सूत्र रूप में वह सारी बातें सन्निहित हैं, जो इसकी समग्रता के लिए अभीष्ट और आवश्यक हों। इतने पर भी इन दिनों विज्ञान से प्रायः जिस विधा का अर्थ लगाया जाता है, वह है-तकनीकी या यांत्रिक ज्ञान। इसमें दो मत नहीं कि पदार्थ सत्ता के लगातार अन्वेषण और अनुसंधान के फलस्वरूप आज उसका वह स्वरूप ही सर्वसाधारण के सामने अधिक स्पष्ट और उजागर है, जिसे ‘मशीनी ज्ञान’ कहते हैं, तो फिर भी पदार्थ विज्ञान सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। स्थूल दुनिया के अंतर्गत पदार्थ से संबंधित जितने भी गोचर, अगोचर दृश्य एवं घटनाएँ हैं, उन सभी को उस विभाग में रखना पड़ेगा और उनका अध्ययन-विश्लेषण कर उस तह तक पहुँचना पड़ेगा, जहाँ साधारण सोच और साधारण बुद्धि पहुँच पाने में असमर्थ है। संक्षेप में यही है विज्ञान और वैज्ञानिक चिन्तन। इसकी कितनी ही शाखाएँ हैं। फिर प्रत्येक की पृथक-पृथक अनेक शाखा-प्रशाखाएँ हैं। इनमें से किसी से भी संबंधित वह प्रकरण विज्ञान की ही विषयवस्तु कहलायेगी। इस प्रकार इसे तर्क और तथ्यसम्मत दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाला प्रामाणिक कहा जा सकता है।

वाल्टर मरे अपनी पुस्तक ‘साइंस एण्ड सोसायटी’ में लिखते हैं कि सम्प्रति संसार में जिस प्रकार का भौतिक उत्कर्ष हुआ है और जितने सुविधा-साधन बढ़े हैं, उसका श्रेय निश्चित रूप से विज्ञान को जाता है, पर उसकी समाज के सिर्फ पदार्थपरक विकास तक ही सीमित नहीं माना जाना चाहिए, उससे विचारों में भी क्रान्ति आई और जनमानस में एक ऐसी सोच पैदा हुई, जिसे ‘वैज्ञानिक’ कहा जा सके। इस नये चिन्तन ने विकृत आस्थाओं पर कुठाराघात करना प्रारम्भ किया। परिणाम यह हुआ कि लम्बे समय से समाज में जड़ें जमाये रहने वाली अंधमान्यताएँ, कुप्रथाएँ और चित्र-विचित्र परम्पराएँ अस्तित्व बचाये रखने वाले ठोस आधार के अभाव में अपनी मौत मरने लगी।

परम्पराएँ और प्रथाएँ सदैव सामयिक आवश्यकताओं और तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए गढ़ी जाती है। इसी कारण से एक ही समय में अलग-अलग संस्कृतियों में पृथक-पृथक प्रचलन देखे जाते हैं। यह सनातन नहीं होते। समय के साथ-साथ बदले परिवेश में तदनुकूल परिवर्तन इनमें आवश्यक होता है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो ओछी मान्यताओं और प्रतिगामी विचारों के कारण समाज की अवस्था पिछड़ों की-सी हो जाती है। वैज्ञानिक विचारधारा इसी हेय मनोदशा से समाज और संस्कृति को उबारकर उस स्थिति में पहुँचाती है, जिसे ‘प्रगतिशील’ कहा जा सके। विज्ञान को इसीलिए प्रगतिशीलता का पर्याय माना जाता और समझा जाता है कि वह हर प्रकार के बेतुके सिद्धान्तों और भौंड़ी अवधारणाओं को विवेकशीलता की तराजू पर तौलते हुए अमान्य कर देगा।

