साधना से सिद्धि के मूलभूत सिद्धान्त

September 1995

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आध्यात्म-विद्या में जिन्होंने थोड़ा बहुत भी प्रवेश किया है वे जानते हैं कि साधना से सिद्धियाँ प्राप्त होती है। अष्ट-सिद्धि और नव-निधियाँ प्रसिद्ध हैं। विभिन्न योगों द्वारा विभिन्न शक्तियों का मिलना प्रकट ही है। इन्द्रियों के आकर्षक भोगो को, सुख-सुविधा को, ऐश आराम को, छोड़कर कोई व्यक्ति कष्ट दायक, कठोर नीरस, श्रम-साध्य साधना में लिये यों ही उद्यत नहीं हो जाता। ज्यादा कीमती चीज के लिए कम कीमती चीज का त्याग किया जाता है। साधना का कष्ट इस लिये सहन करते हैं, कि जिन सुखों का त्याग किया गया है उससे अधिक मूल्यवान सुख प्राप्त हो। यदि ऐसा न होता तो कोई भी व्यक्ति साधना का कष्ट सहने को तैयार न होता।

अनेक अवसरों पर अनेक व्यक्तियों द्वारा ऐसे कार्य करते हुए किन्हीं व्यक्तियों को देखा जाता है, जैसे कि कार्य साधारण आदमी आम-तौर पर नहीं कर सकता। आम जनता के साधारण दायरे से बाहर की जो चीज होती है वह सिद्धि कहलाती है। जैसे हवा में उड़ने वाला मनुष्य सिद्ध कहा जायेगा, किन्तु पक्षी को कोई सिद्ध न कहेगा। पक्षी आम तौर से उड़ते हैं, इसलिए उनके उड़ने में कुछ अचम्भा नहीं है, क्योंकि आम तौर से मनुष्य प्राणी उड़ा नहीं करता। पानी में रहना हमारे लिए सिद्धि है, मछली के लिए नहीं। एक घण्टे में बीस मील की चाल से दौड़ना हमारे लिये सिद्धि है, पर घोड़े के लिए नहीं। हाथी को कोई मनुष्य पछाड़ दे तो उसे सिद्ध कहा जायेगा, किन्तु सिंह जो अक्सर हाथियों को पछाड़ता रहता है सिद्ध नहीं कहलाता। कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय जो बातें सब किसी में दिखाई नहीं पड़ती, वह बातें किसी विशेष व्यक्ति में हो तो उसे आध्यात्मिक भाषा में ‘सिद्धि’ शब्द से पुकारा जाएगा। आश्चर्यजनक और असाधारण कार्यों का ही दूसरा नाम ‘सिद्धि’ है।

एक समय में जो बात साधारण होती है, वही बात समय और परिस्थिति के प्रभाव से असाधारण हो जाती है। सतयुग, त्रेता आदि प्राचीन युगों में अब की अपेक्षा मनुष्य अधिक ऊँचा, लम्बा, चौड़ा, अधिक खाने वाला और अधिक काम करने वाला होता था, किन्तु इस समय में तब की अपेक्षा आदमी की काया, खुराक और मजबूती बहुत घट गई है। सतयुग के लम्बे-तगड़े आदमी को अब लाकर दिखाया जाय या अब के आदमियों को तब सतयुग वालों को दिखाया जाता तो निस्संदेह आश्चर्य की सीमा न रहती। एक देश वाले दूसरे देश वालों के रीति-रिवाज खान-पान वेश-भूषा और भाषा को आश्चर्य जनक समझते हैं। लेकिन अपने देश की प्रथा-प्रणाली किसी को अचरज की मालूम नहीं देतीं। सिद्धियाँ हमें आश्चर्य में डालती है। क्यों? इसलिये कि वे आम लोगों में वर्तमान समय में नहीं देखी जाती। जो वस्तु सब किसी के पास नहीं है वह आश्चर्य है, चमत्कार है, वैभव है। पीतल के पर्वत हर किसी के घर में होते हैं, उन्हें देखकर कुछ कौतूहल नहीं होता। परन्तु सोने की थाली में किसी को भोजन करते हुए देखते हैं तो बार-बार उसकी ओर ध्यान आकर्षित होता है। यदि सोना इतनी अधिक मात्रा में निकलने लगे कि घर-घर में सोने के बर्तन हो जाये तो पीतल की भाँति ही वह सोना भी आकर्षण हीन हो जायेगा। यदि सभी धनी, बँगले वाले, मोटर वाले, अमीर हो जाएँ तो फिर उनकी ऐसी पूछ न रहेगी जैसी कि अब है। सिद्धियों को देखकर आश्चर्य का होना ऐसा ही है। अधिक लोगों के पास जो योग्यताएँ नहीं है उन्हें किसी खास व्यक्तियों में देखकर विचित्रता प्रतीत होती है। चमत्कारों को देखकर हम अचम्भा करते हैं तो भी वास्तव में स्वतः उनमें अचम्भे की कोई बात नहीं है।

