विवाह का अर्थ है दो आत्माओं का मिलन, काया का नहीं। जो शरीर देखते हैं, ये पछताते व बहुमूल्य अवसर खोते है।
महर्षि अत्रि की एक पुत्री थी। नाम था उसका अपाला। कुछ बड़ी हुई, तो उसके सिर पर श्वेत कुष्ठ निकल आया। बहुत उपचार करने पर भी अच्छा न हुआ, वरन् बढ़ता गया।
पुत्री विवाह योग्य हुई। तो वर खोजा गया। उस विदुषी के ज्ञान की प्रशंसा सुन कर अनेक वर आये, पर श्वेत दागों को देखकर वापस लौट गये। ऋषि शिष्य वृताश्व ने बिना कुछ पूछताछ-देख-भाल किये ही भावावेश में पाणिग्रहण कर लिया।
घर पहुँचने पर वृताश्व ने जब चर्म दोष देखा तो वे उदास हो गये। कभी ऋषि को, कभी अपाला को कभी अपने को दोष देने लगे। किसी पर भार बनने की अपेक्षा अपाला अपने पिता के यहाँ वापस लौट गई। उसने अपना समस्त ध्यान-तप के लिये नियोजित कर दिया। उसकी प्रवीणता ने उसकी गणना ऋषियों में कराई। चर्म-दोष की तुलना में ज्ञान और चरित्र की गरिमा भारी बैठी।