दुर्भाग्य की बात है कि जो विज्ञान अब तक व्यक्ति और समाज को आगे बढ़ाने एवं ऊँचा उठाने में प्रयत्नशील था, अब उसी से पिछड़ेपन को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिलने लगा है। इसके कई उदाहरण हमारे समक्ष हैं।आज से कुछ वर्ष पूर्व आस्ट्रिया के जीव- वैज्ञानिक फ्रैंकसलोवे ने अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द् एडवांसमेंट ऑफ साइंस’ नामक अमेरिकी संस्थान में अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट भेजी। उसके द्वारा उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि प्रथम संतान प्रतिभा की दृष्टि से साधारण होती है, जबकि बाद की संतानें अत्यन्त प्रतिभाशाली। सलोवे के इस सिद्धान्त के पीछे न तो कोई वैज्ञानिक तर्क था, न तथ्य। यह सिर्फ सर्वेक्षणों पर आधारित निष्कर्ष था। फिर उनके इस थ्योरी से विज्ञानजगत में तहलका मच गया, कारण कि यह अपने प्रकार का एकदम नवीन प्रतिपादन था। इसकी सत्यता जाँचने के लिए विश्व भर में अनेक अध्ययन हुए, पर एकाध को छोड़कर परिणाम जन्म-क्रम सिद्धान्त’ के बिलकुल विपरीत गया अनेक वर्षों तक इस क्षेत्र में लगातार अध्ययन करने के उपरान्त स्वीडन के दो मूर्धन्य मनःशास्त्रियों सीसाइलआर्नेस्ट एवं जूलियससंगस्ट ने एक पुस्तक लिखी, नाम था-बर्थ आर्डर’। इसमें उन्होंने इस बात का स्पष्ट खण्डन किया कि जन्मक्रम का प्रतिभा से कोई संबंध है। उन दोनों ने सलोवे जैसे प्रतिष्ठित विज्ञानवेत्ता द्वारा इस प्रकार का अवैज्ञानिक कथन करने पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि केवल जन्म के आगे-पीछे होने मात्र से कोई प्रतिभावान बन जाए और दूसरा बालक प्रतिभाहीन बना रहे, यह बात गले नहीं उतरती। शरीरविज्ञान में ऐसा कोई सिद्धान्त भी नहीं, जिससे इसकी पुष्टि होती हो। इस प्रकार उक्त मत निरस्त हो गया।

यह संसार विशाल है। इसमें अध्ययन द्वारा ऐसे कुछ उदाहरण मिलें भी कि बाद की संतति मेधावान् होती हैं, तो इसे किसी निश्चित नियम के अधीन नहीं रखा जा सकता, केवल संयोग ही कहा जा सकता है और न उसके आधार पर किसी मत की स्थापना की जा सकती है, क्योंकि खोजबीन से इसके विपरीत प्रमाण भी इकट्ठे किये जा सकते हैं। तब दूसरा पक्ष इससे ठीक उल्टी स्थापना करना चाहेगा। इससे विज्ञान सुस्थापित शास्त्र न रहकर उपहास बन जाएगा, कारण कि केवल सर्वेक्षणों पर आधारित ज्ञान को विज्ञान नहीं कहते हैं, उसके पीछे ठोस आधार और कारण होने चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों होता है? जब तक इस ‘क्यों’ का उत्तर नहीं मिलता, प्रतिपादन को वैज्ञानिक व्याख्या के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता।

पिछले दिनों विज्ञान क्षेत्र में इसी तरह का एक अन्य ऊटपटाँग दावा किया गया। प्रतिपादनकर्ता थे- डॉ. रैण्डी अनमिल। यह कोई सामान्य पढ़े-लिखे साधारण व्यक्ति नहीं, वरन् न्यू मैक्सिको विश्वविद्यालय में प्राणिशास्त्र के प्राध्यापक हैं। उनके अध्ययन-निष्कर्ष के अनुसार शरीर-सौष्ठव का बुद्धि से गहरा संबंध है। वे कहते हैं कि जो शरीर गठन और रूप-लावण्य की दृष्टि से जितना सुन्दर और आकर्षक होगा, उसकी बुद्धि उतनी ही कुशाग्र होगी। उक्त निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व उनने कुछ लोगों की शरीर-संगठनों का अध्ययन किया। वे सभी उनकी अवधारणा में खरे उतरे। संयोग से उनने जिनका-जिनका अध्ययन किया, वे सब औसत बुद्धि से कुछ ऊँचे दर्जे के थे। बस, इसी आधार पर उन्होंने यह प्रतिपादन कर डाला कि संसार के सभी सौंदर्यसम्पन्न बुद्धिमान होते हैं। यदि वास्तव में ऐसी बात होती, तो दुनिया की समस्त सुन्दरियाँ मेधावान् होतीं, पर ढूँढ़ने पर अगणित ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे, जो उनके इस मत का खण्डन करते हैं। यहाँ ऐसी रूपसियों की कमी नहीं, जिनमें साधारण स्तर की भी बुद्धि का अभाव होता है और वे मन्दमति मानी जाती है। इसके विपरीत ऐसे लूले-लँगड़े तथा काने-कूबड़े भी देखे जाते हैं, जो मेधावान् ही नहीं, प्रज्ञावान भी होते हैं। विरजानन्द, सूरदास, अष्टावक्र आदि ऐसे ही नाम हैं। इस प्रकार थॉर्नबिल की प्रस्तुत विचारधारा अमान्य हो जाती है। उनका यह मत लंदन के ‘सण्डे टाइम्स’ नामक प्रतिष्ठित पत्र में कुछ दिन पूर्व प्रकाशित हुआ था।