मनुष्य अनन्त शक्तियों का महाभण्डार है, उसके अन्दर ऐसी महान सत्ताएँ सन्निहित हैं, जिनके एक-एक कण द्वारा एक-एक जड़ जगत का निर्माण हो सकता है। जितना बल उसके अन्दर मौजूद है, उसका लाखवाँ भाग भी अपने प्रयोग में प्रायः नहीं ला पाता है। इस छिपे हुए महाभण्डार में अगणित, अतुलित रत्न राशि छिपी पड़ी है, जो कोई जितना कुछ उसमें से निकाल लेता है वह उतना ही धनी बन जाता है। परमात्मा का अमर राजकुमार अपने पिता की सम्पूर्ण शक्तियों का सच्चा उत्तराधिकारी है। इच्छा और प्रयत्न करते ही सब कुछ उसे मिल सकता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे वह अपने पिता के खजाने से पा न सके। जितनी सिद्धियाँ अब तक सुनी या देखी गई हैं वे सब बहुत थोड़ी है। अभी इनसे भी अनेक गुनी, अनन्त गुनी तो वे छिपी ही पड़ी है। जब मनुष्य विकसित होते-होते परमात्मा को ही प्राप्त कर सकता है, स्वयं परमात्मा बन सकता है, तो उन सब महानताओं और शक्तियों को भी पा सकता है, जो परमात्मा के हाथ में हैं। परमात्मा की इच्छा से हर एक असम्भव बात सम्भव हो सकती है फिर परमात्मा की स्थिति में पहुँचा हुआ मनुष्य भी वैसा ही असम्भव को सम्भव करके दिखा देने वाला हो सकता है। सिद्धियाँ असम्भव हैं, ऐसा कहना भ्रम मूलक है। एक से एक आश्चर्य जनक चमत्कारी कार्य मनुष्यों द्वारा हुए हैं, हो रहे हैं और आगे होंगे। हमारी क्षमताओं की सम्भावना इतनी ऊँची है कि साधारण बुद्धि से उसकी कल्पना करना भी कठिन है। हर एक असम्भव बात मानव प्रयत्न के द्वारा सम्भव हुई है और हों सकती हैं।

जलते हुए अंगार के ऊपर जब राख जमा हो जाती है तो वह राख से ढका हुआ अंगार बाहर से छूने पर गरम नहीं मालूम पड़ता। किन्तु जैसे-जैसे उस राख को हटाया जाता है वैसे ही वैसे गर्मी बढ़ने लगती है जब वह पूर्ण रूप से हट जाती है तो अंगार इतना गरम निकल जाता है कि उसे छूना कठिन होता है। एक जलती हुई बिजली की बत्ती को कपड़े के अनेक पर्तों से ढक दिया जाय तो उसका प्रकाश कपड़ों से बाहर न आ सकेगा। किन्तु जैसे उन पर्तों को हटाते जाते हैं वैसे ही वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है जब सारे पर्त अलग हो जाते हैं तो स्वच्छ बिजली की बत्ती निकल आती है और उसके प्रकाश से चारों ओर जगमग होने लगता है। जलाने वाला अंगार वही था उसके अन्दर दाहक शक्ति सदा से मौजूद थी परन्तु राख ने उसे ढक दिया था बिजली की बत्ती वैसी ही जल रही थी परन्तु कपड़े के पर्तों से ढके होने से प्रकाश बन्द था। यही बात मनुष्य की है वह अनेक शक्तियों का भण्डार है किन्तु दुर्वासना, दुर्भावना, कुविचार, भोग, लिप्सा, अनीति आदि आवरणों के पर्तों से वे ढक जाती है। यह पर्त इतनी अधिक मात्रा में जमा हो जाते हैं कि मनुष्य एक बहुता ही तुच्छ, निर्बल, असहाय बेबस, और दीन-हीन प्राणी मात्र रह जाता है पशु-पक्षियों और कीट पतंगों की अपेक्षा भी उसका बल साहस और सुख कम रह जाता है। तरह-तरह के कष्टों से रोता-कलपता रहता है, अपने छोटे-मोटे दुख दरिद्रों को भी वह हटा नहीं पाता। ऐसी पतित अवस्था में पड़ा हुआ जीव यदि आध्यात्मिक सिद्धि को देखकर हैरत में पड़ जाता है और उसके अस्तित्व पर अविश्वास करने लगता है तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

जब हम अपनी कुवासना और दुर्भावनाओं को हटाकर सद्वृत्तियों और सद्भावनाओं को निखारते हैं तो आत्म तेज निर्मल होकर अपनी अनन्त महत्ताओं को प्रकट करने लगता है। यह प्राकट्य ही सिद्धि है। पतंजलि योग सूत्र जिन्होंने पढ़ा है वह जानते है कि यम-नियम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) यह सिद्धियों के मूल स्रोत हैं। अहिंसा पालन करने से, उसके समीप पहुँचने वाले आपस का वैर-भाव भूल जाते हैं गाय सिंह पास बैठी रहती हैं। सत्य का पालन करने से वाणी सत्य होती है जो .................. वरदान दिया जाय सफल होता है। अस्तेय का पालन करने से सब रत्नों की प्राप्ति होती है, लक्ष्मी की कमी नहीं रहती, अपरिग्रह से पूर्व जन्मों का हाल मालूम होता है। तप से शरीर हलका और दूर-दृष्टि मिलती है यदि। पतंजलि के इस कथन पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने से प्रतीत होता है कि यह सिद्धियाँ बाहर से प्राप्त नहीं होती। कोई पुरस्कार की तरह इन्हें प्रदान नहीं करता वरन् यह सब अपनी आन्तरिक योग्यताओं का निखार मात्र है। हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, लोभ, मलीनता, तृष्णा, आलस्य, अविद्या, नास्तिकता आदि दुर्गुणों के कारण भीतर की दिव्य शक्तियाँ निर्बल, कुंठित और नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। जैसे-जैसे इन कमजोरियों को हटाकर हम अपनी स्वाभाविक, सात्विक अवस्था की ओर चलते हैं। वैसे-वैसे हम सफल विजयी, समृद्ध, सिद्ध और महान् बनते जाते है।


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