बात यही समाप्त नहीं होती। अब विज्ञानवेत्ता लड़की-लड़के के जन्म के संबंध में भी ऐसे ही प्रतिगामी विचार प्रकट कर रहे हैं। ‘न्यू साइंटिस्ट’ नामक लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका में विगत दिनों एक खबर छपी कि जिन लड़कियों को प्रथम संतान के रूप में बेटा चाहिए, उन्हें अपने से कई वर्ष बड़े पुरुष से शादी करनी चाहिए और जो पहली संतान बेटी चाहती हों, उनको अपने से कम उम्र या हमउम्र मर्द से विवाह करना चाहिए।

यह निष्कर्ष है इंग्लैण्ड के लीवरपूल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों का। मूर्धन्य विज्ञानी जे. टी. मैनिंग और उनके सहयोगियों ने करीब ३.. दम्पत्तियों का अध्ययन किया, जिनमें दोनों प्रकार के जोड़े मौजूद थे, वैसे भी, जिनकी पत्नियाँ पति से उम्र में छोटी थीं और वैसे भी, जो या तो अपने पति से बड़ी थीं या समवयस्क। उनका कहना है कि इस सर्वेक्षण का जो परिणाम सामने आया, उसी आधार पर उपर्युक्त दावा किया गया हैं।

सचाई तो यह है कि इसे तथ्य नहीं, मात्र संयोग कहना चाहिए। यदि सैकड़े में पाँच-दस उदाहरण ऐसे मिल भी जाएँ, तो इतने से ही कोई स्थिर सिद्धान्त तो नहीं बन जाता। फिर भारत में तो जोड़ी बिठाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि वर, वधू से दो-चार साल बड़ा हो। इतने पर भी सहस्रों लोग ऐसे मिल जाएँगे, जिनके प्रथम संतति कन्या हुई हो। इतना ही नहीं, उनमें अनेक ऐसे लोग भी सम्मिलित होते हैं, जिनकी पहली ही नहीं, बाद की भी सारी संतानें लड़की होती हैं, आखिर क्यों? जबकि उम्र में आवश्यक अन्तर बना रहता है। इस सवाल का जवाब वैज्ञानिकों के पास नहीं है, न ही वे अपने उपर्युक्त प्रतिपादन के समर्थन में कोई विज्ञानसम्मत तथ्य प्रस्तुत कर सके कि आयु संबंधी कारण रज और वीर्य में आखिर किस स्तर का परिवर्तन क्यों और कैसे कर देता है कि उससे प्रथम संतान बालक के रूप में ही सामने आए? इसे अन्धमतवाद ही कहना चाहिए।

अंधमान्यताएँ दो स्तरों पर देखी जाती हैं- एक वह जो ग्रामीण स्तर पर अनपढ़ों आघ्र अज्ञों में दृष्टिगोचर होती हैं तथा दूसरी वे, जो तथाकथित बुद्धिजीवियों में दिखलाई पड़ती हैं। प्रथम स्थिति को तो सामान्य और स्वाभाविक माना भी जा सकता है, पर दूसरी अवस्था तो एकदम असहनीय है। इसे बौद्धिक रूढ़िवाद ही कहना पड़ेगा। मनुष्य विवेकशील होकर भी अविवेकियों की तरह आस्थाएँ और धारणाएँ अपनाये तो इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? विशेषकर आज जैसे प्रगतिशील और वैज्ञानिक युग में, जब मतमतान्तरों के प्रत्येक पहलू को विज्ञान की दृष्टि से जाँचा-परखा जाता हो और यह सुनिश्चित किया जाता हो कि वे कितने युगानुकूल हैं। यह दशा तब और असत्य हो जाती है, जब प्रतिपादनकर्ता स्वयं विज्ञान का प्रबल पक्षधर और प्रवक्ता हो।

अवैज्ञानिक कथनों से विज्ञान की विश्वसनीयता पर अंगुली उठती और संदेह पैदा होता है, लोग यह सोचने पर विवश होते हैं कि कहीं यह वैज्ञानिक अन्धवाद तो नहीं? लोकमानस लम्बे समय तक सामाजिक रूढ़ियों से ग्रसित रहा। अब यदि उसका स्वरूप और प्रतिपादक परिवर्तित हो पाए, तो इससे कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। असत्य विद्वान् बोले या मूर्ख- इससे क्या फर्क पड़ने वाला है? मिथ्या तो सदा मिथ्या ही रहेगी। आज हम ऐसी ही वैज्ञानिक रूढ़ियों और भ्रान्तियों से घिरते चले जा रहे हैं। कहीं उसका यह रूढ़िवाद हमें युगों पीछे न धकेल दे, इससे हर एक को सचेत रहना चाहिए।


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